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तालिबान की वापसी : पर अफगानिस्तान बदल रहा है

बीते दो दशकों में अफगानिस्तान बेशक बदल गया है. करीब तीन-चौथाई अफगान आबादी 30 से कम उम्र की है और रूढ़िवादी मगर खुले समाज में जीने की आदी है. 60 फीसद आबादी को अब इंटरनेट सुलभ है. तालिबान को संकेत भेजने के बजाए भारत ने अफगान नेतृत्व वाली शांति प्रक्रिया के मंत्र में ढ़ाढ़स पाने का रास्ता चुना. भारतीय अफसर हाल में तालिबान के साथ गुपचुप संपर्क में रहे हैं. 90 के दशक में तालिबानी लड़ाकों ने कश्मीर में हालात बिगाड़े थे. क्या वे फिर यही करेंगे ? यह खुला सवाल है. जवाब यह है कि कभी-कभी बातचीत की बजाए निंरतर बातचीत करें.

पर अफगानिस्तान बदल रहा है
पर अफगानिस्तान बदल रहा है

अमेरिकियों का 2 जुलाई को अफगान एयरबेस बगराम को छोड़कर चले जाना अपनी सबसे लंबी जंग से अमेरिकी वापसी का चिरस्थायी प्रतीक है. ठीक अगले दिन 13 जिले तालिबान के कब्जे में चले गए और रफ्तार सुस्त नही पड़ी है. वह भी तब जब अमेरिकी वापसी की प्रक्रिया दशक भर पहले शुरू हुई थी. हिलेरी क्लिंटन ने फरवरी 2011 में नीति बदलने विचार किया जब तालिबान के साथ बातचीत की पूर्व शर्तें-हिंसा छोड़कर हथियार डालना, अफगान संविधान को स्वीकार करना और अल कायदा सरीखे आतंकी धड़ों से रिश्ते तोड़ना- बातचीत के नतीजों में बदल दी गई.

तालिबान को सुरक्षित पनाहगाह मुहैया करवाने में पाकिस्तान के दशक भर लंबे निवेश का प्रतिफल मिल रहा था. अगला लक्ष्य उसे वैधता दिलाना था, जो 1990 के दशक में उसे हासिल नही थी, क्योंकि तब केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी. वैधता दिलाने की यह प्रक्रिया 2013 में दोहा में दफ्तर खोलने से शुरू हुई. उसके बाद पाकिस्तान की पहल पर चतुर्पक्षीय समन्वय समूह की तालिबान के साथ बातचीत हुई और काबुल, हार्ट आफ एशिया और मास्को प्रक्रियाएं आई. इस दौरान अमेरिका ने अपनी भूमिका अफगान नेतृत्व वाली, अफगान स्वामित्व वाली शांति प्रक्रिया में मददगार होने तक सीमित रखी.

रास्ता तब खुला जब ट्रम्प प्रशासन ने राजदूत जल्मे खलीलजाद को अफगानिस्तान सुलह के लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करके तालिबान से सीधी बातचीत शुरू की. उन्होंने चार उद्श्यों-युद्धविराम, अल कायदा, आइएस और दूसरे आतंकी धड़ों से रिश्ते तोड़ना, अफगान के भीतर शांति वार्ता और विदेशी बलों की वापसी के खाके के साथ शुरुआत की और जोर दिया कि जब तक हर चीज पर सहमति नहीं तब कोई सहमति नही. अलबत्ता उनके पास प्लान बी नही था और तालिबान ने उनके झांसे की कतई खोल दी. अंततः अमेरिका ने तालिबान/आइएसआइ प्लान ए स्वीकार कर लिया. यही नही, तालिबान ने अपनी वैधता भी बढ़ा ली, उस काबुल सरकार की कीमत पर, जिस पर अमेरिका उसकी हिरासत से करीब 5,000 तालिबान विद्रोहियों को रिहा करने के लिए जोर डाल रहा था.

दोहा समझौता 2020 न तो अफगान नेतृत्व वाला था और न स्वामित्व वाला, लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक राय से उसका अनुमोदन किया. शायद यह भी अच्छा ही है कि इस पर 29 फरवरी को दस्तखत हुए क्योंकि 2024 में जब इसकी सालगिरह आएगी, इसका शर्मनाक अंत इतिहास बन जाएगा. राष्ट्रपति जो बाइडन अरसे से मानते आए है कि अमेरिका को अपनी आतंक-विरोधी भूमिका को सीमित करते हुए अफगानिस्तान में विद्रोहियों के खिलाफ अंतहीन कार्रवाइयों से बाहर निकलने की जरूरत है. 14 अप्रैल को जब उन्होंने 9/11 तक अमेरिकी वापसी की अंतिम समय सीमा घोषित की, तालिबान का 76 जिलों पर नियंत्रण था. आज यह संख्या 220 के करीब है. तालिबान की इस बढ़त के बाद भी बाइडन ने यही कहा कि अमेरिका राष्ट्र निर्माण में शामिल नही है और अपना भविष्य तय करने का अधिकार और जिम्मेदारी अफगान लोगों की है.

अब जब अमेरिका का जाना हकीकत है, पाकिस्तान, ईरान, रूस और चीन शायद एक पुरानी कहावत याद कर रहे हों-अपनी मुरादों के बारे में संभलकर रहो. खासकर जब वे एक नई चुनौती के लिए कमर कस रहे हैं कि वे तालिबान को अपनी सैन्य ताकत पर ज्यादा जोर न देकर सत्ता में साझेदारी स्वीकार करने के लिए कैसे मनाएं. वे सफल होते है या नही, यह तालिबान पर निर्भर करता है- वे कितने बदले हैं और क्या वे उतने ही संगठित है जितने 1990 के दशक में मुल्ला उमर के मातहत थे. 2015 में मुल्ला उमर की मौत के खुलासे का नतीजा सत्ता के लिए अंतर्कलह में हुआ. मुल्ला अख्तर मंसूर ने मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याकूब पर फतह हासिल की. रहबरी शूरा को व्यापक बनाने की गरज से मंसूर दो-एक ताजिक और उज्बेक चेहरों को ले आया और स्थानीय कमांडरों की स्वीकृति पाने के लिए अफगानिस्तान में हमने बढ़ा दिए. वैसे, साल भर में वह अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया.

2016 में मुल्ला हैबतुल्ला ने कमान संभाली. इस बार दो डिप्टी कमांडरों के साथ. एक, आइएसआइ का पंसदीदा सिराजुद्दीन हक्कानी जिसने पेशावर शूरा का काम संभाला. दूसरा, मुल्ला याकूब, जिसे नशे के व्यापार में लिप्त कय्यूम जाकिर और दक्षिण प्रांतों में ज्यादा वजन रखने वाले हेलमंड स्थित कमांडर इब्राहीम सदर का समर्थन था. रिपोर्टों से संकेत मिला कि उसका रुझान बातचीत में था.
मुखलिफत हक्कानी की ओर से आई, जिसकी कड़ियां उत्तरी प्रांतों में कार्यरत दूसरे धड़ों से जुड़ी हैं. इनमें भारतीय उपमहाद्वीप का अल कायदा भी है. दूसरे धड़ों में आइएस-खुरासान और पाकिस्तान स्थित धडे़ हैं. जमीन पर इनकी वफादारियां और अधीनताएं कैसे काम करेंगी, साफ नही है.

वहीं, ईरान में लड़ाइयों से मजबूत होकर निकली हजारा शिया टुकड़ी है जिससे सीरिया से लौटी फातेमियून ब्रिगेड बनाई गई. इसे जनरल इस्माइल कानी ने बनाया. प्रमुखता हासिल करने वाली एक तीसरी धड़ेबंदी दोहा स्थित तालिबान है. इसकी अगुआई तालिबान के सह-संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के हाथ में है, जिसने मुल्ला उमर की बहन से निकाह किया है. दोहा धडा अपने परिवारों को लाने में सफल रहा और तालिबान का सार्वजनिक चेहरा होने के नाते इसका रुझान बातचीत से सुलह-समझौते की ओर ज्यादा है.?

जब तक सैन्य विकल्प से नतीजे मिलते रहते हैं, सारे धड़े खुश हैं. मगर जब सत्ता में साझेदारी पर बातचीत की बारी आएगी, तब किसकी चलेगी ? सत्ता के बाद की व्यवस्थाएं इस पर भी निर्भर करती है कि काबुल का निजाम एकजुट मोर्चा पेश कर पाता है या नहीं और पाकिस्तान, ईरान, रूस और चीन तालिबान की लड़ाका इकाइयों को समझा पाते है या नहीं. तालिबान का संख्या बल करीब 60,000 होने का अनुमान है जबकि अफगान सुरक्षाबल 3,00,000 से ज्यादा हैं. वैसे अफगान सुरक्षा बल अपना मनोबल और अपनी कमान श्रुंखला की एकजुटता बनाए रख पाते है या नही, ये सवाल काबुल के नेताओं पर निर्भर करते हैं, जिन्होने बीते दो साल एक दूसरे की छंटाई में बिताए हैं.

विस्तारित त्रयी की आखिरी बैठक 18 मार्च को मास्को में हुई. इसमें पिछले मार्च के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव दोहराया गया कि वे अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात का समर्थन नही करते. उसके बाद वे कोई पहल करते नही देखे गए. तालिबान प्रतिनिधिमंडल की हाल की तेहरान और मास्को यात्राएं तथा दुशन्बे तथा ताशकंद की बैठकें यह परखने की कोशिशें मालूम देती है कि तालिबान महीनों से अधर में लटकी अफगान के भीतर की वार्ता फिर शुरू करने तथा अफगानिस्तान में हिंसा का स्तर कम करने को कितना सुनता है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने 22 जून को वाशिंगटन पोस्ट में लिखा हम अफगानिस्तान के सैन्य अधिग्रहण के खिलाफ है जो दशकों लंबे गृह युद्ध की ओर ले जाएगा, क्योंकि तालिबान पूरे मुल्क को फतह नही कर सकता और फिर भी किसी भी सरकार की कामयाबी के लिए उसे उसमें शामिल करना ही होगा.

वहीं भारत के लिए गुंजाइशें कम हैं. वजह है भूगोल, सीमित संगठन, संसाधन, और इसलिए भी कि हमने यह समझते में देरी की कि 2013 से तालिबान का मुख्यधारा में आना क्षेत्र में पाकिस्तान का अपना सुरक्षा दायरा बढ़ाने दे रहा है. तालिबान को संकेत भेजने के बजाए भारत ने अफगान नेतृत्व वाली अफगान स्वामित्व वाली शांति प्रक्रिया के मंत्र में ढ़ाढ़स पाने का रास्ता चुना. कतर के बड़े अधिकारी मुतलक बिन माजेद अल कहतानी के मुताबिक, भारतीय अफसर हाल में तालिबान के साथ गुपचुप संपर्क में रहे हैं. वैसे, पुरानी कहावत है कि बाढ़ से लबालब नदी में कूदकर कोई तैराक नही सीखता. चूकने के डर से रणनीति नही हांकी जा सकती. भारत की ताकत यह है कि इसे सौम्य ताकत माना जाता है जिसका असर विभिन्न जातीय धड़ों में है. मगर इसके पास दूसरों सरीखी जोर जबरदस्ती की ताकत नही है.

तालिबान बदला हो या न बदला हो, पाकिस्तान का पहले जैसा असर हो या न हो, बीते दो दशकों में अफगानिस्तान बेशक बदल गया है. करीब तीन-चौथाई अफगान आबादी 30 से कम उम्र की है और रूढ़िवादी मगर खुले समाज में जीने की आदी है. 60 फीसद आबादी को अब इंटरनेट सुलभ है. विकल्प विकसित करना धैर्य और लगातार चौतरफा जुड़ने की मांग करता है. दूरी के चलते अमेरिका न जुड़ने की विलासिता गवारा कर सकता है. अपने इतिहास और भूगोल के चलते हम ऐसा नही कर सकते. पाकिस्तान के साथ शत्रुतापूर्ण रिश्तों को देखते हुए तो और भी. जैसे पानी अपना तल खोज लेता है, क्षेत्र की स्वाभाविक राजनैतिक डाइनैमिक्स भी धीरे-धीरे खुद को स्थापित करेगी, बशर्ते भारत अपने भागीदार अच्छे से चुने और बदलती डाइनैमिक्स का जवाब देने के लिए तैयार हो.

1990 के दशक में तालिबानी लड़ाकों ने कश्मीर में हालात बिगाड़े थे. क्या वे फिर यही करेंगे ? यह इस पर निर्भर करता है कि आइएसआइ का किस हद तक नियंत्रण है. अगर भारत सीधी कड़ियां विकसित करता है, तो हम वैसा ही आश्वासन पाने की कोशिश कर सकते है जैसा तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने पूर्व तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन के मामले में चीन को दिया है. ऐसा आश्वासन कितना भरोसे लायक होगा, यह खुला सवाल है. जवाब यह है कि मौका पड़ने पर कभी-कभी बातचीत की बजाए निंरतर बातचीत करें, क्योंकि अड़ोस-पड़ोस इसी की कद्र करता है. जरांज-डेलाराम राजमार्ग, चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा के जरिए अफगानिस्तान तथा मध्य एशिया को मिलने वाली कनेक्टिविटी का अंतर्निहित रणनीतिक तर्क अब भी अपनी जगह कायम है और हमारे स्वाभाविक भागीदारों के साथ मिलकर आगे की अनिश्चितताओं के बीच रास्ता खोजने में मदद कर सकता है.

 


Published: 07-08-2021

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