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कृषि प्रधान भारत : घाटे का सौदा खेती

घाटे का सौदा खेती
घाटे का सौदा खेती

भारत कृषि प्रधान देश है ये बचपन से पढ़ते आये हैं। यहां की शस्य श्यामला धरती और उस पर मौसम की मेहरबानी से साल में तीन फसल देश की सबसे बड़ी ताकत है। इनसान की बुनियादी जरूरतों में सबसे पहला नंबर रोटी का ही है। फिर आता है कपड़ा और मकान। इनमें से रोटी और कपड़ा की जिम्मेदारी किसान अपने कंधों पर उठाये हुये है क्योंकि ये दोनों उत्पाद खेत खलिहान की ही देन है। इसके बावजूद गांव और किसान की दीन दशा किसी से छुपी नहीं है।

आज हम पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू तकनीक क्रांति के दौर में जी रहे हैं। तकनीक के घोड़े पर सवार करके शहरों को स्मार्ट बनाया जा रहा है। यह भी जरूरी है क्यों कि शहरों के विकास की नीति से इनसान की चौथी बुनियादी जरूरत रोजगार के द्वार खुल रहे हैं। इसलिये देश के चारों कोनों के गांवों से युवा शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। आखिरकार शिक्षित युवा पीढ़ी को भी रोटी, कपड़ा और मकान के लिये रोजगार चाहिये। घाटे के सौदे खेती मे खप कर वो करे भी तो क्या।

इस रुझान के चलते देश का कृषि क्षेत्र अरसे से कराह रहा है। दिन रात जाड़ा, गरमी, बरसात में तप कर किसान अपने आप को खपाता तो इसलिये कि दूसरों का पेट भर सके पर खुद भूखा रह जाता है। खेती मुनाफे का सौदा न रह जाने के कारण कितने किसानो ने बीते सालों मे आत्महत्याएं कीं हैं ये आंकड़ों मे दर्ज है। जबकि भारत में कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है। कृषि भारत की कुल श्रम शक्ति का 46 प्रतिशत हिस्सा है और देश की जीडीपी में इसका प्रतिशत 16 के आसपास है।

2021 की कृषि जनगणना के अनुसार भारत में किसान परिवारों की संख्या लगभग 14 करोड़ के आसपास है। एक परिवार में औसतन पांच सदस्य हुए तो यह संख्या 70 करोड़ यानी देश की कुल आबादी का आधा हुई। इनमेें लघु और सीमांत किसानों की संख्या 85 प्रतिशत है। देश के कृषि क्षेत्र में विविधता है, जिसमें अनाज, दलहन, तिलहन, फल, सब्जी और औषधीय पौधे शामिल हैं। प्रमुख कृषि उत्पादों में चावल, गेंहू, गन्ना और कपास शामिल है। इसके अलावा पशुपालन, बागवानी का भी इस क्षेत्र में योगदान होता है। 

पर यह कैसी बेबसी है कि सारी आबादी के लिये हाड़तोड़ मेहनत करके रोटी और कपड़ा का इंतजाम करने वाली यह आधी आबादी के सामने तमाम चुनौतियां मुुहबाए खड़ीं हैं। ये चुनौतियां प्राकृतिक भी हैं और व्यावहारिक भी। प्राकृतिक चुनौतियांे में पानी की कमी, भूमि की गुणवत्ता में कमी और जलवायु परिवर्तन यानी बाढ़, सुखाड़, तूफान को शामिल किया जा सकता है। व्यावहारिक चुनौतियां ज्यादा बड़ी हैं। खेती और पशुपालन का हमारे यहां एक अटूट रिश्ता रहा है। किसानों के पास घर से अलग पशुओं का आसरा जरूर हुआ करता था जिसे नौहरा कहा जाता था यही गांव की अर्थव्यवस्था का आधार हुआ करता था। 

ये रिश्ता स्वाभाविक रूप से इसलिये मजबूत था क्योंकि गाय भैंस से किसान परिवार को दूध, दही, घी, मक्खन का भोग तो मिलता ही था उत्पाद ज्यादा हुआ तो आमदनी भी पक्की। बैलों का जिम्मा खेती किसानी से लेकर गांव से शहर तक की सवारी का था। बदले में खर्चा केवल चारा चुनी का सो खेत से निकल आता। मगर पिछले पचास सालों में औद्योगिक और तकनीकी क्रांति की आंधी ने गांव की अर्थव्यवस्था के इस मजबूत रिश्ते को छिन्न भिन्न कर दिया है। बैलों की जो़ड़ी का काम ट्रैक्टर ने छीन लिया है। बेरोजगार बैल खेती को रौंद रहे हैं।

तीन पीढ़ियों में विरासत के चलते जमीनें बंट कर घटती चली गयीं। खेत से खुद का पेट भरने लायक पैदा नहीं हो पाता, टै्रक्टर की किश्त और डीजल का खर्चा सर के उपर लाद लिया। एक तो वैसे भा गांव की प्रतिभाशाली युवा शक्ति शहरों की राह पकड़ चुकी है। उस पर मनरेगा ने गांव के बचे खुचे युवाओं को अकर्मण्य बना कर रख दिया है। बुबाई जुताई, कटाई के समय गांवों में अब मजूर नहीं मिलते। पर गांव गांव खुले ठेके गुलजार रहने लगे हैं। मनरेगा की रकम का ऐसा आपराधिक दुरुपयोग और बंदरबांट हुआ है कि पूछिये मत। बंदा रहता शहर में है महीने के आखिरी दिन गांव जाकर प्रधान से आधी चौथाई मनरेगा की खैरात उठाता रहा। वो तो भला हो मोदी सरकार का कि किसान सम्मान निधि से किसान के बीज, खाद का इंतजाम हो गया है। कम से कम लधु और सीमांत किसान को खड़ा रहने लायक बना दिया है। पूरा पैसा किसान के खाते में जमा होता है और प्रधान के हाथों वो छला नहीं जाता।

पर आज जरूरत इस बात की है कि लघु और सीमांत किसान को अभियान चला कर समझाया जाये कि जमीन का उसका मालिकाना हक कायम रहे और बाजार की डिमांड के हिसाब से खेती कोई और करे तो इस व्यवस्था में बुरा क्या है। पारंपरिक खेती से लाभ नहीं हो रहा तो गैर पारंपरिक खेती को आजमाने में क्या हर्ज है। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के कोंडागांव के एक प्रगतिशील किसान डा़ राजाराम त्रिपाठी ने इस दिशा में एक उदाहरण पेश किया है। उनका कहना है कि किसान अगर बाजार की मांग के हिसाब से माल उगाये तो उसे बेहतर दाम मिल सकता है। स्टीविया, फलेक सीड, औषधीय पौधों की उपज आज अच्छे दाम दिला रही है। चीन केे पास 4 जलवायु जोन हैं, हमारे पास 16 जोन हैं, उसके पास 400 जड़ी बूटियां हैं, हमारे पास 4000 से उपर जड़ी बूटियां हैं फिर भी वो हमसे 7 गुना आगे है। पारंपरिक खेती के व्यामोह से ग्रसित किसान की आय न्यूनतम समर्थन मूल्य की जिद से नहीं बढ़ने वाली। यह गिलास को उलटा करके देखना हुआ।

देश के अनेक हिस्सों में इसी तरह कृषि, प्रबंधन और आई टी डिग्रीधारी युवाओं ने गांवों में खेती किसानी में नये प्रयोग करके मुनाफे की राह खोली है। देश की युवा पीढ़ी अगर अपनी मेहनत से शहरों का मेकओवर कर सकती है तो वैसे ही गांव और खेत खलिहान का कायाकल्प कर सकती है। मोदी सरकार ने इधर कृषि क्षेत्र के लिये सात योजनाएं शुरू करके अपनी नीति और नीयत को सामने रख दिया है। पहली है डिजिटल कृषि मिशन इसमें किसान की भूमि, रजिस्ट्री, सूखा, बाढ़ की निगरानी, मौसम, भूजल की उपलब्धता और उपज के लये फसल बीमा योजना की सारी जानकारी मोबाइल पर उपलब्ध होगी।

बाकी योजनाओं में कृषि शिक्षा और अनुसंधान के विकास, भोजन और चारे की फसल में आनुवांशिक सुधार, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियांे से निपटने के उपायों, पशुधन और बागवानी, फल फूल सब्जी उत्पादन में सुधार पर जोर, तकनीक का सहारा और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन को लेकर नई तकनीक पर काम होगा। इन योजनाओं पर केन्द्र सरकार 13 हजार करोड़ से उपर खर्च करेगी। ये योजनाएं देखने में तो सुहावनी हैं। पर इन्हें जमीन पर उतारना भी किसी चुनौती से कम नहीं है। कायदे से कृषि सुधार के प्रयास साकार तभी माने जायेेेंगे जब देश की खेती किसानी में शिक्षित और दक्ष युवा पीढ़ी शहर के आकर्षण से बाहर निकल कर गांव का रुख करे। आखिरकार है तो यह भी एक रोजगार ही, बस इसे घाटे से मुनाफे में लाना है। देश की युवा शक्ति चाह ले तो ये काम असंभव भी नहीं।

 

- रजनीकांत वशिष्ठ 


Published: 06-09-2024

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