ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः
ब्राह्मण कौन हैं ? के प्रश्न पर उपनिषदों में काफी तर्क किया गया है. क्या जाति ब्राह्मण है ? क्या ज्ञान ब्राह्मण है ? क्या कर्म ब्राह्मण है ? क्या धार्मिकता ब्राह्मण है ? सबको नकारते हुए ब्राह्मण को परिभाषित किया गया --जो आत्मा के द्वैतभाव से रहित हो, जाति, गुण और क्रिया से रहित हो, सब दोषों से रहित हो, सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरूप स्वयं निर्विकल्प रहने वाला, काम, राग आदि दोषों से रहित, शमदम आदि से युक्त मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि से रहित दम्भ, अहंकार आदि से चित्त को पृथक रखने वाला ही ब्राह्मण कहा जा सकता है. श्रुति स्मृति, पुराण, इतिहास का भी अभिप्राय यही है.
महाभारत के शांति पर्व में महर्षि व्यासने ब्रह्म की खोज करने वाले ब्राह्मण को परिभाषित किया - येन सर्वमिदं बुद्धम प्रकृतिर्विकृतिश्च या, गतिज्ञः सर्वभूतानां नं देवा ब्राह्मणा विदुः -अर्थात जिसको इस सम्पूर्ण जगत की नश्वरता का ज्ञान है, जो प्रकृति और विकृति से परिचित है तथा जिसे सम्पूर्ण प्राणियों की गति का ज्ञान है उसे देवता लोग ब्राह्मण जानते हैं.
समाज के चतुर्वर्ण स्वरूप का उल्लेख ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से ज्ञात होता है - ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बहुराजन्यकृतः, उरुत दस्य यद्वैश्यः पदभ्यांशूद्रो अजायत। अर्थात ब्राह्मण परमपुरुष के मुख से, क्षत्रिय बाहुओं से, वैश्य जांघों से तथा शूद्र पैर से उत्पन्न हुए हैं. वस्तुतः ये चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र मिलकर एक स्वतः विकासमान समाज की सरंचना करते हैं जिसे वर्णव्यवस्था कहा जाता है. पुरुष सूक्त में ही सूर्य की उत्पत्ति परमपुरुष के आँख तथा चन्द्रमा की उत्पत्ति परमपुरुष के मन से बताई जाती है. इससे प्रमाणित होता है कि समाज की चातुर्वर्ण व्यवस्था उतनी ही स्वाभाविक और ईश्वरसम्मत है जितनी कि सूर्य और चंद्र की उत्पत्ति. पूरी वर्णव्यवस्था में किसी वर्ण को स्वतन्त्र रूप से अलग नहीं किया जा सकता. सभी वर्ण शरीर के अंगों की भांति एक दूसरे के पूरक हैं.
वर्णव्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि यह वर्णव्यवस्था जन्मना है कि कर्मणा. इसका उत्तर भगवान कृष्ण में गीता में दे दिया है. गीता के अध्याय चार के बारहवें श्लोक में कहा गया है-चातुर्वर्ण मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। -अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णो का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है. गीता के अध्याय अठारह के श्लोक इकतालीस में कहा गया है कि-ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।-अर्थात हे परन्तप, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कर्म के स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गए हैं.
मनुस्मृति के अध्याय एक में ब्राह्मण ही सभी प्राणियों के धर्मसमूह की रक्षा करने में समर्थ है-
भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः, बुद्धिमास्तु नराःश्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः।
ब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वस्तु कृतबुद्धयः, कृतबुध्दिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिनः।
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती सहि धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते।
ब्राह्मणो जयमानो हि पृथिव्यामधिजायते, ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये!
अर्थात भूतों, पदार्थों, स्थावर, जंगम रूप में प्राणी श्रेष्ठ है. प्राणियों में बुध्दि से व्यवहार करने वाले जीवजंतु श्रेष्ठ हैं, बुध्दि रखने वाले जीव जगत में मनुष्य श्रेष्ठ है, और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं. ब्राह्मणों में विद्वान् और विद्वानों में कर्मयज्ञ जिसे कृतबुद्धि कहा जाता है वे श्रेष्ठ होते हैं. कर्मज्ञों में आचारवान श्रेष्ठ होते हैं और आचारवानो में ब्रह्मज्ञानी श्रेष्ठ होते हैं. ब्राह्मण धर्म के लिए उत्पन्न होता है क्योंकि ब्राह्मण ही सभी प्राणियों में धर्मसमूह की रक्षा करने में समर्थ होता है.
पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ उत्पन्न ब्राह्मण के मनुस्मृति में छह कर्तव्य निर्धारित किये हैं -अध्यापनं, अध्ययनं, यजनं याजनं तथा दानामप्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माणि अग्रजन्मनः -अग्रजन्मा ब्राह्मण के कर्तव्य हैं-पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान लेना और दान देना. महाभारत में ब्राह्मण के लिए चरित्र की रक्षा अनिवार्य बताया है -वृत्तं यत्नेन सरंक्षयं ब्राह्मणेन विशेषतः। गीता के अध्याय अठारह के श्लोक बाइस में ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म बताये गए हैं-अंतःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद, शास्त्रों का अध्ययन अध्यापन करना और परमात्मा के तत्वों का अनुभव करना, ये सब के सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं.
ब्राह्मण धर्मसमूह की रक्षा के लिए तभी सक्षम हो सकता है जब वह आचारवान हो, चरित्रवान हो. भविष्य पुराण में कहा गया गया है कि छहों अंगों समेत वेदों का अध्ययन करके पर भी जो आचारहीन होते हैं. उन्हें वेद पवित्र नहीं बनाते. वेदों का अध्ययन कर लेना तो द्विजों को शिल्पकला की भांति हैं. वस्तुतः ब्राह्मणों का लक्षण तो चरित्र ही कहा गया है. आचार की महत्ता को दृष्टिगत रखते हुए पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में कहा गया है-वृत्तस्थमपि चाण्डालाम तं देवा ब्राह्मणं विदुः -अर्थात चरित्रवान चांडाल को भी देवता ब्राह्मण मानते हैं.
शास्त्रों में विहित ब्राह्मण धर्म आचार विचार का पालन करने वाले ब्राह्मण ही इस धरती के देवता हैं -बंदउँ प्रथम महिसुर चरना-इन्हे भूसुर कहा गया है-
देवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनाश्च देवता ,ते मंत्रा ब्रह्माणाधीनाः तस्मात् विप्रो हि देवता।
अर्थात देवताओं के अधीन सम्पूर्ण जगत है और देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणो के अधीन हैं, इसलिए ब्राह्मण ही देवता हैं.