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अनैतिक गठबन्धन : राष्ट्र के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा

राष्ट्र के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा राष्ट्र के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा

वैदिक काल में ही लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास भारतवर्ष में हो चुका था । कालान्तर में कालचक्र का ऐसा भी कालखण्ड आया जिसमें भारतवर्ष विदेशी आक्रमणकारी, हमलावर, लुटेरे, धनअपहर्ता मुगलों और अंग्रेजों का दास, अनुचर, गुलाम हुआ ।

आक्रान्ता मुगलों और अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण शोषण, अन्याय और अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए देश के महान सपूत स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के कठिन परिश्रम, अनंत संघर्ष, अखंड पुरूषार्थ, त्याग, तपस्या और बलिदान के द्वारा हमें आजादी मिली है ।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के तपस्या और बलिदान से स्वतंत्र भारत. ना है । आजादी प्राप्त होने के पश्चात देश में लोकतंत्र की स्थापना हुयी है । नई दिल्ली भारत की राष्ट्रीय राजधानी है। व्यवस्थित क्रियाविधान एवं निश्चित सिद्धांत के अनुसार ( According to a Established Rule of Action, System Of Work and Principle) शासन किये जाने का विधान है।

लोकतंत्र के तीन स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका हैं अर्थात् संसद, सरकार, अदालत तीन घोड़ों द्वारा राष्ट्र का संचालन किया जाता है । स्वतंत्र भारत में राष्ट्राध्यक्ष राष्ट्रपति केन्द्रसरकार और राज्यपाल राज्यसरकार के सर्वोच्च संवैधानिक कार्यपालिक प्रमुख तथा प्रधानमंत्री राष्ट्र के एवं मुख्यमंत्री राज्य के शासनाध्यक्ष होते हैं ।

संविधान, स्थापित विधि व्यवस्था, नियम-कानून और नीतियाँ सत्ताधीश शासक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को स्वच्छ, निष्पक्ष, न्यायपूर्वक शासन करने का व्यापक अधिकार देता है । प्रजा की रक्षा, रंजन, न्याय, सुख, समृद्धि शासन का कर्तव्य है । राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, नौकरशाह से लेकर भृत्य तक का वेतन तय है ।

करदाता नागरिकों द्वारा कर के रूप में अक्षय राजकोष में जमा धन से उन्हें आकर्षक वेतन, भत्ता, पर्याप्त सरकारी संसाधन और जीवन पर्यन्त पेन्शन की सुविधा मिलती है, वे प्रजा के वेतन भोगी राजसेवक से बढ़कर कुछ नहीं होते हैं । राष्ट्र अर्थ से चलता है, सारे काम धन के अधीन है, अर्थतंत्र ही राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था संचालन का केन्द्र बिन्दु है ।

बिना कर के न राजकोष होगा और न राज्य होगा । सरकार, संसद, लोक सभा, और विधान सभाओं का प्रमुख कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व नागरिकों के सार्वजनिक हित में विधायी बहस से पारित विधि विधान का निर्माण, कानूनों में संशोधन और सदियों से कायम अनावश्यक कानूनों को समाप्त करना है । मुगलों और अंग्रेजों की तरह आजादी के 75 वर्ष बाद भी राजनेताओं, नौकरशाहों निरंकुश सरकारी तंत्र और पूंजीपतियों द्वारा नागरिकों का क्रूरतापूर्ण शोषण और धन अपहरण आज भी निरंतर जारी है ।

महाशूरवीर स्वतंत्रता संग्राम योद्धाओं में कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं किया होगा कि आजादी मिलने के बाद वतन के आजादी की लड़ाई में अपनी जान गवाने वाले शहीद शूरवीरों के बलिदान को विस्मृत कर राजनेता आक्रान्ताओं की भांति लोक कल्याण के बजाए स्वहित एवं परिवारहित सर्वोपरि मानेंगे और प्रजा का शोषण, अधिकार हनन अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी खजाने में जमा धन और जमा होने वाले धन का तरह-तरह से कुटिलतापूर्वक अपहरण व हड़पने की छद्मराजनीति और लोकतंत्र की हत्या करेंगे ।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल ही शोषण मुक्त और भ्रष्टाचार मुक्त समाज का विकास कर सकते हैं । प्रजातंत्र का चीरहरण करने वाले शासनाध्यक्षों, सत्ताधीशों, राजनेताओं, नौकरशाहों और पूंजीपतियों को उनका हक व अधिकार मिल गया है, फिर भी उनके अधिकारों के रक्षा की चर्चा लोकसभा एवं सर्वोच्च न्यायालय में होती रहती है, परन्तु सामान्य नागरिक आज तक अपने अधिकारों से वंचित और संघर्षरत है उनके अधिकारों के हनन और रक्षा की चर्चा तक नहीं होती है ।

राष्ट्र के कर्णधारों और राजपुरूषों द्वारा भारतीय दण्ड विधान संहिता, अपराध प्रक्रिया संहिता और सिविल प्रक्रिया संहिता प्रजा की रक्षा के लिए वर्तमान परिस्थितियों और अपराध के हिसाब से सजा, जेल, अर्थदण्ड सम्बन्धी न्याय और दण्ड विधान का निर्माण, न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार, भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं भारतीय पुलिस सेवा सुधार का प्रयास आज तक नहीं किया गया है।

ब्रिटिश शासन काल में लार्ड मैकाले द्वारा आई.पी.सी. एवं सीआर.पी.सी. आपराधिक न्याय मामले में बनाये गये कानूनी प्रक्रिया अनुसार आज भी शासन, प्रशासन और न्याय प्रणाली का संचालन किया जा रहा है। प्रायः मुगलकाल और ब्रिटिशकाल के तानाशाही शासन प्रणाली का उदाहरण और दृष्टान्त दिया जाता है, जबकि आक्रान्ता कभी प्रजापालक नहीं हो सकता है । गुलामी की विशिष्ट पहचान को अभी तक यथावत रखकर नागरिको की प्रतिष्ठा एवं गरिमा का दर्प दमन किया जाता है ।

सही दण्ड विधान नहीं होगा तो प्रजा नष्ट हो जाएगी । बीसवीं सदी में राजनेता लोकहित और राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझते थे, इक्कीसवीं सदी के राजनेता स्वहित एवं परिवार हित सर्वोपरि मानते हैं ।

राजनेता नौकरशाह, प्रभावशाली पूंजीपतियों और ताकतवर अपराधियों का दुर्भाग्यपूर्ण अनैतिक गठबन्धन राष्ट्र के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा है। राज सेवा का मुख्य आधार योग्यता एवं गुणवत्ता है । प्रतिभा सम्पन्न योग्य मंत्रियों और सचिवों से परामर्श न लेकर भ्रष्ट, चापलूस और डर-भय से हाँ में हाँ मिलाने वाले, जी हाँ जी हाँ कहने वाले मंत्रियों और नौकरशाहों से घिरा रहने वाला शासनाध्यक्ष राजधर्म, न्याय, सत्य, नीति विरूद्ध प्रजा का शोषण और धन अपहरण करने वाला प्रजाहित और राष्ट्रहित नाशक अयोग्य शासक स्वयं शीघ्र जड़मूल से नष्ट हो जाता है।

ईश्वर की भाँति भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है । कई दशकों से प्रशासन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है । भ्रष्टाचार एक लाइलाज बीमारी का रूप धारण कर लिया है । भ्रष्टाचार समाज को दीमक की तरह खा रहा है । घूसखोरों और भ्रष्टाचारियों की कोई विशिष्ट पहचान नहीं है, कौन सच्चा, कौन झूठा, हर चेहरें पर नकाब है । अपनी योग्यता, पात्रता, क्षमता, काबलियत ज्यादा अधिकार प्राप्त दौलत के भूखे स्वच्छंद सरकारी तंत्र ने हर काम की कीमत तय कर दी है और उसे हासिल करना उनका हक बन गया है ।

अधिकांश लोकसेवक भ्रष्ट, अनैतिक, और बेइमान हैं, उनमें मानवीय मूल्यों और व्यक्तिगत नैतिकता का हास हो चुका है । प्रजा चोरों से तो अपनी रक्षा कर सकती है, परन्तु निरंकुश सरकारी तंत्र के अन्याय, क्रूरतापूर्ण, भौतिक और मानसिक शोषण और धन अपहरण से अपनी रक्षा नहीं कर सकती है । सरकारी तंत्र में अधिकांश लोक सेवक सुपारी किलर्स से भी ज्यादा खतरनाक हैं, यह सबसे बड़ी मानवीय त्राशदी है ।

नागरिकों से रिश्वत मांगना, लेना, धन अपहरण करना, अधिकारों का हनन करना, उनकी प्रतिष्ठा, मानवीय गरिमा, स्वाभिमान, आत्मसम्मान को गहरी क्षति पहुंचाना है । भ्रष्टाचार एक सामाजिक बुराई है, वह नागरिकों को एवं राज्य के सम्बन्धों को सीधे दूषित करता, बिगाड़ता और नष्ट करता है । सरकारी तंत्र का अति निन्दनीय घृणित कृत्य, अनैतिक आचरण, शासन की सार्वजनिक छबि, प्रतिष्ठा एवं गरिमा को अतिशय क्षति पहुँचाता है ।

लोक सेवक को जिस कर्तव्य कर्म के लिए राजकोष से वेतन मिलता है, उस काम के लिए रिश्वत मांगना या लेना भ्रष्टाचार है । राज्य उच्चाधिकारयों के पास इच्छानुसार कार्य स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्तर पर विवेक से शक्तियों के प्रयोग का अधिकार है, परन्तु नियम, कानून के विपरीत निहितार्थ अनुचित लाभ के लिए शक्तियों का प्रयोग भी, पद एवं अधिकारों का दुरूपयोग और भ्रष्टाचार है ।

रिश्वतखोरों में स्वयं का स्वाभिमान और आत्मगौरव नहीं होता है, सदैव पकड़े जाने की आशंका से भयभीत रहकर अपनी निगाह से गिरे होते हैं, समाज में प्रतिष्ठित नहीं होते हैं, घोर निन्दा के पात्र होते हैं । कानून और न्याय खरीदने की ताकत रखने वाले, प्रभावशाली पूंजीपतियों, ताकतवर अपराधियों अथवा संगठित आपराधिक गिरोह द्वारा बोली लगाकर धन की ताकत से नियंत्रित भ्रष्ट सरकारी तंत्र से अनैतिक गठबन्धन स्थापित कर आसानी से न्याय प्राप्त किया जा सकता है, ठीक इसके विपरीत सरकारी तंत्र और न्याय तंत्र से एक सामान्य नागरिक द्वारा नियम-कानून के दायरे में रहकर न्याय प्राप्त किया जाना अत्यन्त कठिन है ।

प्रशासनिक व्यवस्था में आई.ए.एस. और आई. पी. एस. अधिकारियों द्वारा पब्लिकसर्विस डेलीवरी और कार्य संपादन के गुण-दोष के आधार पर प्रोत्साहित एवं दण्डित (Incentives and penalties) करने का नियमों में प्रावधान नहीं होना और शासन द्वारा राजनेताओं के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा रखने वाले नौकरशाहों के सेवाकाल में विस्तार और सेवानिवृत्त उपरान्त गौरवपूर्ण पदों पर पदस्थापना, हतोत्साहित नहीं किया जाना सबसे बड़ी समस्या है।

प्रजा के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष संवैधानिक संस्थाओं की स्थापित विघि व्यवस्था है। अपराध नियंत्रण और दण्ड विधान मशीनरी का नागरिकों के कानूनी अधिकारों की हर हालत में रक्षा करना उनका फर्ज, कर्तव्य, उत्तरदायित्व एवं जवाबदेही है । शासन और संवैधानिक संस्थाओं की अपेक्षा देश की अदालतों में संविधान एवं स्थापित विधि व्यवस्था की मर्यादा, गरिमा, प्रतिष्ठा अभीतक सुरक्षित।


Published: 22-06-2023

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