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दुबला हो गया हाथी

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दुबला हो गया हाथी
दुबला हो गया हाथी
रजनीकांत वशिष्ठ : यूपी में दो साल पहले से ही ये हवा बहने लगी थी कि इस बार  मायावती वापस आ रही हैं। सूबे में हर कहीं मायावती के वापस आने की सुगबुगाहट अगर थी तो उसका एकमात्र कारण था कानून व्यवस्था। अखिलेश राज के पहले तीन सालों में ही लागों को 2007 से 12 के बीच का मुख्यमंत्रित्व काल याद आने लगा जिसमें भ्रष्टाचार भले हावी हो पर अपराधियों के पर पूरी तरह कतर गये थे। एक सख्त और बेहतर प्रशासक के रूप में बसपा सुप्रीमो मायावती सबको याद आने लगीं थीं।
 
इसे बसपा मुखिया का आत्मविश्वास ही कहा जायेगा कि उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव के लिये अपने उम्मीदवारों का ऐलान भले ही अभी किया हो पर उन्हें साल भर पहले ही अपने अपने क्षेत्रों में काम करने का इशारा कर दिया था। भले ही  मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगता रहा हो। पर इतना तो तय था कि बसपा का टिकट चुनाव जीतने की गारंटी था इसीलिये उम्मीदवार दांव लगाने को तैयार भी हो रहे थे। वो भी तब जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का पूरे प्रदेश से सूपड़ा साफ हो गया हो। ऐसी हालत में भी राजनीति के शेयर बाजार में बसपा के टिकट का रेट हाई क्यों। इस बारे में बसपा पर दांव लगाने वाले राजनीति के खिलाड़ियों का यह मत सामने आया कि 2014 में बसपा के वोटर ने अपना वोट मोदी के नाम शिफट कर दिया था। ताकि दिल्ली में कांग्रेस और सपा की जुगलबंदी से उसे राहत मिल जाये। बसपा को 2017 की प्रतीक्षा थी जिसमें उसकी खोयी साख की बहाली हो सके और सपा से हिसाब बराबर हो जाये। बसपाइयों की विजय की सारी संभावना इस सोशल इंजीनियरिंग पर टिकी थी कि दलित और मुसलमान गठजोड़ फतेह की गारंटी है। उस पर सवर्ण वोट भी जुड़ जाये तो क्या कहने। भाजपा थिंक टैंक इस समीकरण को शुरू से ही सम-हजय रहा था। इसीलिये भाजपा ने जो रणनीति अपनाई वो कुछ इस तरह थी। एक भाजपा की लड़ाई सपा से दिखायी और बसपा को अनदेखा किया। 
 
दूसरा बसपा के किले को यहां वहां से ध्वस्त करना शुरू कर दिया। तीसरा यह दिखाया कि भाजपा की असली लड़ाई तो सपा से है और वो इसलिये कि मुसलमान वोटर कनफयूज हो जाये। भाजपा इस अभियान में काफी हद तक कामयाब भी हुई। आज स्थिति ये है कि यूपी में मुकाबला त्रिकोणीय दिखने लगा है। यानी सपा-ंउचयकांग्रेस गठजोड़ और बसपा में से मुसलमान किसे चुने यह असमंजस कायम है। यही असमंजस कायम रहा तो भाजपा मैदान मार ले जायेगी।
 
हाथी के दुबले होने की एक वजह ये भी है कि इस बार दलितों में से भी कुछ उपजातियां मायावती से मोहभंग की राह पर हैं। दूसरे वो सवर्ण भी छिटके हुए हैं जिन्होंने मायावती के राज में हरिजन एक्ट या प्रमोशन में आरक्षण का दंश सहा है। बहरहाल अभी तो चुनावी मैदान सजना ही शुरू ही हुआ है कोई फैसलाकुन भविष्यवाणी कर देना मुनासिब न होगा। पर यह भी सच है कि बसपा का हाथी थोड़ा दुबला तो हुआ है।

Published: 28-01-2017

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