बामसेफ, डीएस-4 से बसपा तक के बैनर तले स्व. कांसीराम ने दलितो को एकजुट करने का काम किया था। कांसीराम के ही जीवन काल में एक राजीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टी को उदय हुआ। मायावती पार्टी की महासचिव बनी। कांसीराम के निधन के बाद बसपा की पूरी कमान मायावती के हाथ आ गयी।
बसपा के सामानांतर भीम आर्मी फिर आजाद पार्टी के संस्थापक चन्द्रषेखर आजाद की बड़ी तेजी से दलितों के बीच लोकप्रियता बढ़ी है। लोकप्रियता के बढ़ते ग्राफ से मायावती का चिन्तित होना स्वाभाविक है। उनकी सल्तनत उनके हाथ से खिसकती दिखायी देने लगी है। नुकसान की भरपाई करने की गरज से मायावती एक बार फिर से सक्रिय होती दिख रही है। मायावती की इस सक्रियता के पीछे भी चंद्रशेखर आजाद की लोकप्रियता का बढ़ता ग्राफ प्रमुख वजह मानी जा रही है।
बसपा नेत्री उप चुनावों से परहेज करती रही है। ऐसा माना जाता है कि बसपा प्रमुख मायावती इस बार सूबे मेें होने वाले उप चुनाव में मीरापुर से चुनाव लड़ सकती है। उनके उप चुनाव लड़ने के पीछे कई पक्ष छुपे हुए है। पहला यह कि मायावती के चुनावी मैदान में आने से मीरापुर की विधान सभा हाई प्रोफाइल हो जायेगी। साथ ही दलितों के बीच एक बेहतर संदेश जायेगा। दलित मतदाताओं और बसपा काडर के लोगों को सक्रिय करने की भी रणनीति छुपी हुई है। जो मृत प्राय होती बसपा के लिए संजीवनी बन सकती है।
बसपा प्रमुख की बढ़ती आयु की वजह से दलितो के बीच एक संदेष तेजी के साथ प्रसारित हो रहा है कि मायावती में संघर्ष करने की उर्जा और दलितो के प्रति लड़ाई लड़ने के तेवर ढीले पड़ चुके है। बीच में मायावती का भाजपा के प्रति नरमी बरतना भी उनके दलित मतदाताओं को नागवार गुजरा। दलितो की यह नाराजगी भी मायावती के लिए नुकसानदेह साबित हुई है।
दूसरी तरफ चन्द्रशेखर आजाद लगातार दलितों के बीच पैठ बनाने के लिए अपनी उर्जा को खपा रहे है। साथ ही संगठन विस्तार को काफी गंभीरता से आगे बढ़ाने में जुटे हुए है। नगीना लोकसभा सीट से चुनाव जीतने के बाद एकाएक चन्द्रशेखर का कद बढ़ गया है। नगीना से जीत की वजह भी दलित मतदाताओं को एकजुट होकर रावण के पक्ष में मतदान करना रहा है।
दलित सियासत गैर सियासी संगठन बामसेफ, डीएस 4 से शुरू की गयी यात्रा बसपा के जरिए राजनीतिक ऊंचाइयां हासिल की। बसपा सुप्रीमो मायावती के हर फरमान पर दलित कुरबान होने को तत्पर रहने लगे। दलितों की इस कुरबानी का मायावती ने हर बार सियासी सौदा किया। इस सौदेबाजी से उन्हे कई बार यूपी का सीएम बनने का गौरव मिला।
इसके बावजूद भी दलितो के लिए वे कुछ बेहतर नही कर सकी। दलित और ब्राहमण गठजोड़ के जरिए साल 2007 में उन्होने पूर्ण बहुमत की सरकार का सत्ता सुख भोगा।
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बसपा के ग्राफ में लगातार गिरावट ने बसपा मुखिया के माथे पर बल ला दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठजोड़ के कारण लोकसभा की दस सीटे जीती। 2024 में पार्टी का यह आंकड़ा फिर सिफर पर आ टिका। यूपी विधान सभा चुनाव 2022 में रसड़ा विधान सभा से इकलौते प्रत्याशी उमाशंकर सिंह ही जीत दर्ज कर सके।
- जेपी गुप्ता