अट्टहास शिखर सम्मान से नवाजे जाने के काफी पहले रवींद्र नाथ त्यागी का एक गश्ती पत्र(यानी कई हाथों से गुजरता हुआ खत)हमे मिला था, जिसमे त्यागी जी ने होलियाने मूड में लिखा था। -" मुझे मालूम है कि आप लोग अट्टहास सम्मान मुझे जीते जी नही देने वाले हैं। यह भी पता है कि निधन के बाद मेरी विधवा पत्नी सफेद साड़ी मे अट्टहास सम्मान लेने मंच पर जाएगी। लेकिन हरामखोरों उसे बुरी नजर से न देखना"।
मैने त्यागी जी की इस चुहलबाजी को माध्यम के संरक्षक ठाकुर प्रसाद सिंह जी को दिखाया। वे मुस्कराए। त्यागी जी के उस पत्र को उन्होंने अपनी जेब मे रख लिया। अगले साल जब अट्टहास शिखर सम्मान और अट्टहास सम्मान की निर्णायक समिति बैठी तो उन्होंने निर्णायक समिति के सामने त्यागी जी का वही पत्र पेश कर दिया। औऱ लंबे ठहाकों के बीच अट्टहास शिखर सम्मान (1996) श्री रवीन्द्र नाथ त्यागी को और युवा सम्मान सूर्य कुमार पांडे को घोषित कर दिया गया।
त्यागी जी अट्टहास सम्मान समारोह मे जब बोलने खड़े हुए तो मजाकिया मूड में पत्र कोअपने ख़लीते से निकाल कर दिखाते हुए चुटकी ली कि इस अट्टहास सम्मान ने न तो मुझे ठीक से जीने दिया न मरने ही दिया। यमदूत तक मुझे छूने को तैयार नही थे। ऐसे बेकार लेखक को किस मुंह से ले जाएं जिसे अट्टहास सम्मान तक न पूछ रहा हो। बेचारे यमदूत आते ही पूछते थे - अट्टहास सम्मान मिला?
श्रोताओं से खचाखच भरे रवींद्रालय सभागार करतल ध्वनि से गूंज रहा था। एक आवाज़ भी आई -अब तो मिल गया!
त्यागी जी ने हाज़िर जवाबी दिखाई। मैने यमदूतों को अट्टहास सम्मान से सम्मानितों लेखकों की सूची भेज दी है ,अगले छह साल तक यमदूत उन्हें ही ढोते रहेंगे। त्यागी जी व्यंग्य लिखते ही नही थे।वे व्यंग्य जीते भी थे।
उनके पत्र चुटकी,कटाक्ष से भरे रहते थे। एक बार उन्होंने अपने बेटे को लिखे पत्र की कार्बन कापी मुझे भेजी। इत्तिफाक से सारिका के तत्कालीन सम्पादक अवध नारायण मुद्गल स्वतन्त्र भारत मे मुझसे मिलने पधारे।वे पहले यहीं से गए थे। मैने उनको त्यागी जी का बेटे को लिखा पत्र दिखाया। उस को उन्होने जेब मे रख लिया। बाद में मुझसे कहा कि इसे सारिका ने हथिया लिया है। उस पत्र को नमक मिर्ची की इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित भी कर दिया- "आप इसे गलती समझें या शरारत,पर हुआ यह कि त्यागी जी ने इस बार अपने पुत्र के नाम के पत्र को हमारे पते पर भेज दिया और स्तम्भ की सामग्री को अपने पुत्र के पते पर भेज दिया। हमे लगा यह पत्र भी हमारे पाठकों के लिए उपयोगी हो सकता है। इसलिए हम उसे स्तम्भ की सामग्री मान कर जस का तस छाप रहे हैं"।
अपने बेटे को त्यागी जी का खुला पत्र-
प्रियवर,
अब तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी. अब तुम्हें जीवन का सच्चा संघर्ष झेलना है. दस्तूर के मुताबिक पिता होने की हैसियत से मैं तुमसे उम्र में बड़ा हूं और इसी कारण मैं तुम्हें सलाह देने के अपने हक का फायदा उठाना चाहता हूं. मैं काफी पढ़ा हूं, घूमा हूं और न जाने कितने बड़े-बड़े लोगों से मिला हूं या उनके निकट संपर्क में आया हूं. वैसे भी मैं नयी पीढ़ी को ज्यादा आशा, विश्वास और गर्व से देखता हूं. जो कुछ मैंने अपने जीवन में देखा है, उसको तुम तक पहचाना मेरा कर्तव्य है. आशा है कि तुम मेरी नसीहतों को याद रखोगे और उनसे फायदा उठाओगे.
मेरी पहली नसीहत यह है कि इब्ने इंशा (उर्दू की आखिरी किताब ) के मुताबिक यह तुम पर निर्भर रहता है कि तुम ज्यादा पंडित और विद्वान बनकर मात्र नवरत्न के पद तक ही पहुंचो या अनपढ़ रहकर शहंशाह अकबर की भाति हिंदुस्तान के मालिक बनो. जब-जब भी समय मिले, इस चिरंतन और ऐतिहासिक तथ्य पर जरूर विचार किया करो. यह स्थिति आज भी ठीक वही है जो पांच वर्ष पहले थी. भविष्य में भी इस सत्य पर कोई आंच नहींआयेगी। आशा है कि तुम मेरी नसीहतों को याद रखोगे और उनसे फायदा उठाओगे.
मेरी दूसरी नसीहत यह है कि तुम कपड़े हमेशा शानदार पहनना. तुम्हारी आत्मा को आंकने के लिए समय किसी के पास नहीं है. जाहिर है कि लोग-बाग जिल्द देखकर ही किताब खरीदेंगे और एक बार खरीदने के बाद वे कभी नहीं पढ़ेंगे कि किताब के अंदर लिखा क्या है।
मेरी तीसरी नसीहत यह है कि अपनी प्राइवेट सेक्रेटरी के स्थान पर हमेशा किसी शोख, हँसमुख और स्मार्ट लड़की को ही रखना ,ऐसा करने में तुम्हें परम सुख की प्राप्ति होगी और बहुत से कठिन काम पलक मारते ही सिद्ध हो जायेंगे। मेनका, तिलोत्तमा और उर्वशी अभी भी जीवित है, वे तुम्हारी रक्षा करेंगी मेरे इस कम कहने को ज्यादा समझना और इस सलाह का पूरा-पूरा फायदा उठाना ।
मेरी चौथी नसीहत यह है कि अपने चपरासी को अपने सगे बाप से ज्यादा बड़ा समझना, सचिवालय में (प्राइवेट फर्मों में भी) तुम्हारी प्रतिष्ठा स्थापित करने में जितनी मदद तुम्हारा चपरासी करेगा, उतनी मदद सरकार का सचिव और फ़र्म का मैनेजिंग डाइरेक्टर भी नहीं कर पाएंगे।
मेरी पांचवी नसीहत यह है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को और प्रेस वालो को हमेशा अपना बनाकर रखना जो नेता और पत्रकार चरित्रहीन हो, उनकी अतिरिक्त इज्जत करना, वे वक्त पड़ने पर तुम्हारी मदद कहीं ज्यादा करेंगे.
मेरी छठी नसीहत यह है कि स्टाफ यूनियन और वर्कर्स यूनियन के पदाधिकारियों को राष्ट्रपति से ज्यादा सम्मान देना, स्टाफ में यदि सौभाग्यवश कोई हरिजन या अनुसूचित जाति का व्यक्ति हो तो उसे तो अपने सगे बाप से ज्यादा इज्जत देना. याद रखना कि तुम्हारी शिकायत प्रापर चैनेल ऊपर तक बहुत दिनों बाद पहुंचेगी जबकि यूनियन के नेता मंत्रीजी से उसी शाम बात करेंगे. मंत्रीजी भी बेचारे क्या करें, उनके प्राण भी तो इन्हीं तोतों के भीतर छिपे हैं।
मेरी सातवीं नसीहत यह है कि जब भी दौरे पर जाओ तो दो-चार सुंदर लड़कियों कोसाथ जरूर रखना। सुंदर वस्तुओं की उपेक्षा करना भगवान का अपमान करना होगा.
मेरी आठवी नसीहत यह है कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों को हमेशा प्रसन्न रखना। आमतौर से इन लोगों को पुरानी शराब और नयी लड़कियां ज्यादा पसंद आती हैं. इस सबके अतिरिक्त तुम भी अपने सीनियर्स की पत्नियों और कन्याओं पर विशेष ध्यान देना. उनकी इच्छाओं को संतुष्ट करना और बाकी समय में उन्हें 'माता जी' या 'बहिन जी' ही कहकर पुकारना। इसी प्रकार यदि कोई वरिष्ठ अधिकारी तुम्हारी इकलौती पत्नी या बहिन या माता के प्रति विशेष दिलचस्पी दिखाता है तो उसमें अपनी टांग न अड़ाना।
मेरी नवीं नसीहत यह है कि यदि कोई श्रद्धालु भद्र पुरुष तुम्हें मुद्रा, आभूषण, सोने के बिस्कुट या हीरे-जवाहिरात भेट करना चाहे तो उसे कभी नहीं ठुकराना। घर आयी लक्ष्मी का आदर सत्कार करना हमारी पुरानी प्रथा है।
मेरी दसवीं नसीहत यह है कि अपनी जवान आया, हसीन नौकरानियों और समयसिद्ध विधवाओं-इन सबको अपने सीने से लगाकर रखना, दुखी लोगों और पिछड़े वर्ग की स्त्रियों के उद्धार का और कोई उपाय अभी तक नहीं निकला है।
मेरी ग्यारहवीं नसीहत यह है कि किसी फाइल पर कभी निर्णय न लेना यदि कभी निर्णय लेना पड़ भी जाये, तो वहां दस्तखत नहीं करना जो दस्तखत करता है, वही फंसता है.
मेरी बारहवीं नसीहत यह है कि गरीबों की कोई मदद कभी नहीं करना जिन लोगों को स्वयं ईश्वर ने गरीब बनाया है, उन्हें अमीर बनाने का हक इंसान को कैसे मिल सकता है? ठीक है न?
मेरी तेरहवी नसीहत यह है कि अपने वेतन को बाकी खजाने की चाबी के स्थान पर प्रयोग करना ।असली आय तो वही है जो ऊपर की आमदनी कहलाती है. यदि कोई विधवा भी अपने पति के बीमे की रकम या प्रोविडेंट फंड लेने फटेहाल तुम्हारे पास आती है, तुम तब भी अपने कमीशन को न भूल जाना. हां, अलबत्ता विधवा यदि रूपवती युवती हो तो जैसा उचित समझो, वैसा करना।
मेरी चौदहवीं नसीहत यह है कि अपने दफ्तर में धर्म, प्रांतीयता, जाति, वर्ण और भाषा के आधार पर खूब गुटबंदी चलाना. हिंदोस्तानी बनने में उत्तर प्रदेश के निवासियों को क्या मिल गया? याद रखो कि यदि हमें जीवन में कुछ करना है तो हमें गुजराती, मराठी दक्षिण भारतीय में से कुछ न कुछ तो बनना ही पड़ेगा।
मेरी पंद्रहवीं नसीहत है कि दौरे पर बराबर जाते रहना । गर्मियों में कश्मीर ,दार्जिलिग या रानीखेत और सर्दियों में बंगलोर और बंबई ।हर स्थान पर जो वस्तु विशिष्टता रखती हो, उमे कर्मचारियों से खरीदवाना और शान से वापस लौटना, तुम्हें जानकर शायद सुखद आश्चर्य होगा कि देहरादून में नौसेना का एक रीयर एडमिरल हमेशा रहता है वह वहाँ क्यो रहता है यह उस गरीब को भी पता नही होगा।
मेरी सोलहवीं नसीहत यह है कि तुम्हारे पास चाहे कितने भी विलायतीऔर शानदार सूट क्यों न हों, एक सूट खादी का जरूर रखना और उसे गांधीआश्रम से ही खरीदना मुसीबत के समय खादी की पोशाक बहुत काम आयेगी।
सतरहवी नसीहत यह है कि घर में चाहे तुम वैष्णव व पक्तिपावन ब्राह्मण रहो पर बाहर जाकर माँस, मछली, मुर्गा, मदिरा और बाकी चीजों पर बराबर ध्यान देते रहो. वाममार्गियों के अनुसार 'एते पच मकाराः स्व मोक्षदाः ही युगे युगे। वाम मार्गियों को आजकल वामपंथी कहा जाता है।
मेरी अंतिम नसीहत यह है कि पूजापाठ, सत्यनारायण की कथा, एकादशी का व्रत ,संतोषी माता का उपवास, हनुमान चालीसा और दीगर पवित्र वस्तुओं को कभी नहीं भूलना। अपनी संस्कृति की हमें रक्षा करनी है. तीर्थयात्रा और दान-पुण्य तो हमारी परंपरा के अंग हैं, यदि यह धर्म न हो तो हममें और जानवर में फर्क ही क्या रह जाये? धर्मेण हीना पशुभिसंमाना
बस आज इतना ही. बाकी फिर। रात गहरा रही है और मुझे नींद आ रही है. तुम्हें पता होगा कि लार्ड चेस्टरफील्ड अपने प्रिय पुत्र को ऐसे ही पत्र लिखा करते थे. इनके लड़के पर उन नसीहतों का इतना जबर्दस्त असर पड़ा कि वह एक नौकरानी के साथ यूरोप भाग गया.
मेरा जो कर्तव्य था,वह मैंने पूरा कर दिया ,आगे तुम और तुम्हारा भाग्य, हिंदी के एक कवि हैं जिनका नाम अज्ञेय' है. यहां उनकी वाणी उद्धृत करता हूं
सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुंचाने का
उदार, उद्यम ही मेरा हो,
फिर वहां जो लहर हो, तारा हो,
सोनतरी हो, अरुण सवेरा हो
वह सब, वो मेरे वयं,
तुम्हारा हो, तुम्हारा, तुम्हारा हो!
त्यागी जी द्वारा बेटे को लिखा गया पत्र सारिका में प्रकाशित देख कर मेरे पैरों तले जमीन निकल गयी। त्यागी जी ने वह पत्र मुझे भेजा था लेकिन बिना उनकी अनुमति लिए सारिका में प्रकाशित करने का करिश्मा मुद्गल जी ने कर दिखाया था।
कुछ दिनों बाद रवींद्र नाथ त्यागी जी से दिल्ली में भेंट हुई तो डरते हुए सारिका में उनके द्वारा प्रेषित पत्र के प्रकाशित होने का दबी जबान में मैने उल्लेख किया तो उनके चेहरे पर नाराजगी की जगह शरारती मुस्कराहट पाई। जवाब मिला ,वह तो छपना ही था।
मुद्गल जी से भेंट होने पर त्यागी जी की मुस्कराहट का राज़ खुला। मुझे त्यागी जी ने जो बेटे को सम्बोधित चिठ्ठी भेजी थी ,उसके लिफाफे पर श्रीअवध नारायण मुद्गल द्वारा अनूप श्रीवास्तव,स्वतन्त्र भारत ,21 विधान सभा मार्ग,लखनऊ लिखा था। बकौल मुद्गल ,त्यागी जी ने मुद्गल जी को फोन करके बता दिया था कि उक्त लेख गलती से मेरे पास चला गया है। लखनऊ जाएं तो मुझसे अवश्य ले लें। मैने बिना पता पढ़े वह लिफाफा फेंक दिया था।
त्यागी जी व्यंग्य के बादशाह थेऔर कैरम के बेहतरीन खिलाड़ी भी। वे क्वीन को हासिल करने के लिए किसी भी गोट को इस्तेमाल करने का हुनर जानते थे। इसमे वे पूरी तरह माहिर थे।
--अनूप श्रीवास्तव