अंगार ने ऋषि की आहुतियों का घी पिया। हव्य के रस चाटे। ऋषि जब दूसरे दिन नए अंगार को आहुति देने लगे तो राख ने कातर होकर ऋषि को पुकारा-आज आपने मुझे आहुति नहीं दी।मुझे क्यो भूल गए? ऋषि ने करुणामय होकर एक आहुति उसे भी दे दी।
तीसरे दिन ऋषि जब नए अंगार को आहुति देने लगे तो राख गुर्राई , अरे तू वहां क्या कर रहा है? आहुतियां क्यों नहीं लाता! क्या हो गया है तुझे ? ऋषि ने शांत स्वर मे कहा - "आज मैं तेरे अपमान का पात्र हूँ क्योंकि मैंने कल तक मूर्खता वश तुझ अपात्र को आहुति देने का काम किया था।"
इस बोध कथा से ऋषि की पात्र अपात्र की बात तो समझ में आती है। लेकिन व्यवहार मेँ इस कथा का मर्म हमारे लिए आज भी अबूझा है। शायद इसी वजह से पात्र और अपात्र की हमारी तलाश जारी है। हम बार बार अपात्रो को आहुतियां डालते रहते हैंऔर हाथ मलते रहते हैं।
हम जिस होशियारी के साथ खाली गिलास के मुहावरे को अपने पक्ष में करते रहते हैं उससे जाहिर है कि हमारे चिंतन के गिलास खाली हैं। हमारे पास शुतुरमुर्ग की तरह तूफान आने पर रेत में गर्दन डाल देने के बचाव के अलावा और कोई तरकीब नहीं है। यही नहीं,अपनी नाकामी और असफलता को लेकर हम बार बार अपनी एक उंगली दूसरे की ओर उठाते रहते हैं।यह जानते हुए भी जब हम एक उंगली दूसरे की ओर उठाते हैं तो स्वतः हमारी तीन उंगलियां खुद अपनी ओर उठ जाती हैं। हम अपनी अन्तश्चेतना को झकझोरने से बच जाते हैं। यही वजह है कि आम आदमी कदम कदम पर छला जा रहा है।
कभी घोटाले के मुद्दे पर,कभी भ्र्ष्टाचार के खिलाफ ।कभी जीरो टॉलरेंस के विरुद्ध कसमसाने लगता है।अपने आक्रोश को जाहिर तक नहीं कर पाता। क्या पक्ष क्या विपक्ष। सभी चट्टे बट्टे हैं। कोई न किसी से कम न किसी से ज्यादा। हम जिन्हें मान सम्मान का सिंहासन सौपते हैं वही हमे टोपी पहनाने लगते हैं।
आये दिन होने वाले बलात्कारों ,घोटालों, अत्याचार की घटनाओं ने हमे दहला दिया है। अनाचार की इस इबारत को कभी चुप्पी।कभी तिकड़म के साथ। इन मुद्दों को हवा देने से भी डर रहे हैं। अपनी इन भंगिमाओं और सोंच के चलते हम राख पर मजबूरी की आहुतियां डालते रहते हैं।
खैर मान लेते हैं कि बला हमारे सिर से टली। अब हमें कोई मुद्दा आहत नहीं करता। महंगाई हमारे लिए हाईटेक हो गयी है। घोटाले अनुत्तरित हैं। एक घोटाले की तपिश कम नहीं होती कि दूसरा घोटाला पिछले घोटाले पर पानी फेर देता है। जिन पत्तों को हम झाड़ पोंछ कर नयनाभिराम बना कर खड़ा करते हैं वही हमे हवा देने लगते हैं।
आलम यह है कि किसी के पास जुझारू,गौरवशाली अतीत का ढोल है तो दूसरा भी अपने चाल,चरित्र,चिंतन से आगे बढ़ चुका है। हर कुएं में भांग पड़ी है।जिस कंधे पर हम सिर रखते हस7 वही हमे उल्लू बना कर हमें झटक देता है। बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभना अल्ला।
जिनको अपनी जमीन का अता पता नहीं है,वे भी तीसरा और चौथा मोर्चा बनाने के लिए ताल ठोंक रहे हैं। राख हो जाने के बावजूद गलतफहमी में हैं कि सारी आहुतियां उन्ही पर पड़ेंगी।
यानी हमारी हालत कुल मिलाकर ढाक के तीन पात की है। हमारा सारा आक्रोश, सम्वेदनाएँ हर बार हताशा के आगे घुटने टेक देती हैं। हम मत" देने जाते है और "मतिदान" कर आते हैं।
चाहे राजनेता हों या सामाजिक सरोकार से जुड़े लोग , धर्म कर्म के कांटे बिछाकर बैठे महंत अथवा साहित्य के पुरोधा सभी उल्टे फेरे लेने में लगे हैं। हम हास्य से हास्यास्पद होते जा रहे हैं।हमने अपने पर व्यंग्य करने की तमीज खो दी है। हमारे चेहरों पर मुखौटे लगे हुए है ।अपनी भाषा, अपनी सोच,अपने तेवर धुंधले लगने लगे हैं। राख पर आहुति डालने के और कोई विकल्प भी क्या है।
फिलहाल एक किस्सा कमोवेश यही बयान करता है। रक सेठ अपने नौकर को लेकर एक जमीन को खरीदने गया ।तभी आंधी पानी का प्रकोप हुआ। भाग कर उन दोनों ने एक बड़े पेड़ के नीचे शरण ली।
आंधी पानी में पेड़ के नीचे बैठे बैठ उन्हें घण्टों हो गए। दोनों भूख से बेहाल थे। नौकर बोला-मालिक अगर कुछ खाने को मिल जाता तो जान बचती। सेठ ने कहा-ऐसा कर आंख बंद कर जो मन करे खा ले ,मेरी तरह। थोड़ी देर बाद नौकर ने लम्बी डकार ली। सेठ ने कहा-इतनी जल्दी तेरा पेट भर गया? हां मालिक। क्या खाया तूने ? कछू खास नाहीं मालिक! मुट्ठीभर चना खाइके लोटा भर पानी पी लीहेन। डकार आय गयी।
सेठ ने गुस्से से नौकर को लातों से मारना शुरू किया-अबे!जब मन ही मन मे खाना था तो मेरी तरह छप्पन भोग खाता, तूने खाली चने से पेट क्यों भरा? बेचारी जनता इसी किस्से को तामील करने में लगी है।
कुल मिलाकर --
अब हम सुरक्षित हैं,
धूल से भी ,
आंधी से भी..
गौतम से भी,
गांधी से भी.
अब कुत्ते ही
सीढियां चढ़ते हैं
हाथी खड़े खड़े भूकते हैं !