किसी को रुलाना आसान है पर किसी को हंसाना बहुत मुश्किल है. पर जो इस कला में माहिर हो गया वो कालजयी हो गया. चाहे वो चार्ली चैप्लिन हो या मिस्टर बीन या हमारे हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, शंकर पुणताम्बेकर, लतीफ़ घोंघी, काका हाथरसी, सुरेन्द्र शर्मा, अशोक चक्रधर या सुभाष चंदर. बेशक किसी की किसी से तुलना करना ठीक नहीं ये समीक्षकों के अखाड़े के दांव पेंच हैं. पर बीते चालीस वर्षों में याद करूं तो ये कुछ ऐसे नाम याद आ रहे हैं जिन्हें मैने सुना या पढ़ा है, जिन्होंने हास्य व्यंग्य की विधा को साधा और लोक मानस को खूब गुदगुदाया. इस अनोखी आकाशगंगा के कुछ नाम मुझसे छूट भी रहे होंगे पर फिर भी यह साहित्य की ऐसी विधा रही जिसकी साधना करने वाले नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं.
उन्हीं में से एक नाम अनूप श्रीवास्तव का है जिन्होंने 1 अगस्त को जीवन का 77वां पड़ाव पार किया है. ये मेरा सौभाग्य रहा कि एक पत्रकार के रूप में मैं बीस वर्ष तक लखनउ के अखबार स्वतंत्र भारत में उनका सहयोगी रहा. आयु में काफी छोटा होने के नाते कई बार मुझसे धृष्टता भी हुई पर अनूप जी के सरल और सहज स्वभाव ने उसे पानी पानी कर दिया. रायबहादुर वकील और कवयित्री मां की संतान, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, डा. हरिवंशराय बच्चन, ठाकुर प्रसाद सिंह, डा. शिवमंगल सिंह सुमन, गोपालदास नीरज जैसों की शगिर्दी में पनपे अनूप श्रीवास्तव शायद पहले ऐसे राजनीतिक पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से व्यंग्य और हास्य को कभी जुदा नहीं होने दिया. स्वतंत्र भारत के संपादकीय पृष्ठ पर कालम कांव कांव ठीक उसी तरह राज काज पर शब्दों से चोट करता था जैसे कोई कार्टूनिस्ट कूची से किया करता है.
एक पत्रकार के रूप में पचास सालों तक छोटे बड़े अखबारों में उनका जीवन वृत्त तो उल्लेखनीय रहा ही जो एक और आयाम उनके हृदय के बेहद करीब रहा वो हास्य और व्यंग्य की विधा के प्रचार प्रसार से जुडा था. बच्चन जी, शिवमंगल सिंह सुमन जी और ठाकुर प्रसाद सिंह ने माध्यम संस्था के जिस नाजुक पौधे को रोपा था उसे एक विशाल वृक्ष बनाने का श्रेय अनूप जी को जाता है. गीतों के राजकुमार गोपालदास नीरज का तो उन्हें सदैव पुत्रवत स्नेह मिला.
पिछले चालीस सालों में राजधानी लखनऊ में देश भर के नामचीन कवियों और लेखकों की जो विशाल महफिलें सजीं उनके पीछे अनूप जी की विलक्षण संगठन क्षमता के दर्शन हुए. नब्बे के दशक के आरंभ में जब लखनऊ महोत्सव बेगम हजरत महल पार्क में हुआ करता था तो उस दौर के गुणी श्रोताओं का जो हुजूम जुटता था उसकी आज कल्पना ही की जा सकती है. रवीन्द्रालय हो सहकारिता भवन सभागार हो सभी जगह जब अनूप जी के माध्यम के कार्यक्रम होते तो साहित्य रसिक बिन बुलाये जुट जाया करते थे. अनूप जी खुद भी कविता करते थे लेकिन मंच उन्हों ने हमेशा दूसरों के लिये सजाया खुद नेपथ्य के इंतजामकार रहे.
उस दौर में उन पर कविता माफिया होने तक का आरोप लगा मगर आलोचनाओं से विचलित हुए बगैर अपने साध्य की ओर कदम बढ़ाते रहे. हास्य और व्यंग्य कागज पर दर्ज होकर चिरस्थायी हो इसके लिये उन्होंने अट्टहास मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. नोट किया जाये कि यह देश की ऐसी अकेली हास्य व्यंग्य पत्रिका बन गयी जो 22 सालों से लगातार एक भी व्यवधान के बिना आज तक अनवरत प्रकाशित हो रही है. स्वतंत्र भारत और अट्टहास के संपादक के तौर पर देखा कि पत्रकारिता और साहित्य की इस विधा की पुरानी पीढ़ी धीरे धीरे संसार से विदा ले रही है इसलिये नयों को सामने लाने के प्रयासों में जुट गये. एक यायावर की तरह इस अभियान के लिए फिर चाहे उन्हें नोयडा, दिल्ली जाना पड़ा हो या जयपुर, रायपुर.
इधर कई वर्षों से उन्होंने अट्टहास के संपादन का कार्य अपनी यशस्वी पुत्री शिल्पा को तो सौंप रखा ही है अतिथि संपादकों की एक नयी परम्परा भी आरंभ की है. इस आयु में कहां से लाते हैं वो इतनी उर्जा और जोश.
ईश्वर करे कि उनका जीवन का हर दिन ऐसे ही सार्थकता के साथ बीते और यह सफर सौ वर्ष पार करे और हम जैसों को अंत तक ऐसे ही कर्म की राह पर चलते रहने की प्रेरणा मिलती रहे.