बड़े लोगों के किस्से भी बड़े होते हैं। नागर जी अपने को चौक (लखनऊ) यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर कहते थे। सुबह उठकर सिलबट्टे पर विधिवत भांग को घोटना अमृत लाल नागर जी का रोज का शगल था। इस काम को वे पूरे तौर तरीके और श्रद्धा से करते थे। वे बा (अपनी पत्नी) तक को हाथ लगाने नही देते थे। भांग में दूध, रबड़ी के साथ क्या और कितनी चीजें मिलानी हैं यह वे खुद तैयार करते थे।
नागर जी अपने कुर्ते की जेब में नक्काशीदार चांदी के दो गिलौरीदान रखते थे। एक में तरतीब से लगे हुए पान और दूसरी जेब में भांग के गोले सजे रहते थे। जिसे वे किसी को हाथ लगाने नहीं देते थे।
भारत सरकार की ओर पद्म भूषण, ‘अमृत और विष’ के लिए साहित्य अकादेमी और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार के साथ ही वह अन्य कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए गए। लखनऊ महोत्सव की ओर से उन्हें अवध गौरव सम्मान के साथ इक्यावन हजार रु की राशि सौंपी गई। लेकिन एक अभिनन्दन बेहद अद्भुत था जो सालों न नागर जी भूले न हम लोग।
नागर जी का ऐसा अभिनन्दन करने की कोई जुर्रत नही कर सका।
हुआ यह कि जौनपुर के मशहूर कवि रूप नारायण त्रिपाठी प्रसिद्ध साहित्यकार और सूचना विभाग के उपनिदेशक ठाकुर प्रसाद सिंह के पास पहुंचे। हम लोग उन्हे आदर से ठाकुर भाई !कहते थे। बाद में वे सूचना निदेशक , हिंदी संस्थान के निदेशक और मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी के विशेष सचिव भी बने। रूप नारायन त्रिपाठी जौनपुर के चर्चित कवि थे और आयोजनों में करिश्मे कर दिखाने में सिद्धस्त थे। उन्होंने कहा-ठाकुर भाई!
इस बार मेरा मन है जौनपुर में नागर जी का अभिनन्दन किया जाए और इसके लिए महामहिम राज्यपाल चेन्ना रेड्डी को आमंत्रित किया जाए ताकि आयोजन भव्य हो।
भाई के मत्थे पर बल पड़ गए। बोले-रूप नारायण जी कम से कम नागर जी को बख्शिये. आप के सभी आयोजन हम लोग भुगत चुके हैं। अब नागर जी पर कृपा न करें।
रूपनारायण त्रिपाठी अपना कान पकड़ कर बोले-राम राम!इस बार कोई कोताही नही होगी। नागर जी का जौनपुर में भव्य अभिनन्दन होगा। पूरा पूर्वांचल देखेगा। बस अनूप जी महामहिम के भेंट का समय दिला दें। हाथ जोड़ते हुए कहा ,सारे गिले शिकवे, इस बार दूर कर दूंगा।
ठाकुर भाई ने स्वतंत्र भारत अखबार में फोन करके मुझसे कहा- 'क्या आप रूपनारायण जी की मदद कर देंगे? वे महामहिम राज्यपाल महोदय को नागर जी के अभिनन्दन समारोह में आमंत्रित करना चाहते हैं। आप को भी जौनपुर चलना है।'
मैने राज्यपाल के ए डी सी के एन राय से बात करके रूपनारायण त्रिपाठी को राज्यपाल से भेंट का समय दिला दिया।
नागर जी के अभिनन्दन समारोह में जाने का निमंत्रण भी पोस्टकार्ड से मिला। ठाकुर भाई ने बताया कि नागर जी के जौनपुर यात्रा की व्यवस्था कर दी गयी है। सूचना विभाग का एक अधिकारी उन्हें जौनपुर ले जाएगा। भिटरिया में भी, मशहूर दही, जलेबी और ठंडाई से स्वागत होगा। मैं ट्रेन से निकल जाऊंगा । आप मेरी कार से बनारस आ जाइयेगा। वहां से हम लोग जौनपुर चलेंगे।
बनारस में सुबह हम लोग जौनपुर रवाना हुए। रास्ता बतकही में कट गया। जौनपुर शहर में जगह-जगह स्वागत में तोरणद्वार लगे हुए थे। ठाकुर भाई देख कर गदगद थे, करिश्मा देख रहा हूँ। रूपन ने सारे पाप धो दिए। थोड़ी देर बाद कचेहरी के पास एक गेट पर कार रुकवाकर उन्होंने तोरणद्वार देख कर टोंका - आपने वेलकम लिखा है।नागर जी इसे पसन्द नहीं करेंगे। मौजूद वकीलों में से एक की त्योरी चढ़ी-हू इज़ नागर? मुझे लगा कुछ गड़बड़ है। पता चला राज्यपाल किसी और फंक्शन में आ रहे थे। नागर जी के अभिनन्दन में नही।
मैने ठाकुर भाई का कुर्ता खींचा-चलिए ! हिन्दी भवन पहुंच कर बात करते है।
हिंदी भवन में जहां नागर जी का अभिनन्दन होना था। सन्नाटा था। एक छोटे से कमरे में तख्त पड़ा था। एक कुर्सी भी थी,चौकी पर बैठा एक व्यक्ति लाल हरी स्याही से एक कागज़ पर कुछ लिख रहा था। उससे मैने पूछा -नागर जी का अभिनन्दन समारोह कहां होना है।
जवाब मिला-यहीं होना है!
"लेकिन कोई तैयारी नहीं दिख रही है?
-वही तो कर रहा हूँ, नागर जी का अभिनन्दन पत्र ही तैयार कर रहा हूँ, बड़े श्रम से रूप नारायन जी ने इसे लिखा है।
'लेकिन, रूप नारायन त्रिपाठी जी नही दिख रहे ,कहाँ हैं?"
-आते होंगे, आदरणीय अमृत लाल नागर जी की अगवानी में बाहर खड़े होंगे।
थोड़ी देर बाद नागर जी को लेकर रूप नारायण त्रिपाठी जी हिंदी भवन के उस कक्ष में अवतरित हुए। उनको मिलाकर उस कक्ष में नागर जी और ठाकुर भाई समेत सात व्यक्ति हो गये । कक्ष छोटा लगने लगा। अभिनन्दन शुरू हुआ। रूपनारायन त्रिपाठी जी के काव्यमय संचालन से वातावरण गूंज उठा। नागर जी के गर्दन मे गेंदे की माला पहनाई गई। एक माला ठाकुर भाई को भी दी गयी। महीन सूती वस्त्र का उत्तरीय नागर जी को ताजे अभिनन्दन पत्र के साथ । एक डिब्बा जौनपुर की मशहूर इमरती भी।
नागर जी ने अभिनन्दन पत्र तख्त पर रखते हुए गम्भीर मुद्रा में कुर्ते की बाईं जेब से चांदी का गिलौरी दान खोल कर कहा -अब मैं भी अपने महामहिम का अभिनन्दन कर लूं! इतना कह कर उन्होंने भांग का एक गोला निकाला और एक लोटा पानी से चढ़ा लिया।
रूपनारायन जी के बढ़े हाथ की ओर उन्होंने देखा भी नहीं।
हिंदी भवन से निकल कर हम लोग सार्वजनिक निर्माण विभाग के डाक बंगले पहुंचे। राज्यपाल के लिए आरक्षित होने के कारण गाड़ी बाहर लगा कर अंदर गए
ए डी सी ने महामहिम को खबर दी। उन्होंने तत्काल बुला लिया। देखते ही बोले-यह मत कहिएगा कि आप मेरे लिए आये हैं l यहां कैसे? मैने उनको सारा किस्सा बताया। महामहिम गम्भीर हो गए। ए डी सी राय को निर्देश दिया -जाइये, नागर जी को स्वयं लेकर आइये। मन ही मन महामहिम ने कुछ तय किया। नागर जी को लेकर वे समारोह में पहुंचे। पीछे-पीछे ठाकुर भाई के साथ मैं भी गया। यहाँ भी करिश्मा था। राज्यपाल चेन्ना रेड्डी ने खुद माइक सम्भाल लिया। पहले नागर जी का अभिनन्दन होगा। नागर जी को राज्यपाल ने पश्मीने की चादर ओढ़ाकर अपने लिए लाया गया बेहतरीन गुलाबो का बुके भेंट किया और एक चमचमाती तलवार और चांदी की छड़ी भी भेंट की।
बाद में वहां के पूर्व सांसद की ओर से एक चिट मिली कि नागर जी का सम्मान राज्यपाल रेड्डी के कार्यक्रम में शामिल न होने के बावजूद प्रोटोकाल को दरकिनार कर राज्यपाल स्वयं नागर जी को लेकर वहां गए।सभी उन्हें देखकर अभिभूत थे। राज्यपाल को सम्मानित करने के लिए नागर जी को एक कीमती शॉल दी गयी। महामहिम ने उसे भी नागर जी को ही पहना दिया। सम्मान समारोह के बाद हाथ जोड़ कर मेजबान ने अनुरोध किया -बिना मुंह जुठारे कोई नहीं जाएगा।
लखनऊ में अधिकांश जीवन-यापन और लेखन करने के बावजूद बाबूजी अपनी लेखनी को लेकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय फलक पर हमेशा चर्चा में रहे। तमाम वरिष्ठ लेखकों, कलाकारों, इतिहासकारों और आलोचकों से उनके उनके घनिष्ठ सम्बंध रहे।
नागर जी के उपन्यासों में जीवन रचा-बसा है। ज़िंदगी को पूरी मस्ती से जीने वाले इंसान थे। एक बार उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के वरिष्ठ अधिकारी राकेश तिवारी को अपनी एक किताब भेंट करते हुए लिखा- ज़िंदगी लैला है, उसे मजनूं की तरह प्यार करो। यह कोई साधारण कथन नहीं है। जीवन के प्रति आसक्ति रखने वाला, आशा और विश्वास रखने वाला एक बड़ा लेखक ही ऐसा कह सकता है।
अमृतलाल नागर को प्रेमचंद का सच्चा वारिस कहा जाता है जबकि उन्होंने अपनी स्वतंत्र और निजी पहचान बनाई। इसी के चलते वे भारतीय साहित्य का वैविध्य से भरपूर महत्वपूर्ण रचनाकार का ख़िताब हासिल कर सके। अमृतलाल नागर रचनावली में डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि ‘नि:संदेह वे एक महत्वपूर्ण उपन्यासकार के रूप में याद किए जाएँगे। मेरे लिए वे गद्य लेखन की प्रमुख मूर्ति हैं।
बम्बई प्रवास के सात सालों को छोड़कर आजीवन नागर जी लखनऊ के चौक मोहल्ले की एक संकरी गली में एक पुरानी विशाल हवेली में किराए पर रहे। चौक के भूगोल और जनजीवन की विविधता ने उनके साहित्य को अनूठी पहचान दी। निजी मकान या सवारी की ज़रूरत उन्होंने महसूस नहीं की। 'शाह जी की कोठी' में रहते हुए हमेशा रिक्शे की सवारी पर चलते हुए वे अपने को चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चान्सलर मानते थे। चौक की तंग गलियों-मोहल्लों में बसी ज़िंदगियों की कहानियों में पूरे हिंदुस्तान का दर्द धड़कता था।
साहित्य अकादमी महत्तर सदस्यता ग्रहण करते हुए उन्होंने चर्चित वक्तव्य दिया था-
देश के वरेण्य साहित्यिक महानुभावों के समकक्ष बैठकर राष्ट्रीय साहित्य अकादमी से यह महोच्च सम्मान प्राप्त करना बड़े गौरव का विषय है। आनंद की मिठास से मुँह और मन दोनों बंध गए हैं, शब्दहीनता की स्थिति में आ गए हैं। वैसे कविगुरु कालिदास ने मिठास को बहुत सराहा है। वह कहते हैं कि जिस मुखड़े की बनावट मधुर हो उसे किसी और सजावट या सिंगार की ज़रूरत नहीं होती। महाकवि मीर ने भी जवानी में यह मिठास देखी और कहा कि ‘ख़ुद जवानी है, जवानी का सिंगार, सादगी गहना है इस सिन के लिए।’ इन साहित्य के देवताओं की बात करने का दु:साहस तो स्वप्न में भी नहीं कर सकता, हाँ, मेरा लखनवी दिल चेहरे के सलोनेपन को भी कम महत्व नहीं दे पाता, बग़ैर नमक के मिठास का वजूद नही।
अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के गोकुलपुरा में एक गुजराती ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता का नाम राजाराम नागर और माता का नाम विद्यावती नागर था। बाल्यकाल में ही कांग्रेस की वानर सेना के सक्रिय सदस्य बन गए थे और अँग्रेज़ सरकार विरोधी गतिविधियों में अपनी भूमिका निभाने लगे थे। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद उन्होंने इतिहास, पुरातत्व और समाजशास्त्र का अध्ययन किया। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही बहुभाषी भी थे और हिंदी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, बांग्ला एवं अँग्रेज़ी भाषा का ज्ञान रखते थे।
अमृतलाल नागर को साहित्यिक संस्कार पारिवारिक वातावरण में प्राप्त हुआ। युवावस्था से ही सक्रिय लेखन की ओर मुड़ गए थे और इस क्रम में उनका पहला कहानी-संग्रह ‘वाटिका’ 1935 में ही प्रकाशित हो गया था। उन्होंने एक स्वतंत्र लेखक और पत्रकार के रूप में कार्य-जीवन का आरंभ किया था। पहले कोल्हापुर से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘चकल्लस’ का संपादन किया, फिर हिंदी सिनेमा में पटकथा-लेखन से जुड़ गए। उन्होंने कुछ वर्ष ऑल इंडिया रेडियो पर ड्रामा प्रोड्यूसर के रूप में भी कार्य किया। उस समय ऑल इंडिया रेडियो के सलाहकार मंडल में हिंदी साहित्य के भगवतीचरण वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, उदयशंकर भट्ट और पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे महत्त्वपूर्ण साहित्यकार शामिल थे। बाद में फिर रेडियो से अवकाश लेते हुए वह स्वतंत्र साहित्य सृजन में जुट गए।
एक साहित्यकार के रूप में अमृतलाल नागर ने अपने समय-समाज-संस्कृति से सार्थक संवाद किया है। उन्होंने गद्य की विभिन्न विधाओं—उपन्यास, कहानी, नाटक, बाल साहित्य, फ़िल्म पटकथा, लेख, संस्मरण आदि में विपुल योगदान किया है। उनकी विशेष ख्याति एक उपन्यासकार के रूप में है। हिंदी उपन्यास की परंपरा में उन्हें प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, यशपाल की श्रेणी में रखकर देखा जाता है। उनके उपन्यासों का वितान वृहत है जहाँ उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति से लेकर तुलसी-सूर जैसी विलक्षण काव्यात्माओं और स्वतंत्रता-पूर्व भारत के राजनीतिक यथार्थ से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत के बदलते सामाजिक-आर्थिक अनुभवों तक के विस्तृत भारतीय परिदृश्य पर लेखन किया है। वह अपनी कृतियों में यथार्थपरक दृष्टिकोण से भारतीय जनजीवन का जीवंत रूप प्रस्तुत करने के साथ मनुष्य और मनुष्यता का इतिहास रचते जाते हैं।
वह भारतीय जन नाट्य संघ, इंडो-सोवियत कल्चरल सोसाइटी, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, भारतेंदु नाट्य अकादमी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान जैसी कई संस्थाओं के सम्मानित सदस्य रहे। उन्होंने मंच और रेडियों के लिए कई नाटकों का निर्देशन किया। भारत सरकार की ओर पद्म भूषण, ‘अमृत और विष’ के लिए साहित्य अकादेमी और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार के साथ ही वह अन्य कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए गए। उनकी कृतियों का अँग्रेज़ी, रुसी आदि विदेशी भाषाओं सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया । लेकिन उन्हें अंत तक जौनपुर में हिंदी भवन में हुआ अभिनन्दन समारोह का किस्सा याद था।एक बार बोले भी- उस अभिनन्दन के ठसके में महामहिम भी निपट गए थे ।
ऐसे तमाम किस्से हैं उनकी जिंदादिली की। लखनऊ में संगीत नाटक अकादमी की ओर से नाटक प्रतियोगिता हुई। अंतिम दिन परिणाम घोषित होने को थे। पंडित अमृतलाल नागर तीन जजों की कमेंटी के चीफ थे।
नागर जी तीन पन्नो में नाटकों की समीक्षा संभाले मंच पर आए।
"भैय्यो मैं नाटक कलाकार नही हूँ। इसलिए बिना लिखे एक्सटेम्पोर नही बोल सकता ,नागर जी ने घोषणा की
"तो फिर कागज़ किसी और को थमा दीजिये....आप प्रॉम्प्टिंग पर चलिए
आवाज़ दर्शकों की तरफ से आई थी। नागर जी दर्शकों के बीच के
जाकर खुद अपने को हूट कर रहे थे।
एक और किस्सा- नाटक की तैयारी पूरी हो चुकी थी। एक पात्र को छड़ी की जरूरत थी। कहीं मिल नही रही थी। किसी ने सुझाव दिया- आप अपने घर से मंगवा लें। नागर जी के पास तो एक दर्जन से ऊपर उम्दा घड़ियां हैं।
उनमें से कोई भी हमारे पात्र को सूट नही करेगी-कुमुद नागर बोले।
"क्यों नही सूट करेगी?
तब तक नागर जी अंदर आ चुके थे- यह बेहतर जानता है क्योंकि सारी छड़ियाँ इसकी भोगी हुई है,नागर जी ने बात पूरी की,और दूसरी छड़ी ढूढो!