ऋग्वेद के दितीय मंडल के सूक्त तैतीस के मन्त्र में मंत्र्-दृष्टा ने रूद्र-शिव की स्तुति करते हए उदघोष किया —-श्रेष्ठो जातस्य रूद्र श्रियासी तव्स्त्मस्तावासम वज्रबाहो /पर्षि णह पारंमहसः स्वस्ति विश्वा अभीती रपसो युयोधि –अर्थात हे रूद्र तुम ऐश्वर्य में सब प्राणियों की अपेक्षा श्रेष्ठ हो. हे वज्रबाहू तुम बड़े हुए लोगों में अतिशय उन्नत हो, हमें कुशलता के साथ पाप के उस पार ले जाओ और सभी पापों को हमसे दूर रखो.
श्रीमद्भागवत पुराण में शिव को जगद्गुरु कहा गया है. गुरु की कृपा के बिना इष्ट की प्राप्ति नहीं होती. श्री रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने इस गुरुतत्व के रहस्य का वर्णन किया है --
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धयाविश्वासरूपिणौ.
याभ्याविना न पश्यन्ति सिद्धयाः स्वान्तः स्थमीश्वरम
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरु शंकररुपिणं
शिवरूप परमात्मा तो सभी प्राणियों के ह्रदय में विराजमान हैं. पर विनम्रता और श्रद्धारूपी भवानी तथा त्याग वैराग्य और विश्वास रूपी शिव के अभाव में वह प्रत्यक्ष नहीं होता. वस्तुतः कल्याण के स्वरूप शिव, योग, ज्ञान, भक्ति के आचार्य हैं. सभी विद्या, कला, शास्त्र और ज्ञानविज्ञान के प्रवर्तक कुलपति हैं. इसीलिए लोकजीवन में अनादिकाल से शिव की आराधना की परम्परा अनवरत चली आ रही है.
भारतीय देवता विज्ञान के त्रिमूर्ति की कल्पना में ब्रह्मा सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं. विष्णु सृष्टि के पालनहार हैं और शिव को संहार का देवता माना जाता है. सृष्टि के अनादिकाल से मानवजाति को जीवन में निरंतर अनेक नैसर्गिक प्रकोप तथा रोग व्याधि की विभीषिका झेलना होता है. विकराल अनेक प्रकार के प्राकृतिक प्रकोप, विद्युत् का वज्रपात, उल्कापात तथा अनेकानेक रोग व्याधि की महामारी आदि से मनुष्यजाति प्रागैतिहासिक काल से ही काल कलवित होती रही है. कदाचित इसी नैसर्गिक और व्याधिजनित प्रकोपों के प्रतीक रूप में वैदिक ऋषियों मुनियों के मन में रूद्र देवता की अनुभूति हुई हो.
ऋग्वेद के पहले मंडल के सूक्त 43, दूसरे मंडल के सूक्त 33 तथा सातवें मंडल के सूक्त 46 में रूद्र देवता का उल्लेख विस्तार से किया गया है. एक मन्त्र में तो कहा गया --हे रूद्र तुम हमें मत मारना ,हम तुम्हारे क्रोध के बंधन में न रहें ,तुम प्राणियों द्वारा प्रशंसित यज्ञ का हमें भागी बनाओ। हे देवों तुम कल्याणकारी साधनो द्वारा हमारी रक्षा करो-मा ना बधौ रूद्र। एक अन्य मन्त्र में रूद्र को सूर्य के समान जाज्वल्य एवं सुवर्ण की भांति प्रदीप्त कहा गया है.
अथर्ववेद के ग्यारहवें काण्ड के सूक्त 2 तथा पन्द्रहवे काण्ड के सूक्त 5 में रूद्र को भव, महादेव, पशुपति, उग्रदेव तथा शर्व के रूप में भी उल्लिखित किया गया है. अथर्ववेद के छठा खंड के सूक्त 90 के मन्त्र 3 में रूद्र की वंदना करते हुए कहा गया --नमस्ते रुद्रस्यते नमः प्रतिहितायै --हे व्याधि रूप अस्त्र चलने वाले रूद्र तुमको नमस्कार है.
यजुर्वेद के तीसरे अध्याय के मन्त्र 60 रूद्र की वंदना कष्ट निवारण और प्राण संकट दूर करने के लिए की गई है, यह मन्त्र ही महामृत्युंजय जप है --
त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात
त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम पतिवेदनम उर्वारुकमिव बंधनादितो मुक्षीय मामूतः
यजुर्वेद के शतरुद्रीय नामकअध्याय में रूद्र का स्वभाव चित्रण स्पष्ट रूप से रुद्रस्वरूप-रुद्रतनुः एवं शिवस्वरूप-शिवतनुः के विभेद से स्पष्ट किया गया है -
या ते रूद्र शिवा तनू शिवा विश्वस्य भेसजी। शिवा रुद्रस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे-तैतरीय संहिता रुद्राध्याय-2. अर्थात रूद्र के घोरा और शिव नामक दो रूप हैं जिनमे से पहला रूप दुखनिवृत्ति और मृत्युपरिहार करने वाला एवं धन, पुत्र, स्वर्ग आदि प्रदान करने वाला है एवं दूसरा रूप आत्मज्ञान और मोक्ष प्रदान करने वाला है.
रूद्र शिव से सम्बंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपनिषद्-श्वेताश्वतर उपनिषद् है जिसमे रूद्र शिव को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ देवता कहा गया है. इस उपनिषद् में रूद्र, शिव, ईशान एवं महेश्वर को सृष्टि का अधिष्ठात्री देव कहा गया और बताया गया कि इसकी उपासना और ज्ञान से ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है.
किं कारणं ब्रह्म ? श्वेताश्वर उपनिषद् में पूछा गया कि जगत का कारण जो ब्रह्म है वह कौन है ? उत्तर है एको हि रुद्रः सः शिवः। इस प्रकार रूद्र ब्रह्म के पर्यायवाची होते हैं. शिव रूद्र इसलिए हैं कि ये रुत अर्थात दुःख का विनाश करते हैं. दुःख का विनाश कल्याणकारी ज्ञान से ही होगा. रुत -दुखम -द्रावयति -नाशयतीति -रुद्रः। श्वेताश्वर उपनिषद् शैवपंथीय नहीं है बल्कि आत्मज्ञान एवं ईश्वर ज्ञान का पंथनिरपेक्ष मार्ग बताने वाला एक सर्वश्रेष्ठ प्राचीन उपनिषद् माना जाता है जिसके कारण शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि विभिन्न पंथ के आचार्यों ने इसके उद्धरण लिए हैं. इस उपनिषद् का काल भगवद्गीता से पूर्वकालीन है. इससे प्रमाणित होता है कि भागवत धर्म के पूर्व भारत में एक मात्र उपास्य देव -रूद्र शिव ही रहे हैं. त्रिदेवों की अवधारणा भागवत धर्म के बाद उद्भूत हुई है.
शिव की अत्यंत प्राचीन प्रतिकृति मुअनजोदड़ो हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त हुए सिंधु सभ्यता के खंडहरों में दिखाई देती है. पश्चिम एशिया में हिटाइट द्वारा पूजित तथा बाबोलेनिया के बृषवाहन त्रिशूलधारी देवता और शिव में काफी साम्य है. वस्तुतः वैदिक काल के पूर्व की मानव सभ्यता संस्कृति के आदिदेव रूद्र शिव स्वरूप ही रहे होंगे जिसके कारण आर्य अनार्य के विवाद में शिव के एक तामसी स्वरूप की कल्पना हो गई जो भ्रमित तामसी सांप्रदायिक दृष्टि वाले लोगो द्वारा सृजित किया गया. भगवान शिव का गुणगान वेदों ,उपनिषदों तथा वैष्णव पुराणों में गाया गया है. उन्हें तामसी कहना तामसी मनोवृत्ति का परिचायक है. आदिदेव भगवान शिव तो शुद्ध सनातन विज्ञानानन्दघन परब्रह्म है जो ज्ञानस्वरूप है.
लोकजीवन में शिव भोलेशंकर अवढरदानी के रूप में पूजित हैं. शिव के भोलेपन का दुरपयोग करके लोकजीवन में गंजेड़ी ,भंगेड़ी ,नशेबाज और बावला के रूप में प्रतिस्थापित करने का कुत्सित प्रयास किया जाने लगा. शिव को पागल श्मशानवासी, औघड़ आदि समझना बड़ी भूल है जो कुत्सित मनोवृत्ति का द्योतक है. ज्ञान के प्रतिमूर्ति, योगेश्वर, जगद्गुरु सभी ज्ञान विज्ञान के आदि स्रोत हैं-विद्यानां प्रभवे चैव विद्यानाम पतये नमः-आप विद्या के आदिकारण और स्वामी हैं आपको नमस्कार।