शास्त्री आयुर्वेदिक अस्पताल के संचालक साहित्य ज्योतिषाचार्य डा. महेन्द्र शर्मा से धर्म पर चर्चा करते हुए डा. शर्मा ने बताया कि धर्म परिवर्तन पर गहन चिंतन हो रहा था कि धर्मांतरण कैसे रुक सकता है। सनातन धर्म से च्युत होना जितना आसान है उतना ही कठिन है सनातन धर्म में वापिसी होना जो कदापि सम्भव ही नहीं है ... कोई भी कितना ही राजनैतिक शोर क्यों न मचा ले कोई भी बिना अगले जन्म लिए सनातन धर्म में प्रवेश नहीं पा सकता .... वर्ण और गोत्र तो मातापिता से प्राप्त होते हैं ... हमारे सनातन धर्म में विवाह संस्कार में पाणिग्रहण होता है तो तब उसमें वर और वधु के पिता, पितामह और परपितामह के नाम के साथ उनका वर्ण, गोत्र, प्रवर और जाति के नाम का उच्चारण किया जाता है तभी पाणिग्रहण क्रिया सम्पन्न होती हैं, इनमें आप यह मानकर चलें कि इसमें लगभग गत 100 वर्षों का हमारा पारिवारिक इतिहास आ जाता है ... कि हम सनातनी हैं। धर्म से च्युत हुए लोगों को जिनको हम मुख्य धारा से जोड़ना कहते हैं ... वह कहां से लाएंगे अपना पारिवारिक इतिहास,धर्म, वर्ण, गोत्र, जाति और प्रवर ... इन गुणों के अभाव में जनमानस इन्हें कभी भी स्वीकार नहीं करेगा ... जब इनके बालकों के विवाहों में यह समस्यायें आयेगी तो यह सब वापिस भाग जाएंगे जहां से यह आए थे, इसका 10/20 वर्षों का क्षणिक राजनैतिक लाभ उनको अवश्य मिलने की संभावना रहेगी जब तक यह इनके साथ रहेंगे।
धर्म एक गूढ़ प्रश्न है जिस का उत्तर हम सभी अपने विवेक के अनुसार देते हैं। वास्तव में यदि हम धर्म को शब्दों की अपेक्षा क्रियान्वयन के माध्यम से समझ सकते हैं लेकिन उस क्रियान्वन को शायद लिख नहीं सकते।
भूखे व्यक्ति के लिए सब से बड़ा धर्म तो दो जून की रोटी है तो मुसीबत के मारे व्यक्ति को सहायता पहुंचाना, बंधक को मुक्त करवाना, गरीब की बेटी का कन्यादान कराना और मेधावी छात्राओं को शिक्षा दिलवाना और निराश्रय को आश्रय प्रदान करना आदि आदि अनेक प्रकार के कृत्य हैं। धर्म पर दिए गए व्याख्यानों में धर्म के दस गुणों की व्याख्या की गई है उनको अपने जीवन में उतारना ही धर्म है।
साधारण भाषा में हम सभी के प्रेम और सद्भाव का व्यवहार करें। श्री गीता जी के 17 वें अध्याय में वर्ण धर्म की व्याख्या है तो श्री भागवतपुराण के प्रथम स्कन्द में वेद व्यास जी ने सभी के लिए क्या क्या धर्म अर्थात दायित्व हैं, उन का वर्णन किया गया है जिसमें संन्यासियों से लेकर राजा गृहस्थ और यहां तक कि विद्यार्थियों से लेकर दैत्यों के कार्यों के संपादन की व्याख्या की गई है। सभी को अपने अपने पर अडिग रहने की आज्ञा दी है, आप विषम से विषमतम परिस्थिति में धर्म को नहीं छोड़ें। इसी प्रकार से गौतम ऋषि, गोस्वामी तुलसीदास और संत कबीर जी ने भी धर्म पर चर्चा की है कि "परहित सरस धर्म नहीं भाई" कहा है जिसको परम चरमोत्कर्ष पर संत एकनाथ जी ने पहुंचाया जब वह भगवान शिव पर जल चढ़ाने के लिए जब श्री रामेश्वर को जा रहे थे तो उन्होंने वह जल प्यास से व्याकुल मरणासन्न गधे को पिला कर जीवनदान दिया था और ईश्वर को प्रकट कर लिया था।
जब तक हमारे हृदय में मानवता की सेवा के भाव नहीं होंगे तो समस्त कर्मकाण्ड और यज्ञोनुष्ठान व्यर्थ हो जाएंगे। धर्म स्थानों का निर्माण अवश्य होना चाहिए लेकिन जब इन मन्दिरों में प्रतिष्ठित भगवान के स्वरूपों के गुणों और आचरण को हम अपने जीवन में नहीं उतारेंगे तब तक हम सनातन धर्म का मर्म नहीं समझ पाएंगे। सत्संग में जाने का अर्थ तभी सार्थक होगा जब हम कथानक के चरित्रों पर विचार करेंगे।
मैं इस बात को गारन्टी के साथ कह सकता हूं कि यदि हम गरीबों की भूख मिटायें, गरीब और मेधावी विद्यार्थियों को शिक्षा क्षेत्र में सहायता करें, चिकित्सा, व्यापार और रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाएंगे तो वह लोग किसी भी सम्प्रदाय द्वारा दिए जाने वाले धन की ओर आकर्षित नहीं होंगे , क्योंकि आज धर्म परिवर्तन जो भी हो रहा है उसमें मुख्य कारण यही हैं। गरीबों को विदेशों में रोज़गार उपलब्ध करवाने का लालच दिया जाता है।
बीमारों की तिमारदारी के लिए भी मजहबी लोग इन्हें निःशुल्क दवा उपलब्ध करवा देते हैं, इसके विपरीत हम लोग अपने मंदिरों में केवल नाचने, गाने और लंगर बांटने और खाने को धर्म समझ कर गलतियां करते जा रहे हैं। देश में धर्मांतरण रोकने के लिए शिक्षा भी निःशुल्क होनी चाहिए लेकिन सभी निजी उच्च शिक्षण संस्थान सभी राजनेताओं के हैं और मनमाने ढंग से फीस ली जाती है। जो इतनी फीस भर के डिग्री ले कर आयेगा तो वह किसी की सेवा कैसे कर सकता है। इसलिए मानवता और सनातन धर्म की रक्षा कभी भी उग्रता से सम्भव नहीं हो सकती जैसा कि आजकल देश मे माहौल बना हुआ हैं सच तो यह है कि जब तक हम अपनी सेवा की लकीर को दूसरों की सेवा से अधिक लंबा नहीं करते तब तक कुछ नहीं होने वाला। हमारे धर्म को खतरा हम से ही है न कि दूसरों से .... जैसा कि हम नित्यप्रति सुन रहे हैं ... जब हम स्वयं दीनानाथ बन कर सेवा करेंगे तो धर्म सुरक्षित हो जाएगा।
अन्त में भगवान तो भक्तों से यही कहते हैं ...
होती आरती बजते शंख।
पूजा में सब खोए हैं। मन्दिर के बाहर तो देखो भूखे बच्चे सोये हैं। एक निवाला इनको देना प्रसाद मुझे चढ़ जाएगा मेरे दर से मांगने वालों बिन मांगे सब मिल जाएगा।
- वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक