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प्रगतिशील लेखक संघ का 18वां राष्ट्रीय सम्मेलन : प्रलेस का घोषणा पत्र

प्रलेस का घोषणा पत्र
प्रलेस का घोषणा पत्र
आज से 43 वर्ष पूर्व 1980 में इसी जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल, हम समस्त भारतीय भाषाओं के लेखकों ने प्रगतिशील लेखन आंदोलन की गौरवशाली परम्परा और विरासत के प्रहरी के रूप में, स्वाधीन भारत में जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी आदर्शों की रक्षा के लिए स्वयं को संकल्पित किया था। आज जब हम फिर प्रगतिशील लेखक संघ के इस अठारहवें राष्ट्रीय सम्मेलन में एक साथ हैं, तब स्वाधीनता आंदोलन द्वारा संजोये गये संविधान संरक्षित समता, समानता और धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के मूल्यों को बचाने की नयी चुनौती दरपेश है। 
  भारतीय जनतंत्र आज अस्तित्व के जिस संकट से रुबरू है, ऐसा पहले कभी नहीं था।
 
हम देख सकते हैं कि इस सदी में, ख़ासकर पिछले एक दशक से तर्कशीलता, बहुलतावाद, वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशील जीवन दृष्टि को नष्ट करते हुए अतीतोन्मुखी, प्रतिगामी, बहुसंख्यकवादी, अंधविश्वासी और पुनरुत्थानवादी विचारों को सांस्थानिक रूप से स्थापित और महिमामंडित किया जा रहा है। धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र को बहुसंख्यवादी धर्मतंत्र में बदलने के संकेत स्पष्ट हैं। स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं को विरूपित और नष्ट किया जा रहा है।
 
सामाजिकी शोध संस्थाओं, उच्च शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि में ज्ञानार्जन व स्वतंत्र बौद्धिक संवाद का वातावरण प्रदूषित कर उन्हें संकीर्ण, एकल प्रभुत्ववादी सोच में ढाला जा रहा है। भारतीय समाज की बहुभाषी, बहुलतावादी व समावेशी सांस्कृतिक सम्पदा की अनदेखी कर उसे एकांगी बनाया जा रहा है। बुद्ध, बासवन्ना और कबीर की परंपरा को मिटाया जा रहा है। गाँधी, नेहरू व आम्बेडकर सरीखे राष्ट्रनायकों की छवि को संदर्भच्युत कर धूमिल किया जा रहा है। 
     
गंभीर चिंता का विषय यह भी है हिंदुत्ववादी राजनीति का पूँजीवादी सांस्थानिक और निगमीय शक्तियों से सीधा गठबंधन स्पष्ट  है। इस ‘क्रोनी पूंजीवाद’ से उस नये सर्वसत्तावाद का अवतरण हो गया है जो फासीवाद का देशज रूप है, लेकिन इसका मूल उत्‍स और विभाजनकारी कार्यप्रणाली हिटलरकालीन नाजीवाद से प्रेरित है। लोकतांत्रिक संरचनाओं पर सीधा संकट पैदा हो चुका है।
 
अभिव्यक्ति और प्रतिरोध की आज़ादी अवरुद्ध करने के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। इस दौर में कई बुद्धिजीवी, लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी बंदी बनाए गए हैं। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पान्सारे, एम.एम. कल्बुर्गी और गौरी लंकेश को तो  शहादत ही देनी पड़ी है। एमनेस्टी इंटरनेशनल व अन्य मानवाधिकारवादी संस्थाओं पर जाँच के नाम पर आक्रमण किए गए हैं और उन्हें  विवश किया गया कि वे अपना सामाजिक कार्य बंद ही कर दें।
     
नब्बे के दशक में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्विक पूँजीवाद द्वारा संचालित आर्थिक नीतियों ने विषमता और विपन्नता की जो राह बनायी थी, वह आज निर्मम परिणति प्राप्त कर चुकी है। रोजगार व जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में देश की अस्सी करोड़ से अधिक जनता न्यूनतम जीवनयापन सुविधाओं के लिए संघर्षरत है। शिक्षा एवं चिकित्सा संबंधी दायित्वों से राज्य ने अपना पल्ला झाड़ लिया है। 
 
मध्यवर्ग पर भी अनावश्यक और अत्याधिक करारोपण व पेंशन सुविधाओं से वंचितवर्ग परेशानहाल है। बेरोजगारी अपने चरम पर है, आर्थिक असमानता की खाई और गहरी हुई है। वर्तमान पीढ़ी का भविष्य  भी संकट में है। संविधान द्वारा संकल्पित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का परित्याग कर समूचे देश को एक ‘व्यावसायिक परियोजना’ में तब्दील किया जा रहा है।
 
न्यायिक व चुनाव आयोग सरीखी अन्य संवैधानिक संस्थाओं को निशाने पर लेकर, उन्हें  कमज़ोर किया जा रहा है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े हिस्से को निष्प्रभावी और पालतू बनाया जा चुका है। सोशल मीडिया भी अब कड़े नियंत्रण में है। ‘बिग ब्रदर’ की निगहबानी अब तेज़ है। साम्राज्यवादी विश्वव्यवस्था का अनुगमन कर वैकल्पिक तथा स्वतंत्र नीतियों वाले राज्य की भूमिका का परित्याग कर दिया गया है।
 
इन सब मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिये गोरक्षा, लव-जेहाद, हिजाब, गंगा, गीता सरीखे भावनात्मक मुद्दों को उछाला जा रहा है। समाज को धर्म, जाति या निजी विश्वाासों के आधार पर विभक्त करने के सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं, जिस पर सत्ता‍ की तरफ़ से कोई अंकुश तो दूर, प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन ही नज़र आता है। असहमति और प्रतिरोध की आवाजों को ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’, ‘अवार्ड वापसी गैंग’ सरीखे नकारात्मक पदों से लांछित करते हुए, उनके बारे में तमाम झूठ फैलाए जा रहे हैं।
 
स्वीकार करना होगा कि अब हिंदू पुनरुत्थानवाद एक  कार्यसूची (एजेण्डा) की तरह सत्तापोषित केंद्रीय विचारधारा के रूप में सर्वोपरि है। संसद में पुरोहितों द्वारा धार्मिक प्रतीक सेंगोल की स्थापना, फिर अयोध्या में मंदिर के शिलान्यास में देश की कार्यपालिका के मुखिया की कर्मकांडी भागीदारी इसकी मुखर घोषणा है। देश-विभाजन की त्रासदी को ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ के रूप में उत्सवीकृत कर देश के जनमानस को विभाजन हेतु स्थायी मनोदशा में ढाला जा रहा है।
 
चमत्कारी बाबाओं द्वारा जनमानस को प्रदूषित कर उन्मादी बनाया जा रहा है और शासन-प्रशासन का उन्हें समर्थन प्राप्त है। मणिपुर, मेवात से लेकर उत्तराखंड व देश के दूसरे हिस्सों तक में विभाजन व अलगाव की नयी इबारत लिखी जा रही है। शहरों के नाम बदल कर मिलीजुली पहचान मिटाई जा रही है।
 
अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को लव-जेहाद, गोहत्या व जबरन धर्म-परिवर्तन का दोषी करार देकर उनकी शत्रुछवि गढ़ी जा रही है। ‘उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या’ (लिंचिंग) एवं ‘बुलडोज़र से न्याय’, अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न व दमन के सत्ता संरक्षित नये हथियार हैं। महिलाओं, दलितों या किसानों पर अत्यााचार के विरुद्ध अथवा उनके अधिकारों के पक्ष में उठाई जा रही आवाज़ों की अनदेखी की जाती है और उन्हें कुचला जाता है। राजनीति में बाहुबलियों को संरक्षण है। जो भी समाज के ध्रुवीकरण या समाज को बाँटनेवाले बयान देते हैं, उनके ऊपर न्यायालयों के निर्देशों के बावजूद  समुचित कार्रवाई न करके  उन्हें बचाया जा रहा है।
 
बहुसंख्यकवाद की गर्वीली श्रेष्ठता की मनुवादी वैचारिकी के अनुरूप स्त्रियों, आदिवासियों व दलितों पर अत्याचार और भेदभाव का बढ़ना इसकी स्वाभाविक परिणति है। ऊना, हाथरस से लेकर भीमा कोरेगांव तक यह इबारत पढी जा सकती है। आदिवासियों को उनकी मूल सांस्कृतिक चेतना से उन्मूलित कर जल, जंगल-जमीन की अबाध लूट जारी है, जिसके लाभार्थी अंतत: कार्पोरेट पूँजीपति हो रहे हैं जिनका दक्षिणपंथी राजनीति से गहरा गठजोड़ है।  
   
वैचारिक असहमति को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया गया है। तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम, गुजराती व संथाली(अंग्रेजी) भाषा के पेरुमल मुरुगन, कांचा इल्लय्या, के.एस.भगवान, एस.हरीश, पारुल खक्कर व हंसदा सोवेंद्र शेखर जैसे रचनाकारों की कृतियों पर बंदिश लगाने के लिए सड़कों पर प्रदर्शनों से लेकर अदालतों तक का सहारा इस दौर में लिया गया है।
 
ये सारी स्थितियाँ हम लेखकों को आक्रोशित और विचलित करनेवाली हैं। इतिहास और पाठ्यक्रम के पुनर्लेखन व पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया जारी है। अकबर व टीपू सुल्तान सरीखे इतिहास नायकों को बहिष्कृत कर हिंदुत्ववादी नायकों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है। इसकी अनिवार्य परिणति के फलस्वरूप भारतीय सामाजिक संरचना की विविधता, बुनावट की समझ नष्ट होगी और नयी पीढ़ी समावेशी और बहुलतावादी इतिहास की सच्ची जानकारी से वंचित होकर एकांगी, अधूरी और ग़लत दिशा में जाने के लिए अभिशप्त होगी । एनसीईआरटी की पुस्तकों में आमूलचूल परिवर्तन इसका प्रमाण है।
 
नयी शिक्षा नीति इन परिवर्तनों की दिशासूचक है। हम समझते हैं कि ये सारी स्थितियाँ किसी भी आधुनिक देश, समाज के  विकास हेतु सबसे बड़ा अवरोध और ख़तरा हैं।
   
विगत लगभग एक दशक में उपरोक्त परिदृश्य के हम अपनी प्रतिरोधी चेतना के साथ साक्षी रहे हैं। समय-समय पर हमने लेखक संगठनों के साझा मंचों से भी अपने प्रतिरोध को दर्ज़ किया है। किसान आंदोलन, नागरिकता रजिस्टर संबंधी विधिक प्रस्तावों के विरोध, महिला पहलवानों की मुहिम व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, प्रखर पत्रकारिता और बुद्धिजीवियों की आवाज़ों के पक्ष में हमारी भूमिका समर्थन तथा एकजुटता की रही है।
 
वर्तमान चुनौतियों के संदर्भ में व्यापक जनसंघर्षों के साथ अधिक प्रभावी भागेदारी सुनिश्चित करते हुए संवैधानिक   जनतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा आज हमारा पहला दायित्व है।  इसके लिए लेखक संगठनों का संयुक्त मोर्चा बनाने की जरूरत भी हमारे समक्ष है।
 
 इस संदर्भ में हमें यहाँ प्रेमचंद  याद आते हैं, जिन्होंने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ स्थापना सम्मेलन के अध्यक्ष पद से आह्वान किया था कि  “साहित्य वही है जिसमें जीवन की सचाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गईं हों। जिसमें जीवन की आलोचना हो। दलित, पीड़ित, वंचित- चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना साहित्य का कर्तव्य  है।
 
कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौला जाना चाहिए। हमें सुंदरता की कसौटी बदलना होगी। सौंदर्य की व्यापक परिधि में सारी सृष्टि हो, जो सुरुचि, आत्मसम्मान और मनुष्यता की विरोधी न हो।  समाज के साथ ही साहित्यकार का अस्तित्व  है, समाज से अलग होकर उसका मूल्य  शून्य हो जाता है। हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते।
 
हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च  चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा  हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु  का लक्षण है।“  प्रेमचंद के ये उद्गार आज भी प्रासंगिक व दिशासूचक  हैं और चुनौतीपूर्ण समय में  प्रेरणास्पद हैं। हम इस गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत के दावेदार के रूप में सामूहिक रूप से संकल्पबद्ध हैं। 
                        

Published: 27-08-2023

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