हालात दिन पर दिन बद से बदतर
पटियाला का पंजाबी विश्वविद्यालय कर्ज के भारी बोझ तले दबा हुआ है. राज्य सरकार ने इस कर्ज का भार अपने ऊपर लेने का वादा किया था लेकिन अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है. आज की तारीख में पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला या पीयूपी में बना ‘भाई कान्ह सिंह नाभा पुस्तकालय या बीकेएसएन लाइब्रेरी’, पुरानी किताबों और एतिहासिक कंप्यूटरों का एक अड्डा भर लगता है. एक पुस्तकालय हर जिज्ञासु के लिए जानकारी का कोष होता है लेकिन यह लाइब्रेरी इससे कोसों दूर है.
विश्वविद्यालय और बीकेएसएन लाइब्रेरी दशकों से बड़े पैमाने पर फंड्स की कमी से जूझ रहे हैं. इसकी परेशानियां 90 के दशक की शुरुआत से ही शुरू हो गई थीं, जो कि समय के साथ बद से बदतर होती चली गईं. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यह विश्वविद्यालय 2013-14 से कर्ज ले रहा है. पीयूपी की स्थापना 30 अप्रैल, 1962 को पंजाबी इतिहास, भाषा, कला, साहित्य और संस्कृति को जीवित रखने के लिए की गई थी, लेकिन फिलहाल यह शायद ही उस उद्देश्य को पूरा करने में सक्षम हो. पूर्व वित्त मंत्री सुरजीत पातर और कई अन्य सांसदों के साथ-साथ अनेक कलाकारों, नौकरशाहों और लेखकों सहित कई प्रमुख हस्तियों की पीढ़ियां यहां से पढ़ कर निकली हैं, लेकिन आज यह विश्वविद्यालय बहुत बुरी अवस्था में है. 500 एकड़ जमीन में फैली पंजाबी यूनिवर्सिटी में 14,000 से अधिक छात्रों का दाखिला है, जिनमें से ज्यादातर छात्र समाज के हाशिए पर खड़े वंचित वर्गों से आते हैं. 2020-21 के शैक्षणिक सत्र के लिए विश्वविद्यालय ने अनुसूचित जातियों के 4,010 छात्रों का दाखिला लिया था, जिनमें से 2,371 महिलाएं थीं.
विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अरविंद ने कहा, “आज जब एक भूमिहीन मजदूर की बेटी यहां आती है तो उसे लगता है कि वह यहीं की है. पोस्ट ग्रेजुएशन की क्लास में जाते हुए उसे ऐसा नहीं लगता कि वह एक बाहरी है.” पीयूपी में करीब 565 शिक्षक पढ़ाते हैं. 6 फरवरी को यहां के शिक्षक संघ ने डॉ. अरविंद को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें अभी तक दिसंबर और जनवरी महीने का वेतन नहीं मिला है. इस पर अरविंद कहते हैं, "मुझे अब इस बात की चिंता है कि कर्मचारियों को इस महीने का वेतन कैसे दिया जाए. हालांकि यह मामला तो मुश्किलों के एक बड़े से पहाड़ का छोटा सा टुकड़ा भर है." पीयूपी पर एसबीआई (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) का 150 करोड़ रुपए या ओवरड्राफ्ट का कर्ज है. अरविंद ने बताया कि हर महीने उन्हें, “इस कर्ज पर ब्याज या दंड राशि के तौर पर लगभग डेढ़ करोड़ का भुगतान करना पड़ता है. इसके अलावा 100 करोड़ रुपए की लंबित देनदारियां हैं जिनमें स्थायी भुगतान, सेवानिवृत्ति लाभ, बकाया, स्वास्थ्य प्रतिपूर्ति और कंपनियों के भुगतान शामिल हैं." "विश्वविद्यालय पर छात्रों की पुरस्कार राशि भी बकाया हैं."
दुख भरी अरदास
57 वर्षीय राजेश शर्मा अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर हैं. उन्हें इस पुस्तकालय के भीतर गए हुए करीब 10 साल हो चुके हैं. उन्होंने बताया, "हमारी लाइब्रेरी कितनी भी बेहतरीन क्यों न हो, इसने खुद को उस स्तर तक अपडेट नहीं किया है जिस स्तर की एक यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी को होना चाहिए. पिछले साल लाइब्रेरी के अंग्रेजी वाले हिस्से के लिए सिर्फ 7,200 रुपए की धनराशि ही आवंटित की गई थी.” "कभी-कभी एक किताब की कीमत ही 10,000-15,000 रुपए होती है और अगर हमें एक साल में आधी किताब ही पढ़नी है, तो फिर ऐसे में तो मैं लाइब्रेरी नहीं ही जाना चाहूंगा." यह हालात तब है, जब लाइब्रेरी का नाम इतने बड़े विद्वान और साहित्य-सेवक भाई कान्ह सिंह नाभा के नाम पर है, जिन्होंने पंजाबी अकादमिक और शिक्षा जगत में कई पीढ़ियों को प्रेरित किया. हालांकि यह पुस्तकालय अब वो पुराना विश्वास नहीं जगाता. पुस्तकालय के अधिकारियों ने 2021-22 के सत्र में किताबें खरीदने के लिए 16 लाख रुपए का बजट प्रस्तावित किया था, लेकिन अंत में जाकर यह बजट सिर्फ पांच लाख रुपे ही तय हुआ.
जबकि हमारी सरकार का कहना है कि दो महीने के भीतर वह एक सांसद पर इससे ज्यादा खर्च कर देती है. पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला का दावा है कि वह किसी भाषा के नाम पर दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है. किसी भाषा के नाम पर दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय जेरूसलम का हिब्रू विश्वविद्यालय है और पंजाबी विश्वविद्यालय की इस तुलना को आधार बनाते हुए इस रिपोर्टर ने एचयूजे (हिब्रू यूनिवर्सिटी, जेरुसलम) के पुस्तकालय प्राधिकरण के अध्यक्ष, प्रोफेसर रूवेन अमिताई से संपर्क किया. उन्होंने कहा, "मैं कह सकता हूं कि हमारा बजट, अधिग्रहण और सब्सक्रिप्शन के मामले में असल मायनों में कई सालों से स्थिर है." हिब्रू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय प्राधिकरण पर उनके चार परिसरों के आठ पुस्तकालयों की जिम्मेदारी है, जिनमें से ब्लूमफील्ड लाइब्रेरी फॉर द ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंसेज अकेले ही साल भर में लगभग 2,500 वॉल्यूम खरीदती है. अमिताई कहते हैं, "जिनमें से लगभग एक चौथाई किताबें हिब्रू में हैं, 10 प्रतिशत अरबी में हैं, जबकि बाकी ज्यादातर अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी और स्पेनिश में हैं. हमारे पास दक्षिण एशियाई भाषाओं में भी पुस्तकों का एक संग्रह है- शास्त्रीय (मुख्य रूप से संस्कृत) और आधुनिक (मुख्य रूप से हिंदी, भारत की कई अन्य भाषाओं में भी).
इजराइल का राष्ट्रीय पुस्तकालय (एचयूजे परिसर में भी) उर्दू में भी किताबें खरीदता है.” अमिताई आगे बताते हैं, “वे विशेष परियोजनाओं- जैसे बड़े मानचित्र संग्रहों के डिजिटलीकरण, एचयूजे अधिकृत अभिलेखीय सामग्री के संगठन और संरक्षण आदि के लिए अतिरिक्त बजट भी प्राप्त करते हैं. इसके अलावा उपहारों के माध्यम से भी पुरानी किताबों के ऐतिहासिक संग्रहों का अधिग्रहण होता है (प्रोफेसरों द्वारा लगभग 1,000 वॉल्यूम्स हर साल उपहार के तौर पर पुस्तकालयों को दिए जाते हैं)" इसके विपरीत, बीकेएसएन लाइब्रेरी के पंजाबी विभाग के लिए पिछले साल का बजट सिर्फ 6,250 रुपए का था. साथ ही पीयूपी का मासिक वेतन बिल लगभग 29 करोड़ रुपए है. राज्य सरकार से प्राप्त होने वाला मासिक अनुदान 9.5 करोड़ रुपए या 114 करोड़ रुपए प्रति वर्ष है, जबकि विश्वविद्यालय का सालाना बजट ही 470 करोड़ रुपए है. अमिताई ने इस रिपोर्टर को बताया कि यह कोई रहस्य नहीं है कि इजराइल में अनुसंधान विश्वविद्यालयों का 70 प्रतिशत तक बजट सरकार से आता है और बचा हुआ करीब 30 प्रतिशत अलग-अलग स्रोतों से आता है. वहीं भारत में पीयूपी जैसे राजकीय शिक्षण संस्थानों को सरकार से अपने बजट का 30 प्रतिशत भी नहीं मिलता है. इस पर अरविंद कहते हैं, "राज्य ही विश्वविद्यालय को नियंत्रित करता है. वे (सरकार) कुलपति नियुक्त करते हैं और इसे 'हमारा' विश्वविद्यालय कहते हैं, और फिर इसे बजट का केवल एक चौथाई ग्रांट ही देते हैं. तो फिर इसे स्टेट यूनिवर्सिटी कहते ही क्यों हैं ?”
परेशानियों की जड़ें ढूंढने की कोशिश
अरविंद का मानना है कि मुसीबतों की शुरुआत 1990 के दशक में उस वक्त हुई, जब तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च शिक्षा पर खर्च में कटौती वाली नीतियों का मसौदा तैयार किया. उन्होंने आगे कहा, "देश भर के विश्वविद्यालय बुरी तरह इस दंश को झेलने के लिए मजबूर हो गए." उनका कहना है कि सरकारी अनुदानों में कटौती कर शिक्षण संस्थानों को अपने अस्तित्व की रक्षा खुद ही करने के लिए छोड़ दिया गया, और आमतौर पर इसका एक ही तरीका था. छात्रों से ली जाने वाली फीस को बढ़ाना. क्या दिल्ली के दिल में तैयार की गई नीतियां राज्यों के शिक्षण संस्थानों के फेफड़ों को प्रभावित कर सकती हैं ? इस पर एक अर्थशास्त्री, विश्वविद्यालय के पूर्व डीन और तीन दशकों से अधिक समय तक पीयूपी के वित्तीय मामलों की देखरेख करने वाले प्रोफेसर सुच्चा सिंह गिल का कहना है कि ऐसा मुमकिन है. उन्होंने कहा, "सीधे नहीं, लेकिन थोड़ा घुमा-फिराकर, पूरे देश को एक संदेश दिया गया कि हमें सरकारी हस्तक्षेप को कम से कम करना होगा.” उनके अनुसार केंद्र की इन नीतियों ने देश भर के विश्वविद्यालयों को नुकसान पहुंचाया है.
साल 1991-1992 में, विश्वविद्यालय के कुल खर्च में पंजाब सरकार का योगदान 88.63 प्रतिशत था, जो उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार अब तक का सबसे अधिक सरकारी योगदान है. उसी वर्ष छात्रों द्वारा भुगतान की गई फीस पीयूपी की कुल आय की 9.05 प्रतिशत थी- इस रिपोर्टर द्वारा प्राप्त किए आंकड़ों के अनुसार यह फीस द्वारा सबसे कम आय थी.अगले दो सालों के भीतर ही राज्य सरकार के अनुदान को घटाकर 72.52 प्रतिशत कर दिया गया. इस कटौती का सीधा असर छात्रों पर पड़ा. छात्रों की जेबों को खाली कर इस कमी को पूरा किया गया. इससे उन्हें विश्वविद्यालय की कुल आय का 17.08 प्रतिशत भुगतान करना पड़ा. सालों से यही प्रवृत्ति जारी है. सरकार का शिक्षा पर खर्च दिन ब दिन घटता गया और छात्रों का बढ़ता गया. 2014 में विश्वविद्यालय की कुल आय का 64.13 प्रतिशत हिस्सा छात्र शुल्क से आया था, जो कि इस विश्वविद्यालय के दर्ज होने वाले इतिहास में सबसे ज्यादा है. कौन ज्यादा भुगतान करता है, छात्र या सरकार ? पिछले शैक्षणिक सत्र में विश्वविद्यालय की आय का 49.54 प्रतिशत भुगतान करते हुए छात्र /छात्राएं सरकार से कहीं आगे हैं. गिल ने बताया कि हालांकि यह संकट पहली बार साल 1997-2002 में शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार के दौरान सामने आया था. उन्होंने आगे कहा, "उस समय सरकार और नौकरशाही ने फैसला लिया था कि हर साल विश्वविद्यालय को सरकार से मिलने वाले अनुदान में से 10 प्रतिशत की कटौती की जाएगी, ताकि 10 साल के भीतर विश्वविद्यालय आत्मनिर्भर हो सकें."