कांग्रेस ने आप से लिया हरियाणा का बदला
दिल्ली दंगल के नतीजों में मैं भाजपा की जीत से ज्यादा आप की हार देखता हूं। झूठ और नाकारापन की राजनीति का अवसान। भाजपा को इस जीत का श्रेय मोदी से ज्यादा केजरीवाल को देना चाहिए। ज़नाब केजरीवाल शायद यह जाने ही नहीं, या भूल गए कि काठ कि हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इसलिए अपनी कथनी के उलट करनी करते हुए भी दिल्लीवालों के दिल में स्थायी रूप से बसे होने का भ्रम पाले रहे। भूल गए कि दल का नाम आम आदमी पार्टी रखकर आम आदमी का हमदर्द होने का झांसा चिरंजीवी नहीं हो सकता। आम आदमी का विश्वास खंडित होते ही आपकी छवि भी खंड खंड हो जाती है। केजरीवाल को पहचान मिली थी अन्ना के लोकपाल आंदोलन से। फिर अन्ना और उनके संकल्प को अपनी महत्वाकांक्षा के कब्रिस्तान में दफनाकर निकल पड़े सत्तासुख की राह पर। पार्टी बनाई। एक-एक कर उन सबको निपटाया जिन्होंने पार्टी की नींव में पत्थर जोड़े थे। या उनकी तानाशाही पर विरोध दर्ज़ कराते थे। फिर चंद चेलों के साथ सत्तासुख के लिए उसी दल से हाथ मिलाया, जिसे भ्रष्टाचार का प्रतीक बताकर राजनीति की सीढ़ियां चढ़ी। जिसकी राजनीतिक कुसंस्कृति से दिल्ली को मुक्त करने का संकल्प प्रस्तुत कर वोट मांगे। इस सत्ता के लिए बच्चों की कसम तक का मान नहीं रखा।
चलिए, यहां तक तो दिल्ली की उस जनता ने नज़रअंदाज़ किया जिसने किसी चमत्कार की उम्मीद में उन्हें राजकाज सौंपा था। लेकिन फिर अचानक आम आदमी से शीशमहल की राजाई। राजनीति के माथे से भ्रष्टाचार का कलंक मिटाने निकले आम आदमी का भ्रष्टाचार के आरोप में तिहाड़ प्रवास। अदालत द्वारा छह माह तक जमानत या कोई अन्य रियायत नहीं दिए जाने के बावजूद खुद को राजनीतिक धरा पर सबसे ईमानदार नेता का सर्टिफिकेट। सुशासन की गारंटी पर अमल के उलट पियक्कड़ी को परवान। स्वच्छ हवा-पानी के वादों पर कभी केंद्र, कभी पड़ोसी सूबे पर ठीकरा। भ्रष्टाचार के पोषकों को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिए बस दो दिन की खातिर ईडी सीबीआई की कमान मांगना और स्वयं पर कार्रवाई के बाद उसी ईडी-सीबीआई की विश्वसनीयता पर सवाल। कट्टर ईमानदार की छवि और जनता से किए वादों के उलट क्या-क्या नहीं किया केजरीवाल ने? आखिर बारह बरस लगे दिल्ली की आम जनता को सच पर चढ़ा यह झूठ का मुलम्मा उतारने में।
तिहाड़ यात्रा के साथ ही केजरीवाल की वह छवि पूरी तरह खंडित हो गई थी जो उन्होंने अन्ना आंदोलन के समय बनाई थी। आम आदमी के हमदर्द आम आदमी वाली। राजनीति में स्वच्छता और शुचिता के नए युग की उम्मीद कट्टर ईमानदार वाली। चुनाव में हार और उनके राजनीतिक अवसान की पटकथा भी तभी लिख गई थी। दिल्ली ने मन बदल लिया था। पर मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली अपनी नई राजनीति और चुनावी रणनीति के भरोसे वह निश्चिन्त रहे। यह भी भूल गए कि इस मुफ्त की रेवड़ी ने जनसेवाओं का भट्टा बैठा रखा है और इसका खमियाज़ा जनता भुगत रही है। उधर, भाजपा तो अपने आक्रामक चुनाव प्रचार से केजरीवाल को बेनक़ाब करने में जुटी ही थी, ऐन चुनाव से पहले उसे कांग्रेस का भी साथ मिल गया। दोनों ने मुहिम अलग-अलग चलाई जरूर, लेकिन निशाना इकट्ठे साधा। लिहाज़ा आखिरी दिन तक केजरीवाल और उनकी पार्टी बचाव की मुद्रा में दिखी। इस मुद्रा ने जनता के टूटते विश्वास को और तोड़ा। अंततः जनता ने बता दिया कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती। वादा करो तो निभाओ वरना अगली बार जाओ।
- अनिल भास्कर