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मुक्तकों के  सम्राट : पं रूप नारायण त्रिपाठी

दीप की लौ मचल  रही होगी  रूह  करवट बदल रही होगी  रात होगी तुम्हारी आंखों में  नींद बाहर टहल रही होगी। 

 पं रूप नारायण त्रिपाठी
पं रूप नारायण त्रिपाठी
जिन सुधी श्रोताओं ने कवि सम्मेलनों में पं रूप नारायण त्रिपाठी (फरवरी,1919 -मार्च,1990) को सुना है ,वे बेहिचक उन्हें 'मुक्तकों का  सम्राट' मानते हैं । उनकी रेशमी भाषा और मधुर स्वर में प्रस्तुति  किसी भी मुक्तक को खिल उठने के लिए पूरा वासंती परिवेश देती थी। उनके गीत घंटों सुनते रहने पर भी प्यास मिटती नहीं थी।
 
जैसे एक संपेरा मस्ती में बीन बजा रहा हो और हजारों नाग-नागिनें उसके इशारे पर हिल-डुल रहे हों; कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित होता था । उनका काव्यपाठ समाप्त होने पर ही शब्द और स्वर का इंद्रजाल टूटता था। धुनी हुई रुई की तरह उनकी भाषा में बला की सादगी थी,जिसके कारण उनके मुक्तक और उनके गीत शरद के शुभ्र मेघों की तरह मन के आकाश में छा जाते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के ग्रामीण अंचल में उनका जन्म हुआ था।
 
अपने परिवेश से वे अंतिम समय तक जुड़े रहे। अवधी भाषा ,लोक जीवन और लोक संस्कृति को उन्होंने अपने गीतों में बड़ी मजबूती से समेटा, सामान्य जन-जीवन के आंसू और मुस्कान को बड़ी कुशलता से उन्होंने संजोया।पराधीनता के दौरान उन्होंने  स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रियतापूर्वक भाग लिया था। आजादी के बाद वे राजनीति और पत्रकारिता से संग-संग जुड़े। उनका 'प्रकाश ' साप्ताहिक अपने अंचल की गतिविधियों का आईना था। अपने कविधर्म के बारे में त्रिपाठीजी स्वयं कहते थे 'मेरी जन्मकुंडली में महानगरों के  तामझाम का योग नहीं है।
 
मैं अंत्योदय के पात्रों की एक छोटी-सी आबादी में रहता हूँ। मुझे इस बात का संतोष है कि मैं वहाँ रहता हूँ ,जहाँ से मेरे देश की शुरुआत होती है। ' लोगों को यह नहीं मालूम होगा कि बहुत पहले साहिर लुधियानवी ने उन्हें मुंबई आकर फिल्मों में गीत लिखने के लिए आमंत्रण दिया था,परन्तु त्रिपाठी जी अपना गांव और अपना नगर छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उनके निर्णय पर किसीको क्यों  आपत्ति होगी,मगर मैं सोचता हूँ कि उनके गीत फिल्मों में जाने से गीतों की भाषा एकांगी होने से बच जाती।
 
वे और शैलेन्द्र उस कमी को पूरा कर देते ,जिसकी प्यास ग्रामीण जन को थी। त्रिपाठी जी ने आर्थिक संसाधन के लिए खाद की एजेंसी ले ली थी ,जिसे वे पत्रकारिता और काव्य सृजन के साथ  चला रहे थे। धरती के स्वर,माटी की मुस्कान ,बनफूल,रूप-रंग ,पूरब की आत्मा ,रूप सतसई ,झील की मौत ,रमता जोगी बहता पानी (काव्य संग्रह )और 'कालजयी' महाकाव्य उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।  पिछली आधी सदी से कविता को लेकर जो काव्यप्रेमी सामान्य जन  और सुविधाभोगी एकेडमिशियन के बीच खाईं  बढ़ी है ,उससे पंडितजी बहुत दुखी थे। उनका दावा था कि भारतीय मन से वही कविता जुड़ सकती है ,जो सही अर्थों में भारतीय मन की उपज हो। '
 
दर असल उनकी कविता समाज के मनोभावों के अनुरूप चलती थी। बांग्लादेश युद्ध में हुई ऐतिहासिक जीत के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी को  जो व्यापक लोकप्रियता मिली थी ,उसे पोषित करने के लिए त्रिपाठीजी का लिखा यह गीत जनगीत बन चुका  था-आमार दीदी तोमार दीदी ,इंदिरा दीदी जिंदाबाद।'पंडित रूप नारायण त्रिपाठी और डॉ श्रीपाल सिंह क्षेम जौनपुर नगर में बहती काव्य-सरिता के दो पाट  थे।
 
स्वभाव,तेवर और रचनाधर्मिता में पृथक होते हुए भी वे कभी एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते थे। प्रतिवर्ष त्रिपाठीजी के जन्मदिन पर कविसम्मेलन का आयोजन क्षेमजी करते थे और क्षेमजी के जन्मदिन पर त्रिपाठीजी। आज दोनों नहीं हैं। जौनपुर के आकाश में न सूरज है न चाँद। न उन दोनों के जन्मदिनों को साहित्यिक ढंग से मनाने वाला  वह उत्साही समूह । पिछले साल (2019) त्रिपाठी जी की जन्मशती थी,जो चुपचाप गुजर गयी। न सरकारी संस्थानों ने उनकी सुध ली और न ही  शैक्षिक सस्थानों ने,जबकि पूर्वांचल विवि का वहीं मुख्यालय है। मतलब साफ़ है कि जनता द्वारा समादृत कविता-कामधेनु को तजकर शब्दविलासी लोग आधी सदी से बैल को दूहने के प्रयोग में पूरी तरह जुटे हैं । त्रिपाठी जी के शब्दों में ही -
 
कुछ ऐसे झुलस गयी जीवन की अमराई
कोयल के गीत व्यथा के मारे डूब गए 
जो आये मुट्ठी में दिन का संकल्प लिए
 वे अन्धकार में हाथ पसारे डूब गए। 
 -- बुद्धिनाथ मिश्र
 
 
रावल जोगी 
 
मैं गीतों का रावल जोगी चला किया अविराम।
 दिनभर अलख जगाई मैंने 
रात वृक्ष के नीचे काटी 
जुड़ी रही अनवरत राह से 
मेरी गैरिक वसना माटी
 इस बस्ती में भोर हुई तो उस बस्ती में शाम।
 
मुझे कपटवेशी बतला कर 
 कहा किसी ने यह ढोंगी है 
कहा किसी ने बाहर जोगी 
लेकिन भीतर रसभोगी है 
जिसने  ठुकराया उसको भी मैंने किया प्रणाम। 
 
 मेरी क्या औकात, जिन्होंने 
जीवन में कितने दुख झेले
 संत्रासों से खपा  स्वयं को 
कितनी विपदाओं से खेले
 यह तुलसी की माटी जाने या तुलसी के राम।
 
 मेरे सिरजनहार समझ में 
आई नहीं तुम्हारी माया
 अंगारों के जंगल में दी
 तुमने पांच फूल की काया 
जिसकी हर कामना अधूरी हर आंसू नाकाम। 
 
 बिजली जिसको आंख दिखाए 
जिसे बादलों ने भरमाया
 चक्रवात के पथ पर तुमने 
यह माटी का दीप जलाया 
चुटकी भर उजियारी लिख दी अगम तिमिर के नाम। 
 
मेरा घट  खाली रखना था 
तो मुझको यह प्यास  न देते 
पंख नहीं देना था तो फिर 
मुझको तुम आकाश न देते 
इतनी पीर न  देनी थी जो कर दे नींद हराम। 
 
आश्वासन देकर फूलों का 
 मुझको कांटे दिये  समय ने 
मेरे गीतों की झोली में 
कुछ आंसू कुछ टूटे सपने 
छोटी -सी पूंजी है वह भी गली -गली गली बदनाम।
 
अंधकार के अभिनंदन में 
उजियाली ने  कविता बाँची 
यह  दरबार झूठ का जिसमें 
सारी रात सचाई   नाची
प्यासा मरा पपीहा  कोई  घटा न आई  काम। 
 
 अनबन के कांटे चुभते हैं 
नफरत के अंगारे फैले 
घूमा करते हैं सड़कों पर
भेष बदलकर नाग विषैले 
अंकुश नहीं हवा पर अफवाहों पर नहीं लगाम।
 
 - रूप नारायण त्रिपाठी

Published: 14-06-2023

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