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योगेन्द्र दत्त शर्मा जी के नवगीत : व्यष्टि से समष्टि की यात्रा

व्यष्टि से समष्टि की यात्रा
व्यष्टि से समष्टि की यात्रा
योगेन्द्र दत्त शर्मा जी के नवगीत व्यष्टि से समष्टि की यात्रा तय करते हैं , समृद्ध शब्द सम्पदा , गहन चिन्तन व वैचारिक परिपक्वता से उपजे आपके नवगीत समकाल की संगति-विसंगति की अन्वेषणोपरांत संतुलित व शालीन अभिव्यक्ति हैं । सुगठित शिल्प सौन्दर्य व छंद विविधता उनकी रचनात्मक सजगता का परिचायक है ।
 
स्त्री पक्षधरता पर उनकी संवेदनशील अभिव्यक्ति, सजा भोगते देख रहे हम  , बिकी हुई हर ओर गवाही की त्रासद अभिव्यक्ति हो , खैरख़्वाहों की शर्तें हों , सफलताओं की नसैनी पर चढ़े राजा जी की अपने अंदाज़ में लानत -मलानत हो , लोगों की फाकामस्ती में घुला जहर , अंतरंगता की चौखट से नेह छोह के उठे जनाजे याकि कीले हुए बोध , पंक्ति-दर-पंक्ति , शब्द-दर-शब्द आपकी संवेदना और जनसरोकारी दृष्टि के आख्यान हैं । आप स्वयं भी उतने ही गम्भीर हैं , जितनी कि आपकी क़लम ।
 
हालांकि कहा जाता है कि बात रचना पर हो न कि व्यक्ति पर ! किन्तु कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जिनकी व्यवहार गत विशेषता ख़ुद-ब ख़ुद शब्दों में जाहिर हो ही जाती है । आपके गीतों पर चंद शब्दों में अदबदाकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता ! आपके गीत सहूलियत और गम्भीरता से पढ़े ,और उनमें शिल्प ,कथ्य का अंतर्संबंध सीखे जाने योग्य है।
 
(१)
बोलने दो
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‌जिन्दगी-भर चुप रही है
‌यातना इसने सही है
‌है बहुत असहाय, इसको 
बोलने दो !
‌यह रही बंदी अंधेरों में
‌नहीं इसने कभी आकाश देखा
‌टीस है मन में बहुत इसके
‌किया इसने नहीं कोई परेखा
‌     ‌बंद थे इसके अधर जो
     ‌पिया इसने हर ज़हर जो
     ‌आज तो खुलकर इसे मुंह 
     खोलने दो !
‌यह चिरैया पींजरे में कैद होकर
‌रह गई थी मारकर मन
‌छटपटाती रही अब तक पर समेटे
‌त्रस्त, व्याकुल, क्षुब्ध, उन्मन
‌     ‌कैद से पाकर रिहाई
     ‌यह नहीं फूली समाई
     ‌हवा में कुछ पल इसे पर 
     तोलने दो !
‌कुछ अनर्गल भी कहे, तो कुछ न कहना
‌चूक इसकी माफ करना
‌सज़ा ही सब कुछ नहीं है
‌है कहीं ज्यादा अहम इंसाफ करना
‌     ‌है बहुत मासूम चिड़िया
     ‌जली है निर्धूम चिड़िया
     ‌अब इसे उन्मुक्त यों ही 
     डोलने दो !
‌                    ‌इसे अपनी जिन्दगी में
                    ‌सद्य आगत ताजगी में
                    ‌मुक्ति का, आह्लाद का रस 
                    घोलने दो !
 
                                                   ■ योगेन्द्र दत्त शर्मा
(२)
 
सजा भोगते 
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उतर रही है रात शहर में
फैल रही हर ओर सियाही
तारकोल की सख्त सड़क पर
गश्त लगाता एक सिपाही !
 
घर के अन्दर दहशत फैली
घर के बाहर सन्नाटा है
सुन्न गली, गुमसुम चौराहे
जैसे- नागिन ने काटा है
 
अफवाहों का जाल बिछा है
सुनने की है सख्त मनाही !
 
बाहर का सन्नाटा घायल
भारी बूटों की ठकठक से
भीतर की ख़ामोशी सहमी
लगातार होती दस्तक से
 
सिहर रहे हैं खाली बर्तन
काँप रही है भरी सुराही !
 
झपटमार मौसम की उँगली
थाम चल रहीं डरी हवाएँ
बाँच रही हैं मन-ही-मन में
तथागतों की करुण कथाएँ
 
देवदत्त घायल हंसों से
प्राणों की कर रहे उगाही !
 
दीवारों के होंठ सिले हैं
दरवाजों के मुँह पर ताला
गूँगे-बहरे हैं वातायन
खिड़की पर मकड़ी का जाला 
 
सजा भोगते देख रहे हम
बिकी हुई हर एक गवाही !
            
 
(३)
जनसाधारण 
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राजा जी बस मुग्ध-मगन हैं
विरुद-गान गाते  हैं  चारण
बंदीजन को चकित भाव से
देख रहा है जनसाधारण !
 
राजा  जी  ने  बुना हुआ है
अजब अनोखा ताना-बाना 
टिका रखीं हैं कहीं निगाहें
साध रहे हैं कहीं निशाना
गर्वोन्नत -से  किए  हुए  हैं -
बस तेजस्वी मुद्रा धारण !
 
गजब ठाठ हैं  राजा जी  के
तिलक भाल का बने हुए हैं
चरण-धूलि मानकर प्रजा को
स्वयं  गर्व   से  तने  हुए  हैं
इस चमकीले ताम-झाम पर 
रीझ रहे हैं भक्त अकारण !
 
राजा जी में दिव्य शक्ति है
चमत्कार  पर  बल देते  हैं
पलक झपकते हर घटनाक्रम
हर  इतिहास  बदल  देते हैं
गढ़ीं  उन्होंने  नई  सूक्तियाँ -
करते उनका नित्य प्रसारण !
 
जन-गण-मन में त्राहि-त्राहि है
बढ़ती   जाती   है   बेचैनी
मगर सफलताओं की हर पल
राजा  जी  चढ़  रहे  नसैनी 
प्रजा  प्रतीक्षा  में  बैठी  है -
कौन करेगा कष्ट निवारण ?
 
(४)
 
निर्मम सवालों में 
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जिन्दगी गुजरी
अजब
निर्मम सवालों में 
खट गई थाने
कचहरी,
अस्पतालों में !
 
एक ऋण को
दूसरे ऋण से चुकाने में
ठीकरों से पेट की
ज्वाला बुझाने में
घिर गये शतरंज की
बेदर्द चालों में !
 
रीढ़, गर्दन, पीठ
झुककर हो गये दुहरे
हर जगह माथा टिकाते
धँस गये गहरे
हम धुँधलका पी रहे
अंधे उजालों में !
 
गुत्थियाँ सुलझा रहा
कमजोर, कातर मन 
तोड़ने पर है उतारू
हर नई उलझन
उँगलियाँ चटकीं
हथेली बंद जालों में !
 
देह पूरी जूझते
पिसते बनी ठठरी
कौन जाने, कब खुलेगी
प्राण की गठरी
रह गए फँसकर
इन्हीं बेढब खयालों में !
 
(५)
 
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आँख का पानी हुआ नीला 
         कुएँ गहरे हुए !
 
जिन्दगी नीरस कहानी
                   रेत की 
मेंड़ हो जैसे उजड़ते 
                 खेत की
       रंग नस-नस का हुआ पीला
               थके चेहरे हुए !
 
 भीड़ से सम्बन्ध
   कटता जा रहा
परिचयों का वृत्त
   घटता जा रहा
           समय ने हर बोध को कीला
                     सभी बहरे हुए !
 
जूझते तन पर - कटे
             पाखी बने
पाँव टूटे पर न
         बैसाखी बने
               साँस का बंधन हुआ ढीला
                        कड़े पहरे हुए !
 
(६)
 
आ पहुंचे हम, चंदामामा !
 
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देखो, तुमसे हाथ मिलाने
आ पहुंचे हम, चंदामामा !
यह मत पूछो, उड़कर आये
या फिर चलते हुए खरामा !
 
अब तो पक्की यारी होगी
आन-बान की और शान की
मिल-जुलकर हम सैर करेंगे 
दूर-दूर तक आसमान की
          तुम भी थामो हाथ हमारा
          हमने हाथ तुम्हारा थामा !
          तुम भी राजी, हम भी राजी
          स्वीकारो यह राजीनामा !
 
हमें यहां पर देख, हो रही
तुमको क्यों इतनी हैरानी
चरखा कात रही थी जो कल
कहां गई वह बूढ़ी नानी
          चलो, उसी नानी से कहकर
          सिलवा लो कुर्ता-पाजामा !
          बात मान लो तुरत हमारी
          और अधिक अब करो न ड्रामा !
 
तुम तो आये नहीं वहां पर
हमने सोचा, हम ही जायें
धरती मैया का संदेसा
तुम्हें यहां आकर पहुंचायें
          हिल-मिलकर सब जश्न मनायें
          खूब बजायें ढोल-दमामा !
          धूम मचायेंगे मिल-जुलकर
          अब खुलकर होगा हंगामा !
 
                                                     ■ योगेन्द्र दत्त शर्मा 
                              
 
परिचय -
 
योगेन्द्र दत्त शर्मा
जन्म तिथि : 30 अगस्त, 1950 ई०।
शिक्षा : एम.एस-सी [गणित]
एम.ए.[हिन्दी] पी.एच-डी.। 
 
प्रकाशित कृतियांँ : नवगीत संग्रह- 'खुशबुओं के दंश' 'परछाइयों के पुल' 'दिवस की फुनगियों पर थरथराहट' 'पीली धुंध नीली बस्तियों पर' 'बच रहेंगे शब्द' 'छुआ मैंने आग को' 'खोजता हूंँ सदानीरा' 'यह सन्नाटा बोल रहा है' 'भीतर का हंसा गवाह है'।
 
 ग़ज़ल संग्रह- 'नाकाब का मौसम' 'यह तेरा किरदार था'। कहानी संग्रह- 'विसंवाद' 'पर्दा-बेपर्दा' चोंट'। उपन्यास- 'कालिन्दी से हरनंदी तक' 'पर्दे के आर-पार' 'फासले के हमसफर'। बाल साहित्य- 'आये दिन छुट्टी के' 'कैसा आये मजा' [बाल कविताएंँ] 'रेगिस्तान में खरगोश' [उपन्यास] प्रबंध काव्य- 'गवाक्ष' काव्य नाटक- 'समय मंच'। दोहा संग्रह- 'नीलकंठ बोला कहीं'। 
 
'नवगीत दशक- 3' 'नवगीत अर्द्धशती' 'यात्रा में साथ-साथ' 'हरियर धान रुपहरे चावल' जैसे महत्वपूर्ण नवगीत संकलनों में नवगीत। 'दोहा सप्तशती'-2, दोहे में तथा बीसवीं सदी की श्रेष्ठ कहानियांँ में कहानी संकलित।
 
सम्पादित कृतियांँ- 'गीत सिंदूरी : गंध कपूरी' [दो खण्ड] हिन्दी साहित्य के कीर्तिस्तंभ तथा 1957 की जनक्रांति विविध आयाम। अनेक वर्षों तक साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका 'आजकल' से जुड़े रहने के बाद लगभग 4 वर्षों तक स्वतंत्र रूप से संपादन। सम्पति स्वतंत्र लेखन।
                                ••
 
 सम्पर्क सूत्र : 'कवि कुटीर' के.बी.-153, प्रथम तल,
कवि नगर, गाजियाबाद- 201 002 [उत्तर प्रदेश]
मोबाइल : +91 93119 53571/9311953572

 


Published: 31-08-2023

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