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व्यंग्य : वामन का मंतव्य

'वामन'का मन्तव्य कभी त्रिलोकेश्वर से रहा होगा,पर अब मन्तेश्वर के इर्द गिर्द सिमट चुका है ।कहते हैं  त्रिलोकी नाथ ने जब समुद्र मंथन किया था,रत्न निकलने तक सभी को उनपर भरोसा था लेकिन त्रिलोक सुंदरी और अमृत घट यानी सत्ता सुंदरी और नौकरशाही को हथियाने की नौबत आते ही देव दानवों का भरोसा दो फाड़ हो गया जिसके चलते  विष्णु भगवान को भी तमाम पापड़ बेलने पड़े । उन्हें स्वयम सत्ता सुंदरी का मुखौटा लगाना पड़ा।

वामन का मंतव्य
वामन का मंतव्य
भरोसा शब्द भले ही तीन अक्षरों का है लेकिन अवसर आने पर यह पूरे त्रिलोक को नाप सकता है,भले ही आप कहें कि इसके पीछे वामनी राजनीति है । 'वामन'का मन्तव्य कभी त्रिलोकेश्वर से रहा होगा,पर अब मन्तेश्वर के इर्द गिर्द सिमट चुका है। कहते हैं  त्रिलोकी नाथ ने जब समुद्र मंथन किया था,रत्न निकलने तक सभी को उनपर भरोसा था लेकिन त्रिलोक सुंदरी और अमृत घट यानी सत्ता सुंदरी और नौकरशाही को हथियाने की नौबत आते ही देव दानवों का भरोसा दो फाड़ हो गया जिसके चलते  विष्णु भगवान को भी तमाम पापड़ बेलने पड़े । उन्हें स्वयम सत्ता सुंदरी का मुखौटा लगाना पड़ा।
 
नतीजा यह हुआ कि सत्ता पाने के लिए दोनों पक्ष प्रतिबद्ध हुए । राहु और केतु समझदार निकले उनकी भूमिका आज भी यथावत है। भरोसा उनके बीच कन्दुक  की तरह इधर उधर भागता दिखाई दे रहा है। दरअसल राहु और केतु ही आज की नौकरशाही है जो देव और दानवों को प्रोटोकाल का मुखौटा दिखाकर भरोसेमंद बनी हुई है । लेकिन इसी बीच सोशल मीडिया  तो प्रोटोकाल का भी बाप निकला और देखते ही देखते खुद को 'किंगमेकर' साबित करने पर तुल गया और इसे साबित करते हुए उसने एक आम आदमी को सड़क से उठाकर राजसिंहासन पर बिठा दिया,यही नहीं एक अच्छे खासे नेता को चाय वाले का चोला पहना कर सत्ता के शिखर पर पहुंचा दिया ।
 
वैसे सोशल मीडिया कोई नई ईजाद नहीं है। इसे केवल पत्रकारिता और नौकरशाही का गठजोड़ । ऐसी पत्रकारिता जो हवा में गांठ लगाने में माहिर हो। खबरों के मन माफिक कसीदे काढ़ने में सक्षम हो साथ ही सत्ता में सेंध लगाने में भी माहिर हो । पत्रकारिता का ऐसा अद्भुत मुखौटा देखकर नौकरशाही के भी कसबल ढीले हो गए ।नौकरशाही को लगा अगर उसने इस मुखौटे को  वाकओवर न डियातो उनका अपना मुखौटा भी उतर जाएगा । पत्रकारिता पहले भी ऐयारी थी और आज भी है । सोशल मीडिया का मन्तव्य भी एक तरह से ऐयारी ही है ।इसे इस तरह से समझें-जब राजा भोज की दुनिया भर में तूती बोल रही थी अचानक न जाने किस दुरभि सन्धि से एक किस्सा गो ऐयार दूरदराज से प्रकट हुआ और उसने सिंहासन बत्तीसी की बत्तीस कहानियां सुनाकर राजा भोज  के आस्तित्व को दीं दुनिया से बाहर कर दिया और किस्सा कहानी के अमूर्त नायक को चक्रवर्ती सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया । राजा भोज का बजूद भी नहीं बचा ।इतिहास गया तेल लाने ।
 
सोशल मीडिया ने यह साबित कर दिया  कि उसकी तथाकथित ऐयारी बड़े बड़ों को पानी पिला सकती है। नौकरशाही को भी धूल चटा सकती है । तभी से नौकर शाही के साथ नेताशाही भी नतमस्तक है । बस एक दूसरे का मुखौटा  बचा रहे । भरोसा का भूत सिर पर चढ़ कर बोलता है, न देखता है ,न सुनता है,न समझता है,बस हवा में ही गांठे लगाता रहता है ।
राजनीति कूटनीति के भरोसे चलती है । पहले भी कूटनीति सेठाश्रयी होती थी और ब्याजनीति के भरोसे चलती थी अब बदलते समय मे भरोसा गड्ड मड्ड हो रहा है।सरकारों के भरोसे का भी यही हाल है। एक सरकार पांच साल के भरोसे पर आतीहै।
 
भरोसा टूटते ही सत्ता के खेल से बाहर होते देर नहीं लगती ।कभी सरकार गरीबों के भरोसे थी सरकार बदली तो राम भरोसे हो गयी । अब हाल यह है कि राम मंदिर बने न बने सरकार उनके नाम पर बनती बिगड़ती रहती है ।  खैर भरोसा मंदिर पर हो न हो,कभी वह सीबी आई के भरोसे था ।अब अदालत के भरोसे पर टिक गया है ।
जो फंस गए वे न्याय की देवी को अंधा बता रहे हैं और जो बच गए वे स्वयम को अदालत की दूरदृष्टि के कायल जता रहे हैं । अब चाहे सूखे का मुद्दा हो या डांस बार अथवा बैंकों के घोटाले का भरोसा दरकता रहता है।
 
जनता का भरोसा कब तक किस पर टिका रहता है यह समय ही बताएगा । धर्म तक से लोगों के भरोसे पर ग्रहण लग ने की स्थिति आ गयी है। विधायिका और न्याय पालिका पर लगते ग्रहण को देखते हुए न्याय पालिका पर ही भरोसा बचा है । दूसरा और विकल्प भी क्या है । भरोसे के खम्बे में चाहे कितनी ही दरारे हों कहलाता भरोसे का खम्भा ही है । भरोसे का कन्धा न हो तो भरोसे के धंधे का क्या होगा । धंधे का खेल खेलने वालों को भरोसा बनाये रखने की जिम्मेदारी होती है । देश सेवा जब धंधे में बदल गया हो तो अंधे को भी मालुम है कि  बिना मेवे के देश सेवा करने का जमाना लद गया ।
 
अगर मेवा भी सड़ा निकल गया तो भरोसे को कन्धा बदलते देर नहीं लगेगी । यह दौर ही दूसरा है । अब राजनीति भी कंधे पर बंदूक लेकर चलती है । वे दिन लद गए जब टोपी को  लाठी बनाकर कोई नेता निकलता था तो बड़ी से बड़ी ताकतें उसका लोहा मानती थी । उसकी टोपी लाठी को भी मात करती थी । अब राजनीति भले ही  कितनी ही मजबूत हथियारों से समृद्ध हो गई हो पर वह भरोसे की लाठी कहीं भी नज़र नहीं आरही है।उल्टे भरोसे पर गाँठपर गांठ लगती जा रही है । भरोसा किस घाट जाकर लगेगा ? खुदा ख़ैर करे !
 

Published: 06-06-2023

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