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कौव्वों की काँव काँव ! : मुंडेर पर अब कम सुनाई देती है

कौव्वे अब घर की मुंडेरों पर काँव काँव करते कम सुनाई देते हैं. दिखाई भी कम देते हैं. यही नही लोक कथाओं से भी धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं. नानी ,दादी की कहानियों में कौव्वों को दूध भात खिलाने की कहानियों की गूंज भी कम पड़ती जा रही है. यह तब जबकि कौव्वे जन जीवन का हिस्सा रहे हैं. पहले घर की मुंडेर पर कौवों के बैठने से सुबह शुरू होती थी.

मुंडेर पर अब कम सुनाई देती है
मुंडेर पर अब कम सुनाई देती है

कौव्वे अब घर की मुंडेरों पर काँव काँव करते कम सुनाई देते हैं. दिखाई भी कम देते हैं. यही नही लोक कथाओं से भी धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं. नानी ,दादी की कहानियों में कौव्वों को दूध भात खिलाने की कहानियों की गूंज भी कम पड़ती जा रही है. यह तब जबकि कौव्वे जन जीवन का हिस्सा रहे हैं. पहले घर की मुंडेर पर कौवों के बैठने से सुबह शुरू होती थी. कौवों का काँव काँव मशहूर था. कहावत थी -क्या काँव काँव कर रहे हो ? कौवे को समर्पित एक फ़िल्मी गाना भी बड़ा मशहूर हुआ करता था-'मेरी अटरिया पे कागा बोले, कोई आ रहा है.' बचपन में अक्सर सुबह कौवे के मुंडेर पर आ बैठने पर कहा करते,' कौआ, कौआ कोई आवे तो उड़ जईओ अर्थात यह किसी मेहमान के आने का सूचक था.

कौव्वे आबादी पसन्द पक्षी है. जंगलों से ज्यादा आबादी में पाया जाता है. एक विचित्र बात यह है कि जब गांवों आम शहरों में कौव्वों की जमात मुश्किल से दिखाई पड़ती है वहीं देश की राजधानी कौव्वों से पटी पड़ी है. दिल्ली के कौव्वे भी शहराती हो गए हैं. बहु मंजिली भवनों की बालकनियों में सुबह होते ही कौव्वों की बैठकी शुरू हो जाती है.

हांलाकि यह भी सही है कि बिगड़ रहे पर्यावरण की मार कौओं पर भी पड़ी रही है. स्थिति यह है कि श्रद्धा में अनुष्ठान पूरा करने के लिए कौए तलाशने से भी नहीं मिल रहे हैं. कर्ण कर्कश आवाज में कांव-कांव करने वाला काले रंग का पक्षी कौआ बहुत उद्दंड, धूर्त तथा चालाक पक्षी माना जाता है. कौवे के अंदर इतनी विविधता पाई जाती है कि इस पर एक'कागशास्त्र' की भी रचना की गई. भारत में कई स्थानों पर काला कौआ अब दिखाई नहीं देता. कौवे के विकल्प के रूप में लोग बंदर, गाय और अन्य पक्षियों को भोजन का अंश देकर अनुष्ठान पूरा कर रहे हैं. कौवे की कई प्रजातियां हैं, जो अब धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं.

कौआ एक काले रंग का पक्षी है. राजस्थानी भाषा में इसे कागला तथा मारवाड़ी में हाडा कहा जाता है. कौए की छह प्रजातियां भारत में मिलती हैं. हमारे देश में छोटा घरेलू कौआ, जंगली और काला कौआ, ये तीन कौए अधिकतर दिखाई पड़ते हैं, किंतु विदेशों में इनकी और अनेक जातियां पाई जाती हैं. यूरोप में कैरियन क्रो (Carrion Crow), तथा हुडेड क्रो (Corvus Cornix) और अमरीका में अमरीकन क्रो (Corvus Branchyrhynchos), तथा फिश क्रो (Corvus Ossifragus), उसी तरह प्रसिद्ध हैं, जिस प्रकार हमारे यहां के काले और जंगली कौवे. जबकि घरेलू कौआ गले में एक भूरी पट्टी लिए हुए होता है. शायद इसी को देखकर तुलसीदास ने काग भुशुंडि नाम के अमर मानस पात्र की संकल्पना की हो, जिसके गले में कंठी माला सी पडी है.

जानकारों का मानना है कौओं का दिमाग लगभग चिम्पैन्जी और मनुष्य की तरह ही काम करता है. कौवे इतने चतुर-चालाक होते हैं कि आदमी का चेहरा देखकर ही जान लेते हैं कि कौन खुराफाती है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, कौवे खुद के लिए खतरा पैदा करने वाले चेहरे को पांच साल तक याद रख सकते हैं।
गावों में कौवे अपने लिए भोजन को छप्परों में छिपाकर रखते थे और वे अपने सुरक्षित रखे गए भोजन के बारे में भी याद रखते हैं, भूख लगने पर कौवे अपने इस भोजन को खा लेते हैं. कौवे इतने शातिर होते हैं कि कोई अगर इन्हे मारने का प्रयास करे तो ये पलक झपकते ही फुर्र हो जाते हैं. किसानों के शत्रु कहे जाने वाले भूरे गले वाले कौवे फसलें बर्बाद करने में माहिर होते हैं. योग वशिष्ठ में काक भुसुंडि की चर्चा है. रामायण में भी सीता के पांव पर कौवे के चोंच मारने का वर्णन है. भारत में कांव-कांव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है. ऐसा कहा जाता है कौवे अपनी कर्कश आवाज से भविष्यवाणी कर देते हैं साथ ही अनहोनी की भी चेतावनी दे देते हैं.

हमारे देश पितर पक्षों में पूर्वजों की याद में हर साल पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है. बुजुर्गों का कहना है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौवे का जन्म लेता है. कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है. इसलिए श्रद्धा पूर्वक पितर पक्षों में कौवों को खाना खिलाये जाने की मान्यता है. कुछ वर्ष पहले गावों से लेकर शहर तक कौओं के झुण्ड के झुण्ड दिखाई देते थे, लेकिन अब ये धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं. विशेषज्ञों का मानना है कौवों की प्रजाति प्रदूषण के कारण कौओं की संख्या तेजी से घटी रही है. वातावरण जैसे-जैसे प्रदूषण बढ़ रहा है वैसे ही गौरैया और बया की तरह इनकी प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं. वर्तमान समय में कौआ भी पक्षियों की संकटग्रस्त प्रजातियों में सम्मिलित हो गया है इसमें काला कौआ तो एकदम गायब हो रहा है.

राजस्थान में एक बहुप्रचलित कहावत है-" मलके माय हाडा काला " अर्थात दुष्ट व्यक्ति हर जगह मिलते हैँ. अपेक्षाकृत छोटा कबूतर आकार के जैकडो (यूरेशियन और डौरीयन) से होलारक्टिक क्षेत्र के आम रैवेन और इथियोपिया के हाइलैंड्स के मोटी-बिल वाले रेवेन, दक्षिण अमेरिका को छोड़कर सभी समशीतोष्ण महाद्वीपों पर इस के 45 या इतने सदस्य हैं और कई द्वीपों कौवा जीन परिवार कोरिडीडे में प्रजातियों में से एक तिहाई पैदा करता है. सदस्यों को एशिया में कॉरिड स्टॉक से विकसित किया गया है, जो ऑस्ट्रेलिया में विकसित हुआ था. कौवा के एक समूह के लिए सामूहिक नाम एक 'झुंड' या 'हत्या' है. जीनस नाम "रेवेन" के लिए लैटिन है.

वैज्ञानिक वर्गीकरण किंगडम:एनिमिलिया संघ:कॉर्डेटा. बात यहाँ से शुरू हई यानि रावेन मिथ पर कौए पर संपन्न चर्चा से.... यह एक कनाडियन विदुषी और मेरी नयी नयी बनी फेसबुक मित्र का ब्लॉग है ...उन्हें मिथकों में जीवन्तता दिखती है. इसी ब्लॉग पोस्ट पर काक मिथक की सर्व व्यापकता को लेकर विस्तृत जानकारी के साथ ही टिप्पणियों में कौए के बारे में चाणक्य की एक उक्ति का उल्लेख भी हुआ है ....चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य को तमाम पशु पक्षियों से कुछ न कुछ सीखना चाहिए और कौए से यह सीखना चाहिए कि यौन संसर्ग सबकी नजरों से अलग थलग बिलकुल एकांत में करना चाहिए ...और यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि कौए की प्रणय लीलाएं और संसर्ग आम नज़रों से ओझल रहती हैं ....यह एक विचित्र पक्षी व्यवहार है. खुद ग्राम्य परिवेश का होने के बावजूद मैंने आज तक कौए की इस निजी जिन्दगी का अवलोकन नहीं किया जबकि पक्षी व्यवहार में मेरी रूचि भी रही है ...कहीं इधर उधर घूमते हुए भी मेरी नज़रे बरबस ही आस पास के पेड़ों और पक्षी बसाहटों की ओर उठती रहती हैं -मुझे अक्सर लोगों की यह टोका टोकी भी सुनने को मिलती है कि मैं चलते समय नीचे क्यों नहीं देख कर चलता. गरज यह कि अपने परिवेश के पक्षी और पक्षी व्यवहार पर पैनी नज़र के बावजूद भी मैंने आज तक कौए के नितांत निजी व्यवहार को देखने में सफलता नहीं पायी है. अंतर्जाल पर भी कुछ चित्र और वीडियो हैं मगर मैथुन का दृश्य नहीं है ....एक तो कतई काक मैथुन नहीं लगता बल्कि काक युद्ध सरीखा है. लोक मान्यता यह भी है कि ऐसा देखना मृत्यु सूचक है ..एक बड़ा अपशकुन है, दुर्भाग्य है .

पक्षी जानकारों का कहना है कि कौए बाकी पक्षियों से बहुत बुद्धिमान हैं ..एक प्यासे कौए का घड़े से पानी निकालने के लिए उसमें कंकड़ डालते रहने की काक कथा केवल कपोल कल्पित ही नहीं लगती -क्योंकि काक व्यवहार पर नए अनुसन्धान कई ऐसे दृष्टान्तों को सामने रखते हैं जिसमें कौए ने औजारों का प्रयोग किया और उन्हें मानों यह युक्ति कि " बिना उल्टी उंगली घी नहीं निकलता " भी मालूम है और वे जरुरत के मुताबिक़ औजारों का आकार प्रकार चोंच और पैरों की मदद से बदल देते हैं -तारों को मोड़ कर, गोला बनाकर खाने का समान खींच लेते हैं ....वे कुछ गिनतियाँ भी कर लेते हैं ....जैसे अमुक घर में कितने लोग रहते हैं ये वो जान जाते हैं और सभी के बाहर जाने के बाद वहां आ धमकते हैं..पक्के चोर भी होते हैं ..घर से चमकीली चीजें उठा उठा कर ये अपने घोसले को अलंकृत करते रहते हैं ...मुम्बई में एक बार एक कौए के घोसले से कई सुनहली चेन वाली घड़ियाँ बरामद हुयी थीं ....

लोक कथाओं के रानी के नौ लखे हार को कौए ने चुराया था -यह भी कथा बिल्कुल निर्मूल नहीं लगती ....मतलब यह कि काक महाशय बड़े श्याना किस्म के प्राणी हैं -अपने आस पास कोई काक दम्पति देखें तो भले ही आप उनसे बेखबर रह जायं वे आपको लेकर पूरा बाखबर और खबरदार रहते हैं ... और तो और पक्षी विज्ञानी बताते हैं कि इनका एकनिष्ठ दाम्पत्य होता है मतलब जीवन भर एक ही जोड़ा रहता है इनका.

कौए के व्यवहार के और भी बड़े रोचक पहलू हैं ..राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत के पक्षी " (प्रकाशन विभाग ) में लिखा है कि भारत में चित्रकूट और कोडैकैनाल (दक्षिण भारत ) में कौए नहीं पाए जाते ..मुझे यह बात पता नहीं थी ..नहीं तो चित्रकूट तो कई बार जाना हुआ है ..ध्यान से देखते !....अब चित्रकूट में वे क्यों नहीं मिलते इसकी एक मिथक -कथा है . वनवास के समय सीता की सुन्दरता से व्यामोहित इंद्र के बेटे जयंत ने कौए का रूप धर उनके वक्ष स्थल पर चोंच मारी थी. कुपित राम ने उसे शापित किया था -लोग आज भी कहते हैं इसी कारण कौए चित्रकूट में नहीं मिलते --मगर इसका वैज्ञानिक कारण क्या हो सकता है समझ में नहीं आता क्योंकि चित्रकूट तो एक वनाच्छादित क्षेत्र रहा है. 
बस्ती और जन जीवन प्रिय होने के बावजूद किसी को और पक्षियों की तरह कौव्वों को पालते नहीं देखा. बच्चन जी अपने दिल्ली स्थित निवास पर पूजा करने के बाद बालकनी में खड़े होकर शंख फूंकते थे और मिनटों में रन बिरंगी चिड़ियों की छटा देखते ही बनती थी. कौवों को वे अलग से परोसते थे.


Published: 25-05-2021

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