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भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा : वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि

भारद्वाज मुनि प्रयाग में बसने वाले, दस हजार बटुकों के गुरुकुल के कुलपति  वर्त्तमान वैवस्वत के गोत्रकर्त्ता ऋषि रहे हैं. सभी पंचगौड़ और पंचद्रविण ब्राह्मणों में भारद्वाज गोत्र सामान्य रहा है. इससे यह विदित होता है कि प्रयागराज स्थित भरद्वाज का गुरुकुल न केवल विस्तृत बरन विख्यात भी रहा होगा जहां दूर दूर से अध्ययन के लिए ब्रह्मचारी आते रहे. प्राचीन भारत में यह एक परंपरा रही है कि जो बटुक जिस ऋषि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करता था उसका गोत्र वह ऋषि ही होते थे.

वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि
वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि

भारद्वाज मुनि प्रयाग में बसने वाले, दस हजार बटुकों के गुरुकुल के कुलपति  वर्त्तमान वैवस्वत के गोत्रकर्त्ता ऋषि रहे हैं. सभी पंचगौड़ और पंचद्रविण ब्राह्मणों में भारद्वाज गोत्र सामान्य रहा है. इससे यह विदित होता है कि प्रयागराज स्थित भरद्वाज का गुरुकुल न केवल विस्तृत बरन विख्यात भी रहा होगा जहां दूर दूर से अध्ययन के लिए ब्रह्मचारी आते रहे. प्राचीन भारत में यह एक परंपरा रही है कि जो बटुक जिस ऋषि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करता था उसका गोत्र वह ऋषि ही होते थे. तीर्थराज प्रयाग के सात नायकों में भारद्वाज का उल्लेख होता है–त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजम च वासुकिम, वन्दे अक्षयवट शेषं प्रयागम तीर्थनायकं.

विद्वानों के मत से भारद्वाज और भरद्वाज दोनों एक ही ऋषि परंपरा के ऋषि रहे हैं . शास्त्रों में अनेक भारद्वाज का उल्लेख मिलता है. प्रथम भारद्वाज ऋगवेद के छठे मंडल के ऋषि थे जो काशी के दिवोदास के पुरोहित थे—सप्रथो भारद्वाजाय सप्रथःऋग्वेद 6 /15/3, अर्थात यज्ञदेव मनुष्यों में भारद्वाज को धन एवं गृह दो. अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रंथों में भारद्वाज को वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि बताया गया है.

वाल्मीकि रामायण में प्रयाग स्थित गुरुकुल के कुलपति भारद्वाज को वाल्मीकि का शिष्य बताया गया है. रामचरित मानस के एक प्रकरण में भारद्वाज मुनि ने याज्ञवल्क को अपना गुरु सम्बोधित करते हुये एक संशय–राम कौन प्रभु पूछहिं तोही–के निवारण का अनुरोध करते हैं, हरिवंशपुराण के अनुसार दुष्यंत के पुत्र भरत जिनके नाम पर भारवर्ष का नामकरण हुआ. उन्होंने पुत्र  प्राप्ति के लिए अनुष्ठान किया मरुतों ने इन्हे भारद्वाज को पुत्रवत दे दिया, पुराणों की यह बहुत रोचक कथा है वृहस्पति के पुत्र भारद्वाज का स्थान वैशाली है. वैशाली में मरुतों का राज्य था. वृहस्पति मरुतों के पुरोहित थे. भारद्वाज की माता का नाम ममता था. भारद्वाज के माता पिता में विवाद हुआ कि भारद्वाज का लालन पालन कौन करे. अंततः इनको मरुत नरेश ने पाला और इन्हें राजा  भरत को दे दिया. भरत के पुत्र के रूप में भारद्वाज क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करते हुए राज्य भी चलाया, दो वंशों के पिताओं का पुत्र होने के नाते भारद्वाज को द्वमुश्यायण भी कहा जाता है. कालांतर में राज्य पाट छोड़कर भारद्वाज ऋषि हो गए. कौरवों पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य पांचाल के भारद्वाज के पुत्र थे. परन्तु यह भारद्वाज त्रेता युग के भारद्वाज से भिन्न भारद्वाज गुरुकुल की परंपरा के कुलपति हो सकते हैं.

भारद्वाज के सम्बन्ध में इतिहासकार पार्जिटर का मत है कि युवावस्था में भारद्वाज काशी के राजा दिवोदास के पुरोहित रहे जो प्रौढ़ावस्था में प्रयाग में गुरुकुल स्थापित किया और वृद्धावस्था में अंगिरस वंशी के रूप में पश्चिम की और बढ़ गए. भारद्वाज गोत्र की अतिव्याप्ति का यही कारण है. राम ने वनवास के समय त्रिवेणी में स्नान करने के उपरांत भारद्वाज के आश्रम में आकर ऋषिवर का आशीर्वाद प्राप्त किया था और इन्ही के निर्देश पर चित्रकूटवास किया था.

ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार भारद्वाज ने ही धन्वन्तरी को आयुर्वेद सिखलाया था. भारद्वाज की ख्याति एक धर्मसूत्रकार के रूप में भी जिन्होंने स्रोत सूत्र और धर्मसूत्र की रचना की. कौटिल्य अर्थशास्त्र में भारद्वाज का उल्लेख एक अर्थशास्त्रकार के रूप में भी आता है.

भारद्वाज वंश का विस्तार भारत के विभिन्न प्रांतों में ही नहीं हुआ वरन सन ७३६ ई में दक्षिण के कांचीपुरम का एक भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण जापान पहुँच गया जहाँ उन्होंने संस्कृत के साथ साथ भारतीय धर्म दर्शन का प्रचार प्रसार किया तथा जापानी वर्णमाला में बारहखड़ी का सूत्रपात भी किया. यह व्यक्ति जापान में बारामों के नाम से विख्यात हुआ जिसने नारा के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण भी कराया.

 


Published: 24-01-2022

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