खबर आज भी, कल भी - आपका अपना न्यूज़ पोर्टल
www.media4citizen.com
बिहार में जीत की जोड़ी
विकल्प शर्मा : नयी दिल्ली : 2020 में विधानसभा चुनाव में बड़ी पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और उन्होने अकेले चुनाव में उतरने की बजाय गठबंधन के साथ काम करने को महत्व दिया है. बीते 15 सालों से हुकूमत करते आ रहे और लगातार चौथी जीत के लिए चुनाव
बिहार में जीत की जोड़ी
विकल्प शर्मा : नयी दिल्ली : 2020 में विधानसभा चुनाव में बड़ी पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और उन्होने अकेले चुनाव में उतरने की बजाय गठबंधन के साथ काम करने को महत्व दिया है. बीते 15 सालों से हुकूमत करते आ रहे और लगातार चौथी जीत के लिए चुनाव में उतरे नितीश ने तय किया कि भाजपा के साथ जेडीयू के लिए सबसे अच्छा होगा. भाजपा ने नितीश के खिलाफ सत्ता विरोधी भावनाओं के बढ़ते ज्वार को लेकर अपने कार्यकर्ताओं की चिंताओं को दरकिनार कर दिया और गठबंधन में ही चुनाव लड़ने का फैसला किया. भाजपा ने ऐसा इसलिए भी किया क्योंकि उसे लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जोरदार प्रदर्शन के बावजूद वह राज्य में अब भी अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकती. यहीं नहीं बिहार में जीत इसलिए भी अहम है क्योंकि चुनाव का नतीजा कोविड संकट से मोदी सरकार के निपटने पर एक किस्म का जनमत संग्रह होगा. इन नतीजों का असर पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु सहित उन राज्यों में भी भाजपा की संभावनाओं पर पड़ेगा जहां 2021 में चुनाव होने वाले है. इस चुनाव का नतीजा महागठबंधन के धटक दलों के लिए भी कम अहम नहीं होगा. जहां तक राजद की बात है लालू प्रसाद यादव फिलहाल जेल में सजा काट रहे हैं. लिहाजा पार्टी को नए सिरे से एकजुट करके जूझारू ताकत बनाने और राज्य की राजनीति मे प्रासंगिकता फिर हासिल करने की सारी जिम्मेदारी लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव पर होगी. नितीश की अगुवाई वाले एनडीए के लिए पटकथा साफ है और रणनीति भी. एनडीए नितीश के 15 साल बनाम राजद के 15 साल पर जोर दे रहा है और उम्मीद कर रहा है. चूंकि नितीश की उपलब्धियों ने 1990 से 2005 के बीच लालू राब़डी सरकार के कामकाज को काफी बौना बना दिया है. इसलिए जीत की ट्राफी उसी के हाथ लगेगी. हालांकि नवंबर 2005 में भाजपा जेडीयू गठबंधन के पहली बार सत्ता में आने के बाद से ही बीते 15 सालो से नितीश कुमार का जेडीयू सत्ता में है. फिर भी मुख्यमंत्री न केवल सरकार के कामों की बात कर रहे हैं बल्कि अगर ज्यादा नही तो बराबर जोर इस बात पर है कि राजद ने क्या नहीं किया था. सत्ता विरोधी भावनाओं और किसी भी संभावित मोहभंग को बेअसर करने के लिए एनडीए ऐसी चतुर रणनीति को अंजाम दे रहा है. मुख्यमंत्री के लिए चुनाव अभियान में विकास के मोर्चे पर अपनी उपलब्धियों पर जोर देना वाजिब है लेकिन बेरोजगारी नितीश के लिए चुनौती बनती जा रही है. खासकर तब जब कोविड के साये में एक बात नितीश के खिलाफ जा सकती है. उन्होने अपने एक बयान में बिहार को मजदूर पैदा करने की कारखाना बता दिया था. मजदूर और प्रवासी इसे अपना अपमान मान रहे है. मुख्यमंत्री के तौर पर बीस महीने छोड़ दे तो तेजस्वी के पास न तो कोई प्रशासनिक अनुभव है. और तो और 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने राजद के अब तक के सबसे बदतर प्रदर्शन की अगुवाई की थी. तब राज्य की पूरी की पूरी 40 सीटों पर उनकी पार्टी का सफाया हो गया था. मगर लालू के छोटे बेटे हाल मे कुछ भीड़ खींचते दिखाई दे रहे हैं. सामाजिक देरी के नियम कायदों का पालन कर रही नितीश की जनसभाओं के मुकाबले तेजस्वी की चुनावी रैलियां कुछ ज्यादा भीड़ खींच रहीं हैं. शुरुआत में हालांकि उन्होंने अपने माता-पिता की तरफदारी की और उनकी 15 साल की हुकुमत की भूलों के लिए माफी भी मांगी थी लेकिन जल्द ही तेजस्वी को इस कवायद की निरर्थकता का अहसास हुआ. इसके बाद वो 'नयी सोच, नया बिहार' अभियान लकर सामने आए. अब पोस्टरों पर उनका चेहरा था, लालू- राबड़ी का नहीं, जो कुछ पिछले हफ्ते सोचा भी नहीं जा सकता था. एनडीए ने भी जातिगत कार्ड खेला है. नितीश के जेडीयू ने 40 ओबीसी और 27 ईवीसी उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. उम्मीदवारों का चयन देखकर लगता है जहां अपने ईवीसी वोटों को रखने की कोशिश हुई है. वहीं राजद के एम वाई किले में भी सेंधमारी के प्रयास हुए हैं. इसलिए जेडीयू के 115 उम्मीदवारों में से 25 फीसद से अधिक या 115 में से 30 उम्मीदवार इन दो सामाजिक समूहों से आते हैं लेकिन ईवीसी वोट नितीश का मुख्य आधार बना हुआ है. यही वजह है कि वे अपनी जनसभाओं में लगातार दोहरा रहे हैं कि कौन पूछता था पिछड़ो को. उन्होने कहा कि यह उनकी सरकार थी जिसने पंचायती राज संसथाओं में ईवीसी के लिए 20 फीसद आरक्षण, महिलाओं के लिए 50 फीसद और अनूसूचित जाति के लिए 16 फीसद आरक्षण दिया और बिहार में इन वर्गो के सामाजिक राजनैतिक सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त किया. चुनाव परिणाम का निर्धारण करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि दोनों राष्ट्रीय दल राज्य के दो क्षेत्रीय दलों की ताकत में कितना इजाफा करने में सक्षम होंगे. यह वो जगह है जहां जेडीयू फायदे में दिखता है. इन सालों में भाजपा लगातार मजबूत हुई है जबकि कांग्रेस लगातार फिसली है. उत्तर प्रदेश के विपरीत भगवा पार्टी ने धार्मिक ध्रुवीकरण के बूते नहीं बल्कि विकास के एंजेडे के दम पर खुद को मजबूत किया है. शुरुआत में इसने नितीश के कंधे पर सवारी करके अपनी छवि चमकायी फिर सोशल इंजिनियरिंग के माध्यम से और अंतत इसे नरेन्द मोदी के व्यक्तित्व का भरपूर लाभ मिला. भाजपा, जेडीयू और चिराग पासवान की लोजपा ने 2019 को लोकसभा चुनाव एनडीए के बैनर तले लड़ा और राज्य की 40 में से 39 सीटे जीती. इस साल की शुरुआत में चिराग ने नितीश और उनकी सरकार का विरोध शुरू किया और आखिर बिहार में एनडीए से अलग हो गए. हालांकि भाजपा ने चुनाव में जेडीयू के साथ जाना पंसद किया लेकिन उसने चिराग की और से नितीश पर किए जा रहे हमले से बचाव के लिए कुछ नहीं किया. लोजपा ने कहा है कि बिहार में वह 143 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. ऐसा लगता हैं कि उससे कम सीटों पर चुनाव लड़ सकते थे लेकिन कम से कम चिराग के उम्मीदवार पांच सीटों पर भाजपा को भी चुनौती दे सकते हैं. राजद के पास भी 20 फीसद से अधिक मतदाताओं का मजबूत जनाधार है. अगर चुनाव त्रिकोणी मुकाबले में बदल जाता है तो भी वे जीत भले ही न सके लेकिन फिर से बिहार की प्रसांगगिक ताकत के रूप में उभर आयेंगे. यदि मोदी ने अपने प्रयासों से ओवेसी, उपेन्द्र कुषवाहा और मायावती के गठबंधन को हवा न दी होती तो बिहार में नितीश चुनाव जीतने से पीछे रह सकते थे लेकिन अब यह बिहार में जीत की जौडी बन चुकी है.
Published:
26-10-2020
|
www.media4citizen.com |
खबर आज भी, कल भी - आपका अपना न्यूज़ पोर्टल
|