व्यंग्य लेखन की सही अभिव्यक्ति क्षमता क्या है इसे अब तक के व्यंग्य लेखन के परफारमेंस में देखा जा सकता है। इसके दो रूप हमारे सामने हैं।बहुत बेहतर जैसे मार्क ट्वेन और हरिशंकर परसाई।
सवाल यह है कि इसकी रोशनी में क्या काम हो रहा है और वह कहां हो रहा है? जिसकी जैसी समझ, जिसका जैसा ज़मीर और जिसकी जैसी जनसंबद्धता।कलाबाजी और चमत्कारी दुनिया की भी अनेक रंगते हैं। लिखे चले जा रहे हैं मानों लिखकर ही अमर होना है और अनेक रिकॉर्ड बनाना है। सबने अपने - अपने तईं लिखने के कारण खोज लिए हैं और न जाने क्या क्या लिख रहे हैं और कुछ तो अपने आप में मस्त हैं। कुछ तो जो घट रहा है उसे न लिखें तो बेचैन रहते हैं और जब लिख लेते हैं तो मुक्त हो जाते हैं। यही असलियत है। दुनिया में व्यंग्य हमारे जीवन और लेखन की ही नहीं बल्कि समूचे कला विधानों की एक आवश्यक कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए लेकिन कुछ अतिरिक्त उत्साही लोगों ने उसे स्पिरिट की बजाय एक विधा बना दिया है जो अपने आप में एक व्यंग्य है।
व्यंग्य लेखन में विधा और स्परिट का द्वंद्व जारी है।यूं व्यंग्य जोखिम , अनुभव, संवेदना और सर्जनात्मकता का जरिया भी है ।लिखना, दुखों से मुठभेड़ का और अपने समय और समाज से टकराने का ज़रूरी माध्यम भी है। व्यंग्य की स्पिरिट हमारे तमाम जीवन में अवस्थित है। चिंता यह भी है कि हमारा अधिकांश लेखन दोहराव और दोगलेपन का शिकार भी हो रहा है। वहां चमत्कारों का जखीरा सक्रिय है। चमत्कार सबको बांधे हुए है और अभिवादन की मुद्रा में उल्टा लटका हुआ है। सत्ता - व्यवस्था से डरे हुए लोग और छाती पीटनेवाले निड़रता के घोषणा पत्र जारी करते हैं लेकिन डर की खंदक- खाइयों में उल्टा - सीधा होते रहते हैं।अब जो है वो है और न जाने कितना व्यंग्य लेखन नकलीपन की कंदराओं में हो रहा है।इलेक्ट्रानिक मीडिया नेटवर्किंग साइट्स के सहारे व्यंग्य लेखन की तुक्कड़पंथी का विराट प्रोडक्शन भी जारी हो रहा है।व्यंग्य लेखन जीवित और जीवंत शब्दों से ही संभव होता है। वे शब्द जो श्रम से नहाए हुए होते हैं और जो अदहन की तरह निरंतर खौलते हैं वे ज़िंदगी के समर में दिन - रात लहूलुहान होते हैं। उन्हीं का व्यापक असर जीवन में होता है।व्यंग्य निर्जीव शब्दों से संभव भी नहीं हो सकता है। व्यंग्य की दिशा ढकोसले से किसी भी कीमत में हासिल नहीं हो सकती। परसाई के अरस्तू की चिट्ठी का यह मार्मिक हिस्सा पढ़ें और व्यंग्य लेखन की ताकत को देखें।
इसे लिखा कब गया था और उसका असर अभी भी कायम है और आगे भी रहेगा। उनके शब्द हैं - “तुम्हारे प्रधानमंत्री की यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी हुई है । जिस दिन यह अदा और अदाकार नहीं होगा , उस दिन यह सरकार एकदम गिर जाएगी। जब तक यह अदा है, तब तक तुम शोषण सहोगे ,अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे, क्योंकि तुम जब क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा प्रधानमंत्री एक अदा से तुम्हें ठंडा कर देगा ।
तुम्हें जानकार आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था इसी एक अदा पर टिकी है।” इन वाक्यों का सच देखिए और इनकी ताक़त भी अनुभव कीजिए। यह तात्कालिक होते हुए भी समय के न जाने कितने पार जाता है और उसके बाद भी जबरदस्त असर डालता है। तात्कालिक तौर पर सचेष्ट था लेकिन इसकी गंभीरता और मार अभी भी विद्यमान है।
अब व्यंग्य बाज़ार बन चुका है। सब मनमानें की बातें हैं। मन की उड़ानों में जनतंत्र है और विश्वगुरु बनने का आडंबर शास्त्र भी।अन्य समूह भी इसी घटाटोप में बागड़ बिल्ला की तरह सरपट दौड़ रहे हैं।
व्यंग्य लेखन भी इन्हीं के आसपास योग की तरह लंबी- लंबी सांसें खींच रहा है।भारी भरकम सिद्धांत तो हैं लेकिन वे हमारी व्यावहारिकता में बिल्कुल नहीं आते हैं । जैसे दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई इधर गिरा कोई उधर गिरा की स्टाइल में बल्कि एकदम खंटान चिरैया या सूखी चिड़िया हो जाया करते हैं।यही तो विसंगति और विडंबना है। इस दौर में व्यंग्य लेखन को लेकर न जाने कितने प्रकार की खिचड़ियां पक रही हैं और न जाने कितनी अराजक स्थितियां काम कर रही हैं। यानी जितने मुंह उतनी बातें। सब कुछ बाहर से दिख रहा है। लेकिन इसके लिखइया - पढ़इया हर जगह से इसे ताप तोप रहे हैं तो मस्त मगन हैं। मामला एकदम लाई - लुप्प हो गया है। जन जीवन की संवेदना के क्षरण के दौर में और अपने आप को प्रतिष्ठित और प्रमाणित करने के लिए चरम व्यक्तिवाद दहाड़ रहा है। व्यंग्य लेखन का भी यही आलम है।ज़ाहिर है कि कोई भी प्रक्रिया जब संस्थान के रूप में अवतरित और फलित होनी शुरू होती है तो भ्रमों के बवंडर आते ही हैं जो समूचे यथार्थ को विकृतियों में बदल दिया करते हैं। व्यंग्य लेखन या व्यंग्यकार किसी समाज सुधारक की भूमिका में नहीं होता और न हो ही सकता।उसके उपदेशक होने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।
यह काम धर्माचार्यों के पास सुरक्षित है। आश्रमों में जो-जो होता है उसकी असलियत उजागर हो चुकी है और वह काफ़ी ख्याति प्राप्त कर चुकी वास्तविकता है। देखो, अनुभव करो और भुगतो।इसके कील - कांटे अपनी सम्पूर्ण घृणा के साथ राजनीति में घुन की तरह सक्रिय हैं। वहां नफरत और संवेदनहीनता दहाड़ रही है। ये सब व्यापार हो चुके हैं। इसके तमाम रूप व्यंग्य लेखन में भी कायदे से अपनी पैठ बना चुके हैं। जीवन में यथार्थ की अनंत धारायें होती हैं।
उसके अनेक रूप और रूपाकार होते हैं। व्यंग्य लेखन न तो कोई शांतिपाठ है और न ही कोई रिपोर्टिंग। और न लिख लिख कर अमर होने की पुण्यभूमि।न ही कोई उथला सा यथार्थ। लेकिन हो यही रहा है।व्यंग्य लेखन की पहुंच हर जगह पाई जाती है। इसे हमें विस्मृत नहीं करना चाहिए।परसाई जी ने लिखा भी है - “मैं औसत आदमी से डेवढ़ा काम करता हूं।
औसत आदमी अगर 8 घंटे काम करता है तो मैं 14 घंटे काम करता हूं …कहानी, निबंध, उपन्यास के सिवा मैं हर हफ्ते कॉलम लिखता हूं - जी हां, तीन कॉलम। ये व्यंग्य के कॉलम होते हैं और व्यंग्य रचनात्मक लेखन होता है , साहित्य होता है ।बलात्कार, चोरी और अपहरण की रिपोर्टिंग नहीं होता।” परसाई का कहा अब हमारे सामने साक्षात प्रकट है और साफ़ भी है। जैसे कबीर की उलट बांसियां अब प्रत्यक्ष हो रही हैं और कुछ इसी तरह की लीलाएं भी अनवरत जारी हैं।
व्यंग्य लेखन की दुनिया में प्रशंसा की बाढ़ आई हुई है। बिना किसी शर्म के।प्रशंसा करो जिसमें जितना दम हो और उसके लिए समूचा आकाश मंडल बन सके। यह किसी से छिपा हुआ भी नहीं है।यह बाढ़ व्यक्तिवाद का चरमोत्कर्ष भी है। और तुरंत छा जाने वाली परियोजना भी।
जब मठ - मंदिर और गढ़ होते हैं या संस्थानों का कारोबार होता है तब तो यह होना ही है। सभी के मंसूबे और पैंतरे होते हैं। यही तो यूज ऐंड थ्रो की बाजारी असलियत है। आज परसाई होते तो इसकी गंभीरता से ख़बर लेते। व्यंग्य लेखन की बाढ़ है और उसका लार्ज स्केल पर प्रोडक्शन जारी है। किताबों के प्रकाशन का उद्योग है।
सोचता हूं कि अब सिद्धान्त खूब चीखने चिल्लाने की चीज़ है मानने की बिलकुल नहीं। हम आदर्शवाद बघारते हैं और लज्जाजनक काम सुभीते से निपटाया करते हैं। इस वस्तुस्थिति का विस्तार बखूबी हो रहा है।
व्यंग्य लेखन जागरूक और संजीदा लेखन है। व्यंग्य लेखन की उत्प्रेरक चीज़ है सतत जागते रहना और हर वस्तु स्थिति पर अपनी पारदर्शी नज़र रखना और विसंगतियों के खिलाफ़ जूझना।व्यंग्यकार हंसता भी है और रोता भी है। लेकिन निडर होकर भरपूर कार्रवाई भी करता है। व्यंग्य सन्नाटे में भी बोलता है और मटियामेट करने वाले पाखंड पर जागृत करता है। व्यंग्य चिकनी चुपड़ी चीज़ों से बाहर की दुनिया है।
व्यंग्य लेखन कोई भटैती नहीं है और न ही कोई अहंकार का रूपक और न ही कोई उपदेशशास्त्र।