सैय्यद हैदर रजा : लोकप्रिय चित्रकार सैय्यद हैदर रजा के दिमाग में बहुत से स्मृतियां है और उन्हीं को जानने के लिए फिर से जीने के लिए वह बार-बार मध्य प्रदेश के मण्डला में जाते है वो बताते है मेरे पिताजी फाॅरेस्ट आफीसर थे, जो नरसिंहपुर में, बाद में मण्डला ककैया में काम करते थे। मुझे याद है कि ककैया में प्रायमरी स्कूल में पढ़ने मैं जाता था, वहां के शिक्षक नन्दलालजी झरिया ने बहुत ही स्नेह से शाला से पाठशाला के प्रति मेरा मन इन पर केन्द्रित किया। मुझे पढ़ाई में बहुत कठिनाई होती थी और उनकी कृपा से पढ़ाई में मन लगने लगा। घर के आसपास जंगल थे उसके अलावा हम फिर भी जंगल में जाते थे। रेंज क्वार्टर काफी बड़ा था। अक्सर हम वहां पर घोड़े, हाथी, ऊॅट और दूसरे जानवर आसपास थे और हम लोगों को बहुत सी चिन्तायें भी रहती और खुशी भी। मेरे विचार से ये 13 साल
जो मण्डला में ककैया और मचई में विशेष रूप से गुजरे हैं, उनका असर मेरी जिन्दगी पर समाया रहा है। धीरे-धीरे इस तरह प्रगति हुई, सृष्टि से झाड़ों से, पहाड़ो से प्रेम सा हुआ। एक अजीब सा जादू था इन जंगलों में। शाम को गोंड ट्राइब जाति के नाच-गाने होते थे।
उस समय तो ये बातें मन में नही आती थी, मगर, मेरा पूरा विश्वास है कि जिन्दगी के पहले 10-12 साल सारी जिन्दगी में समाये रहते है। और जब भी भारत आता हूॅ, इन गांवों में और शहरों में जाता हॅू तथा वहां की धरती को छूता हूॅ, दमोह ओर मण्डला में अपने बचपन को फिर से देखता हॅू।
मन्दिर बहुत ही सुन्दर हैं, नर्मदा के घाट बहुत सुन्दर है। लिंग-योनि की बहुत सी मूर्तियां भी हर जगह है। एक गोंड़ किला है, गोंड़ राजाओं का किला, जो मण्डला में है। दमोह में बहुत ही सुन्दर मन्दिर बटेरा तालाब के पास है। जब मैं जाता हॅू, पुराने मित्रों से, शिक्षकों से मिलता हॅू और विशेष रूप से मैं उन प्रायमरी शाला में गया, जहां बचपन में शिक्षा-दीक्षा मिला। मेरे भाग्य से मेरे शिक्षक बहुत ही उच्चकोटी के ब्राम्हण मार्गदर्शक थे। उनका योगदान में कभी नही भूंलुगा। इन्ही ने जीवन के पाठ मं लगन दी।
मेरा विचार है कि इन्ही की कृपा से इस सारे वातावरण से ही मेरा सारा जीवन बना है।
वह चाहते हैं कि उनका दम इसी देष में निकले और
उन्हें अपने वतन की मिट्टी में ही सुपुर्दे खाक किया जाए।
अपने देष की मिट्टी की सांेधी महक की खातिर ही रज़ा साहब,
विदेष में अपनी साठ साल लंबी रिहायष छोडकर स्वदेष लौटे
हैं। मैं नामी चित्रकार सैयद हैदर रज़ा से मुखातिब हूं। वह
इसी साल जनवरी में स्वदेश लौटे हैं और दिल्ली की आला
बस्ती सफदरजंग एन्क्लेव में रह रहे हैं। यह बात दीगर है कि षायद
ही उनके किसी पड़ोसी को उनकी षख्सियत की जानकारी है।
जिंदगी की षाम में स्वदेष वापसी के फैसले पर वह कहते हैं,
‘मैं भारत से गया कब था। मेरा षरीर जरूर पेरिस में था, पर आत्मा
हमेषा भारत में ही रही। मैं हमेशा भारत की बात करता रहा।
मेरे भीतर, मेरी संस्कृति, सभ्यता और दर्शन हिलोरें लेते थे।
मैं भारतीय दर्शन, साहित्य और पौराणिकता को अपने चित्रों
में उकेरता रहा। वह बडे फख़्र से बताते हैं- पिछले साठ बरस से
विदेश प्रवास के बावजूद मैंने भारतीय नागरिकता छोड़ी
नहीं थी। मेरा पासपोर्ट आज भी भारतीय है।
सैयद रज़ा भारत के उन चुनींदा चित्रकारों में से हैं
जिन्होंने अपने हुनर से कला के विराट अंतरराष्ट्रीय फलक पर अपना
विशिष्ट मुकाम बनाया और दुनिया भर में सद्यस्वतंत्र भारत की
कला तथा कलाकारों को नई और स्वतंत्र पहचान दिलाई।
मध्यप्रदेश में नर्मदा तट पर बसे आदिवासी-जंगल बहुल ज़िले
मंडला के बाबनिया नाम के निपट देहात में पैदा होकर उन्हें,
आज के जमाने में भी अनोखी समझी जाने वाली, चित्रकला जैसी
विधा अपनाने का ख्याल कैसे आया? इसके जवाब में रजा अपने बचपन
में लौट जाते हैं । बाबनिया में मैंने स्कूल जाना शुरू किया
था। बडा नटखट था मैं। एक पल सिचला न बैठता था। मेरे
गुरूजी थे बेनी प्रसाद स्थापक। वह मेरी शैतानियों पर लगाम
लगाने के लिए मुझे ड्राॅइंग में उलझा देते थे। शायद
मुझमें कला की बुनियाद ऐसे ही पड़ी होगी। मैं दमोह,
डिंडोरी, मंडला कई जगह रहा। दमोह में मेरे गुरू ने अब्बा
को मुझे आर्ट पढ़ने के लिए बाहर भेजने की सलाह दी।
उन्होंने साफ कहा कि बाकी विषयों में पढ़ना-लिखना इनके
बस की बात नहीं है। उन्हीं की सलाह पर मुझे नागपुर काॅलेज
आॅफ आर्ट भेजा गया। फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं
देखा। वहां से बाॅम्बे के जे जे स्कूल आॅफ आर्ट चला गया।
वहीं मेरी मुलाकात शुजा, हुसैन, आरा ,वडवडे से हुई। वह
दौर ही अलग था। आजादी का जज़्बा करवट ले रहा था। हमें
लगता कि था कि अंग्रेज हमें जो शिक्षा दे रहे थे, वह भारतीय
मूल्यों के अनुकूल नहीं है। काफी बहस-मुबाहिसे के बाद
हमने प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप बनाया जो कला में भारतीयता का
हामी था। पहले शुजा मैं और हुसैन शामिल हुए बाद में
और लोग भी आ मिले। डाक्टर होमी जहांगीर भाभा और
मुल्कराज आनंद हमारे संरक्षक थे। पर वह दौर ही अलग था। फिर
मैं फ्रांस सरकार की स्काॅलरशिप पर और आगे पढ़ने के लिए
विदेश चला गया। बाद में वहीं पढ़ाने लगा। मैं
केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, अमेरिका में भी विजिटिंग प्रोफेसर
था। इसी दरम्यान मेरा अपनी शिष्या जेकनी मेनोग्ंले से अनुराग
हुआ और 1959 में हमने शदी कर ली। वह बेहतरीन कलाकार
थीं। 2002 में उनका देहांत हो गया। हमारे कोई संतान
है नहीं।
रजा की खासियत है-बिंदु। उनकी सारी कला, सारी चित्रकारी
बिंदु के इर्द-गिर्द है। वह बताते हैं-पहले मैं लैंडस्केप
बनाता था। वहां बहुत सराहना होती थी मेरे चित्रों की। पर
मैं खुश नहीं था। मेरे भारतीय मन ने एक दिन मुझसे पूछा-
मैं क्या कर रहा हूं। अपने देश, अपनी जन्मभूमि से मैंने
दुनिया को क्या दिया? यह मंथन बरसों से चल रहा था। पर उस दिन
मुझे बेनी प्रसाद जी की याद आई। उन्हें कहीं जाना था।
मेरे नटखट स्वभाव से वे वाकिफ थे, सो ब्लैकबोर्ड पर
चाॅक से एक बिंदु बनाकर बोले मेरे लौटने तक इसे एकटक
देखना। मैं टकटकी लगाए देखता रहा। मुझे लगा, कितनी
व्यापकता है इस बिंदु में। इसका ‘औरा’ कितना बड़ा है और
बचपन की उस याद ने मुझे यह बिंदु दिया जो आज मेरी संपूर्ण कला
का केंद्र है। मेरे कृतित्व का सार है।
रज़ा साहब आज भी लगातार काम कर रहे हैं। हमारे चारों
ओर पेंटिंग ही पेंंिटंग हैं। कई पूरी तो कुछेक अधूरी।
वह कहते हैं, जब थक जाता हूं तो आराम करने लगता हूं। मेरे
चित्र एक नामी गैलरी के मालिक खरीद लेते हैं। उन्हें
पद्मभूषण, पद्मश्री और देश-विदेश के अनेक सम्मान मिल
चुके हैं। उनकी सौराष्ट्र नाम की पेंिटंग 2010 क्रिस्टी कीं
नीलामी के दौरान 16 करोड़, 45 लाख में बिकी थी । यह
किसी भारतीय की कला की अंतरराष्ट्रीय बाजार में सबसे ऊॅची कीमत
है।
प्रश्नः क्या व्यक्ति के जीवन की घटनाओं की झलक उसके
जीवन में दखाई देती है?
उत्तरः निःसंदेह। मेरे ख्याल से ये जो घटनायें हेैं, बहुत
ही महत्वपूर्ण हैं। यही परिस्थितियाँ हैं, जो महत्वपूर्ण
हैं। जंगल, इस सुन्दर जंगल, जो दमोह के हैं नरसिंहपुर के
हैं, कान्हाकिसली के हैं, मण्डला, डिण्डोरी। पिताजी आते
थे। अमरकंकट भी गये। हम लोग बच्चे थे। मैं वहां
नहीं जा सका, इसका मुझे क्षोभ है, मगर जो घटनायें
हुई, जो उस समय मेरा जीवन रहा है, जो शिक्षक और
मार्गदर्शक मिले, उसी से मेरा जीवन बना है।
प्रश्नः जीवन की कौन सी घटना का आपकी कला में विशिष्ट
योगदान है?
उत्तरः मेरे विचार से जो कुछ उस समय हुआ वो ैनइ.बवदेबपवने
या नद.बवदेबपवने प्रकार से असर हुआ है और जागृति से उसकी
समझ बाद में मिली। मुझे उस समय लगता था कि ये इमली और
आम के दरख्त, ये जानवर, ये शिकार, नदी, मोती नाला जहां पर
जाकर खेलते थे, पिताजी ने एक बगीचा भी बनाया था।
थोड़ी सी समझ और बहुत सा उत्साह और खुशियां अवश्य
थीं, मगर मुझे मालूम नहीं था कि ये च्वचनसंतपजल प्राकृति
पुरूष एक समय मेरे लिये इनता महत्वपूर्ण होगी, जीवन में ही
नहीं, मेरे चित्रों में भी।
प्रश्नः आप किसे अच्छा आर्टिस्ट मानते हैं?
उत्तरः आर्टिस्ट वही है जिसकी एक अपनी निजी दृष्टि हो। संसार
को जो देख सके एक निजी दृष्टि से मैं 2-3 उदाहरण दूँगा
जैसे कि अमृता शेरगिल या के0जी0 सुब्रामणियम, भूपेन्द्र
खक्कर, तैय्यव मेहता, मंजीत बाबा, और भी दूसरे हैं
जिन्होंने अपनी एक निजी दृष्टि पाई है। जो रूप को, संसार
को अपनी व्यक्तिगत दृष्टि से देखा करते हैं और उसी प्रकार
से चित्र बनाते हैं। ज्ीमतम पे ेचमतपजल व िबवदबमचज निगाह एक ही
होती है। और इस तक पहुँचना मेरे लिये बहुत ही
महत्वपूर्ण है। उन्हीं चित्रकारों को मैं चित्रकार कह
सकता हूँ। इस देश में जहाँ 90 करोड़ भारतीय हैं अगर
10-15 चित्रकार उस ऊँचाई पर पहुँच जाये तो ये हमारा भाग्य
है। और मुझे खुशी है कि उसके बाद नई सीढ़ी के
चित्रकार बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। और हर जगह
जहाँ भी मैं जाता हूँ उनसे मिलता हूँ उनके चित्र देखता
हूँ और मुझे खुशी होती है कि आजकल आधुनिक
भारतीय कला सचमुच में समृद्ध है। प्ज पे अपजंस पज पे ेपहदपपिबंदजए पज
बंद इम चतमेमदजमक ूपजी चतपकम पद ंदल उनेपनउ व िजीम ूवतसकण्
प्रश्नः मौजूदा परिदृश्य में कौन से ऐसे युवा चित्रकार हैं जो
आपकी कल्पनाओं में खरे उतरे हैं ?
उत्तरः मेरे विचार से बहुत से चित्रकार हमारे सामने आये हुये
हैं जो बहुत ही सुन्दर काम कर रहे हैं। मैं दो तीन
उदाहरण दूँगा अतुल डोडिया, बम्बई से हैं, सुजाता बजाज
जो पूना से आजकल नार्वे में हैं। मैं कहूँगा युसुफ,
अखलेश, भोपाल से हैं, हर बार जब मैं आता हूँ तो नये
चित्रकार मिलते हैं। जिनसे मैं बहुत प्रभावित होता हूँ
और खुशी से उनका काम देखता हूँ जैसे आजकल सीमा
धुरैया उनकी प्रदर्शनी उनकी चित्रों में लगता है जैसे
आत्मीयता है, एक अध्यात्मिक खोज है। जो भारतीय कला से
मिलती जुलती है। और ये ऐसा प्रसंग है जो मुझे
महत्वपूर्ण लगता है। दूसरे चित्रकार भी हैं। बड़ोदा,
मुम्बई, चैन्नई में भी चित्रकार काम कर रहे हैं, जो
आज केवल किसी पुराने भारतीय चित्रकार की नकल नहीं कर रहे
हैं या विदेशी चीज जो फैशन में आती है उनकी नकल
नहीं कर रहे। निजी अभिव्यक्ति उनके चित्रों से मिलती हैं,
मुझे बहुत खुशी है। जैसे मध्यप्रदेश कला परिषद में तीन
चार युवा चित्रकारों का काम देखकर भी यही अनुभव
हुआ। जिनके काम को मैंने कभी नहीं देखा वे लगते
हैं इतने सुंदर। मैं उन युवा चित्रकारों का नाम लेना
चाहता हूँ अर्चना मिश्र इतनी सुन्दर ट्रिपटिक थी। योगेन्द्र
जिनका काम मैं जानता था वो प्रगति कर रहे हैं। बहुत
खुशी हुई। भावना चैधरी युवा चित्रकार मेरे मित्र सुरेश
चैधरी की बेटी ने एक बहुत सुंदर चित्र बनाया और
प्रदर्शनी में था, जिसे देखकर सुख पाया। प्रमोद गायकवाड़
के दस चित्र मुझे बहुत पसंद आये ये भारत भवन में काम कर
रहे है। भारत भवन एक बहुत ही महत्वपूर्ण कला केन्द्र
बन गया है। मुझे खुशी हुई उसके बाद में भारत भवन
में आधुनिक चित्रकला का महत्वपूर्ण संग्रह पुनः मैंने
नई आंखों से देखा, और मैं हमेशा यही सोचता रहा
यदि ये प्रदर्शनी पेरिस में हो तो कैसी लगेगी। देखिए सच
बात तो ये है, मैं वहां से कुछ दूरी के कारण भी
तमहतमजमत चमतेमचजपवद यहां के के चित्रों को देख सकता हूं
और मैं सोंच सकता हूं अगर इस प्रकार की प्रदर्शनी वहां
हो तो क्या महत्वपूर्ण लगेगी। मुझे विश्वास है, कि हां,
अगर चित्रों का चित्रकारों का चुनाव किया जाये तो फ्रांस
में, अमेरिका में, लंदन में आधुनिक भारतीय चित्रकला
बहुत ही गर्व से बताई जा सकती है। बाद में मैं गया प्रिंट
ेमबजपवद वहां भी कई और चित्र देखे। सिरेमिक ेमबजपवद
में गया। भारत भवन में देश और विदेश से चित्रकार आ
रहे है, काम कर रहे है। फिर ट्रायबल एण्ड फोक आर्ट का
संग्रह देखा जो महत्वपूर्ण है। निकलने से पहले मैंने
मित्रों से कहा भारत भवन, भोपाल देश का प्रमुख कला
केन्द्र बन गया है।मुझे मालूम है कुछ कठिनाईयां है।
मुझे आशा है, ये कठिनाईयां दूर हो सकेंगी और
कार्यक्रम, जो योजना इस महत्वपूर्ण संस्था की हैं उनको
हम सब हमारी सरकार समझकर सहायता दें।
प्रश्नः वैसे तो बहुत से ऐव्सटेªकट आर्टिस्ट हैं, क्या
उनकी चित्रकारी में कोई भिन्नता या बहुत से एक दूसरे से
मिलते हुये चित्र हैं?
उत्तरः जो कलाकार मध्यप्रदेश में भोपाल में ऐव्सटेªकट
पेंटिंग कर रहे है। उनके काम मंे भिन्नता है। एक दूसरे
से बिल्कुल अलग है उनकी दृष्टि अलग ही अलग है उनकी
सेन्सीबिलिटि दूसरी है। और मुझे ऐसा लगता है, न तो उन
पर प्रभाव है, हमारी पीढ़ी के चित्रकारों का न विदेशी
चित्रकारों का या फ्रांसीसी, जर्मन या इंग्लिश, या अमेरिकन। वे
इतनी छोटी उम्र 30-45 वर्ष के बीच है। बहुत ही निजी
दृष्टि पा सके हैं। इसके बारे में कहता रहा हूं अपनी
अभिव्यक्ति में यहां निजी दृष्टि बहुत ही महत्वपूर्ण है।
जिसके बिना, कलाकार, कलाकार नहीं।
प्रश्नः क्या यूरोप में भी कोई आर्ट युद्ध की स्थिति है?
उत्तरः नहीं, फ्रांस एक बहुत स्वतंत्र देश है। जहां हर प्रकार के
एक्सपरिमेंट को स्वतंत्रता है कुछ इंटलेक्चुअल
डिक्टेटरशिपजरूर है। कुछ ऐसे ग्रुप जरूर है। समीक्षक, गैलरी
वाले और म्यूजियम के डारेक्टर मिलकर एक ईजम बना लेते
हैं। और कहते है, कि यही कला है आज की। मगर ये तो
होता ही रहता है। इसके साथ ही साथ दूसरे एक्सपरिमंेट
होते है। ये काम भी पे जीम ेंउम ीमंसजील बवउचमजपजपवद युद्ध
नहीं है झगड़ा नहीं है, ूपजी ूमेजवद पदजतमेज ूपजी
बवदअमबजपवद मेरे विचार से ये बातें यूरोप के संसार की है।
मुझे आशा है ये बातें देश में न आये और हम विदेश से
वही चीज लें जो हमारे संदर्भ में, हमारे देश के लिये
अच्छा हो।
प्रश्नः प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना के पीछे मूल
उद्देश्य क्या थे?
उत्तरः हम चाहते थे कि पूर्ण स्वतंत्रता से काम करें, जिस दिशा
में हम जाना चाहते हैं वहां जायें यह स्वतंत्रता अंधी
स्वतंत्रता नही थी कि हम कुछ भी करें। इसके पीछे बहुत
अध्ययन था विवेक था। बहुत सी बातचीत होती थी, मिलते
थे, काम करते थे और सबसे अच्छी चीज ये थी कि पूरी
स्वतंत्रता से हम काम करें। टेªडिशनल आर्ट का भी अध्ययन
कर रहे है, फ्रेंच, जर्मन एक्सप्रेशनिस्ट का भी और फ्रेंच
एम्परेशनिस्ट और पोस्ट एम्परेशनिस्ट का भी हम अध्ययन कर रहे
थे।
हमारे देश की कला को भी हम समझने की कोशिश कर
रहे थे और नये एक्सपरीमेन्टस जो होते थे उनमें
हर दिन कोई नई खोज होती थी। ज्ीमल ूमतम अमतल
मगेपकमक कंल बहुत सुन्दर दिन थे और एक किस्म का
चेप्टर हमारे लिये खुल रहा था जहंा हमें कुछ मालूम
था और कुछ मालूम न था और जो मालूम न था
उसकी खोज में और जो मालूम था उसके आधार पर
खड़े होकर हम ढ़ूंढ़ रहे थे उस नई दिशा में,
जिसके लिये स्वतंत्रता से काम करने की आवश्यकता थी।
प्रश्नः प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप बनाकर आप लोगों को कुछ
पाॅॅलीटिकल ऐडवांटेज मिले?
उत्तरः मैं पाॅलिटिकल एडवान्टेज चाहता ही नही था।
मैंने पाॅलिटिक्स में कभी हिस्सा नही लिया है। ये हुआ
कि हमारे मित्र फ्रांसिस न्यूटन सूजा जो बहुत ही विद्वान पढ़े
लिखे थे उन्होंने प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप
मेनिफेस्टो लिखा था और ये उस समय बहुत लेफटिस थे
और बहुत ही रेवूलेशनरी तरह के आदमी थे। उन्होंने
लिखा था कि हम कला को लोगों कि ओर ले जाना चाहते
है, मैं सच कहता हूं कि मैं सोच रहा था कि अपने को
समझू, कला तत्वों को समझूं और यही एक मेरी जिज्ञासा थी
कि मुझे मालूम हो कि जीवन क्या है? कला क्या है? विदेशी
का फ्रांसिसी विशेष रूप से यूरोपियन आर्ट और खास तौर से
हमारे देश को भारतीय कला में ढ़ूंढ़ रहा था, मुझे
कोई ऐतराज नहीं है, मैं खुश हूँ। अगर हम चित्र परेल की
फेक्ट्री में दे जायें कि जिस तरह से हमने किया, बड़ोदा ले
जायें या अहमदाबाद ले जायें जिस तरह हमने किया मुझे उसमें
कोई आपत्ति नही थी। मगर मेरी खोज अंदरूनी थी और
हम यही ढूं़ढ़ना चाहते थे कि जो चित्र यहां प्रदर्शित किए
जायें उनमें आवाम से बात हो या उनको समझाया जाये कि
मार्डन आर्ट अच्छी चीज है, कुछ लोग आस पास के उन
चित्रों को देख सकें, समझ सकें, मुझे सलाह दे जिससे कि मेरी
अपनी प्रगति हो सके।
प्रश्नः बम्बई के क्षेत्रीयवादी वातावरण से बचने के लिये आप
स्थाई रूप से बसने के लिये पेरिस चले गये, क्यों?
उत्तरः नहीं, मैं पेरिस इसलिये गया क्योंकि मुझे फ्रेन्च आर्ट
बहुत अच्छा और बहुत ही पाॅवरफुल लगता था और मैं
ओरिजनल पेन्टिंग चाहता था। यहां पर मुझे कोई दिक्कत
नही थी यहां का वातावरण मेरे लिये बहुत ही सुन्दर था
मेरे चित्र बिकने लगे थे। कोई दूसरी खोज नहीं करनी
थी। सिर्फ कला की। सच कहता हूं बम्बई का वातावरण उस
समय मेरे लिये बहुत ही फेवरेवल था मेरे चित्र बिक रहे थे
मैं सारे देश में मशहूर हो गया था। बम्बई में
गोल्डमेडल मिला, कलकत्ता में भी, नागपुर में भी,
दिल्ली में भी प्रदर्शनी हुई, ओर मुझे आर्थिक
परिस्थिति से छुटकारा मिला। मुझे यही चिंता थी। मगर मेरी
खोज अपनी निजी खोज थी। मैं चाहता था कि मैं फ्रैंच
आर्ट को देख सकूं। जिन चित्रों को मैं रिप्रोडेकशन
से देखता था बहुत थोड़े से रिप्रोडेकशन मिलते थे
उस समय और फिर मैंने कहा समूचे विश्व के महान कला
केन्द्र में रहकर मैं बहुत कुछ सीख सकूं और यहां दो
साल की छात्रवृत्ति थी फ्रांसिसी सरकार की ओर मुझे लगा दो
साल काफी नहीं है। मुझे ऐसा लगा मुझे और समय चाहिये,
काम करने के लिये, समझने के लिये दो तीन या चार साल काफी
नहीं, मुझे लग गये पच्चीस साल, पच्चीस साल तक कठोर श्रम किया
है। मानिए बहुत सी सफलता, बहुत सी असफलताएं, और
धीरे-धीरे जब भारतीय स्त्रों से सहयोग मिला वहां पर सीखी
हुई टेकनिक का ठीक से उपयोग कर सका तभी जाकर अस्सी
सनों में मैं मेरे विचारों-अपनी अभिव्यक्ति तक पहुंच
सका।
प्रश्नः एक संगीतकार ने लिखा है कि ब्रह्मा कि विधा और गवइए
का गान बुढ़ापे में आजमाने की चीज है। आपकी मौजूदा
पेन्टिंग देखने से ऐसा लगता है कि अदृश्य होते रंग शांत
और क्षीण लग रहे है। इस विषय पर क्या कहना चाहते है?
उत्तरः देखिए मेरे कार्य में मुझे अपने तक पहुंचने में बहुत
वक्त लगा, लेकिन मैंने जो कुछ भी किया है। सम्पूर्णतः
से पूरे विश्वास से हमेशा किया है। जो भी पिरेड मेरे हैं
जब रंगों की अखिलता, रंगों का शोक, रंगों का शोक,
रंगों का उपद्रव वो मुझे भाता था तो उस प्रकार के
चित्र धीरे-धीरे मुझे जो बाहरी लगे अलग कर दिया, और
मुझे जो जरूरी लगी उनको मैंने अपनाया आज मेरी उम्र, इस
समय में जो आज कर रहा हूं, वो एक शांति की ओर जा रहा
हूं मेरे विचार से जो चित्र बना रहा हूं मेरे विचार से जो
चित्र बना रहा हूं वे अधिकतर सफेद ही हैं। व्हाइट आॅफ
व्हाइट ग्रे में अगली प्रदर्शनी में एक चित्र बनाऊंगा जो
बिल्कुल काला हो, और आखिरी चित्र होगा जो बिल्कुल
सफेद होगा अंधकार से प्रकाश की ओर, ऐसी कुछ योजना
है। दूसरे चित्र में लिखना चाहूंगा ज्यों-ज्यों डूबत
श्याम में त्यों-त्यों उज्वल होए। नीचे काला
धीरे-धीरे सतह के बाद सतह सफेद तक उपर जहां एक ओर सफेद
बिन्दु। बाद में दूसरे चित्र होंगे जो इस पवित्रता को
केनवास पर ला सकें, अब ये योजनांए है। अभी फिलहाल
मैंने आठ या दस चित्र सफेद बनाये है। काला चित्र भी
अभी बनने वाली है। बचपन का गीत ‘‘ज्यों-ज्यों डूबत
श्याम मंे त्यों-त्यों उज्जवल होए’’ मुझे डूबना है
श्याम में, काले रंग में सफेद रंग की ओर जाने के लिये,
अंधकार से प्रकाश की ओर।
प्रश्नः ऐव्सटेªकट आर्टिस्ट का भविष्य आप कैसा देखते है?
उत्तरः भविष्य के पहले मैं अभी वर्तमान में जो कुछ हो
रहा है वो देखना चाहता हूं। अगर हम अपनी अभिव्यक्ति
को संपूर्णतः से पा सकें तो भविष्य में सम्हालेंगे अपने
को। मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। केवल मुझे चिंता है
हम अपने अपने काम को उसकी-सतह तक ले जायें, जब हम बिल्कुल
थक जायें और हमें ऐसा लगे इसके आगे हम नहीं जा सकते
ये बात ऐसी है, जो कि मुझे महत्वपूर्ण लगती है। कभी
कभी एक प्रकार की सेल्फ कम्प्रेसेसी आ जाती है चित्रकारों
में, लेखकों में क्योंकि यहां इतनी जटिल प्रतिस्पर्धा
नहीं है, जो कि विदेशों में है। पेरिस में या फ्रांस में
समूचे विश्व से चित्रकार आते है। और हमें बहुत ही
उच्चकोटि का काम दिखाना पड़ता है। उसके बिना यहां
कोई सफल नहीं हो सकेगा। मेरे ख्याल से फ्रांस, भारत
कहीं भी हो हमें केवल यही चाहिए कि हम उस सीमा पर
पहुंच सकें जिसके आगे हम न जा सकेंगे, और अपने को पूरी
तरह से अपनी पूरी शक्तियों की जिस दिशा में हम काम करना
चाहता है। उस ओर अपने काम को बढ़ाना चाहिये।