1 जुलाई को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना ने अपनी अधिकारिक शताब्दी वर्षगाँठ मनाई. अधिकारिक इसलिये कि अपने गठन के बीस साल बाद 1941 में सत्ता में इसका प्रभावी रूप उभर कर सामने आया. पार्टी के आंतरिक दस्तावेज बताते हैं कि शंघाई शहर में 1921 में इकट्ठे हुए मुट्ठी भर लोगों ने 23 से 31 जुलाई के बीच चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी यानी सी सी पी की नींव रखी थी. इसकी भूमिका तो दरअसल और भी पहले 1920 के मध्य में कई शहरों में हुई बैठकों में लिखी जा चुकी थी इस नाते इसे सौवीं वर्षगाँठ कहा जा सकता है.
भले ही जब चीन में कम्युनिज्म ने पहला कदम रखा होगा तब वो मार्क्स की शास्त्रीय विचार पुस्तिका के आधार पर रहा होगा और इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ सोवियत यूनियन को अपना मार्गदर्शक मान कर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना आगे बढ़ी होगी. पर आज उसका कम्युनिज्म कैपिटलिज्म की राह पर है. आज की तारीख में उसका सबसे बड़ा शस्त्र अर्थ है जो किसी भी अणु, परमाणु या जैविक अस्त्र से कहीं ज्यादा मारक और घातक सिद्ध हो रहा है. सस्ती लेबर के दम पर दुनिया के धनी देशों की मेन्युफेक्चरिंग कंपनियों के उत्पादन की आउटसौर्सिंग की सबसे बड़ी वर्कशॉप बन चुका है. आधुनिक चीन क्या है इसके बारे में धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री रिनपोछे ने २०१२ में मेरे एक प्रश्न के जवाब में जो कहा वो आज यथार्थ बन चुका है. वो बोले चीन अब एक चतुर चालाक बनिया है. जो सूद ब्याज के जाल में फांस कर इंच इंच करके सारी दुनिया पर कब्ज़ा जमाने का सपना पाल रहा है.
तब से लेकर आज तक वामपंथी सीसीपी विश्व की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है जिसके सदस्यों की संख्या 92 मिलियन बतायी जाती है. पहले नंबर पर भारत की भारतीय जनता पार्टी है जो वैचारिक आधार पर एकदम विपरीत ध्रुव दक्षिणपंथ पर बैठी है और जिसके सदस्यों की संख्या 180 मिलियन यानी चीन से लगभग दोगुनी है. पर गौर करने लायक बात ये है कि सीसीपी का सदस्य बनने के लिये एक चीनी को कठोर परीक्षणों से गुजरना पड़ता है. 2014 में 22 मिलियन आवेदकों में से केवल 2 मिलियन सदस्यों को ही पार्टी में प्रवेश हासिल हो सका था. जबकि भाजपा को 70 मिलियन लोगों को पार्टी का सदस्य बनाने के लिए 2019 में बाकायदा एक लचीला अभियान चला पड़ा था. यानी सी पी पी का मेंबर बनने की पहली शर्त जहाँ आँख मूँद कर पार्टी के प्रति समर्पण का भाव है तो यहाँ भाजपा में खुला दरबार है. भारत में सरकार सुप्रीम पॉवर है तो चीन में असली पॉवर प्रति के हाथों में है. 1949 में जबसे पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना की स्थापना हुई तबसे सीसीपी और चीनी राष्ट्र राज्य एक दूसरे से ऐसे गुंथे हुए रहे हैं कि दोनों एक सुर, लय और ताल के साथ काम करते हैं. दुनिया में राजसत्ता का यह अकेला ऐसा प्रयोग है जहां एक विशाल सदस्यता वाली पार्टी समाज के साथ एकाकार होकर सरकार संभाले हुए है.
इस वर्षगांठ पर सीसीपी की विकास यात्रा पर अगर एक नजर डालें तो कई कारणों से चीन जश्न मनाने का हकदार कहा जा सकता है. पहला कारण आर्थिक विकास है. दरअसल सबसे ज्यादा आबादी वाले देश के नागरिकों को रोटी कपड़ा और मकान के लिये हाथों को काम मिल जाये तो क्या कहने. वो तभी संभव है जब पूंजी का सृजन हो और वो भी इन्किलाब जिंदाबाद के अड़ंगे के बगैर. 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से इस दिशा में चीन ने जो छलांग लगाई वो उल्लेखनीय है. खुद इंटरनेशनल मानिटरिंग फंड के आंकड़े बताते हैं कि 1980 से 2020 के बीच चीन में जीडीपी दिमाग को बौखला देने वाली स्पीड से 80 गुना बढ़ी है. जबकि भारत में इसी दौरान यह वृद्धि 24 गुना और अमेरिका में केवल 7 गुना रही है. इसे सामान्य बोलचाल की भाषा में समझे तो कहा जा सकता है कि चीन में उपरोक्त अवधि में 800 मिलियन गरीबों को उबारा गया. इतिहास में इससे तेज विकास कहीं भी दर्ज नहीं किया गया है. बताया जाता है कि कभी 1800 ईसवीं में दुनिया के व्यापार में चीन की हिस्सेदारी 30 परसेंट हुआ करती थी. इसके बाद राजशाही के दौरान इसमें लगातार गिरावट आयी और 1950 तक न के बराबर रह गयी थी. उसके बाद से लगातार फिर चीनी व्यापार का विकास हुआ और आज फिर से 1800 जैसी न सही दुनिया के व्यापार में चीन की हिस्सेदारी 20 परसेंट हो चुकी है।
खुशी मनाने का दूसरा कारण चीनी सरकार का वैचारिक लचीलापन है. अपने सौ साल के इतिहास में सीसीपी ने अपने अस्तित्व पर आई कई चुनौतियों का मजबूती के साथ सामना किया है. 1927 में च्यांग काई शेक ने कम्युनिस्ट रैंक एंड फाइल को तहस नहस कर दिया था. इसके तीस साल बाद 1957 में चीन ने दुनिया में सबसे भयंकर अकाल, भुखमरी और बीमारी का सामना किया. फिर सांस्कृतिक क्रांति के उथल पुथल भरे दौर में चेयरमैन माओ के तख्तापलट के असफल प्रयास में उनके मनोनीत उत्तराधिकारी लिन बियाओ रहस्यमय तरीके से एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हुई. 1989 में राजधानी बीजिंग के तियानमन चैक में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने लोकतंत्र समर्थकों को काबू में करने के लिये भीषण रक्तपात और हिंसा का सहारा लिया जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये. और सबसे ताजा संकट कोविड 19 का था जिसके बारे में कहा जा रहा था कि यह चीन का चेरनोबिल साबित होगा। पर चीन इस महामारी और अपने ऊपर लगे महामारी को फ़ैलाने के संगीन आरोपों के बाद भी सबसे तेजी से उबर रहा है.
ये सीसीपी की गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली लचीली नीति, ऐतिहासिक आक्रांता छवि पर नियंत्रण और चीन की ऐतिहासिक परंपराओं को अपनी सुविधा के अनुसार नया अर्थ देने के कारण ही संभव हुआ कि अपने जीवन काल में चीन इस तरह की चुनौतियों का सामना करता चला गया. सीसीपी का अपनी आबादी के दिमाग पर नियंत्रण करने का अभियान लगातार जारी रहा है. उसे गलती करने पर भी असहज करने वाले सवालों से बच निकलने की ही कला नहीं आती है बल्कि तीन दशकों में दुनिया भर में बसी उसकी आबादी सीसीपी के प्रति वफादारी का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देती है. इसी इंजीनियर्ड आबादी के दमखम पर राष्ट्रपति शी जिन पिंग दुनिया को धमकी देने की ताकत रखते हैं कि अगर उसके हितों को चोट पहुंचाई तो नौबत खून खराबे की आ जायेगी.
सीसीपी की अपने अस्तित्व को बचाने की यही कला चीन को दुनिया का अकेला एक पार्टी वाला अधिनायकवादी देश बनाये हुए है. बड़ी पार्टियों में आज सीसीपी की टिकाऊ छवि ने कभी अपनी रोल माडल कम्युनिस्ट पार्टी आफ सोवियत यूनियन को भी पीछे धकेल दिया है. इसके परिणामस्वरूप सीपीपी और चीनी जनता में अपनी सरकार को लेकर आज एक उत्सव, विश्वास और भाग्य को लेकर निश्चिंतता का भाव है. चीनियों को लगता है कि उनका दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनने का चाइना ड्रीम दुबारा सच होकर रहेगा.
चीन की सफलताएं और सपने अपनी जगह हैं लेकिन उसके सामने कुछ नयी चुनौतियां भी सर उठा रही हैं. व्यावहारिक बुद्धि और ऐतिहासिक अनुभव यह बताते है कि अक्सर उन्मत्त कर देने वाली आर्थिक वृद्धि टिकाऊ नहीं हुआ करती. निर्माण और निर्यात पर आधारित यह वृद्धि दुनिया में प्रतिस्पर्धी वातावरण के कारण हर समय ऐसी ही नहीं रहने वाली. इसलिये सीसीपी अब घरेलू उपभोग को बढ़ाने की दिशा में सोचने लगी है और अस्थिरता के स्रोत से निपटने के लिये दूसरे किसी सेक्टर के विकास पर ध्यान केन्द्रित करने में लगी है. चीन के सामने आने वाली परेशानियों में तेजी से बढ़ती वृद्धों की आबादी, लगातार पांव पसारती असमानता, खासकर शिनजियांग में बसी जातियों की आकांक्षाओं की आपराधिक रणनीतियों का उभार और हर समय युद्ध के उन्माद वाली विदेश नीति शामिल है.
इस सब के ऊपर चीन पर मंडरा रहा पर्यावरणीय संकट दिनों दिन उसके लिये सरदर्द साबित होता जायेगा. यह अजीब विरोधाभास है कि दुनिया में ग्रीन टेकनोलाजी पर सबसे ज्यादा निवेश करने वाला चीन दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला देश है. यानी चीन इस क्षेत्र में नायक और खलनायक दोनों एक साथ है. चीन के सामने मुंह बाये खड़ी इन चुनौतियों के रोग का निदान इन दो कारकों पर निर्भर करेगा. पहला पार्टी के अंदर साइंस, टेकनोलाजी, इंजीनियरिंग और मैथमेटिक्स के प्रति कट्टरता की हद तक लगाव होना है. टेकनोलाजी के जगजाहिर लाभ के साथ तमाम कमजोरियां भी सामने आयीं हैं. हाथों से काम छिने हैं और चीन में भी भारत की तरह काम करने वाले हाथों की कोई कमी नहीं है बल्कि भारत से ज्यादा ही हैं.
दूसरा ताजा कारक जो सामने आया है वो एक व्यक्ति शी जिन पिंग के हाथों में सत्ता और संगठन का एकमुश्त केन्द्रीकरण होना है. हाल में शिनजियांग प्रांत में ज्यादतियों की नीति और सिविल सोसाइटियों पर करारे प्रहार इन दो कारकों के कारण सामने आये हैं. इसके अलावा चीन के क्रूर महाजनी अवतार ने उसे दुनिया भर में अपयश ही दिया है. जैसा पहले कभी राजशाहियों और जमींदारों के समय हुआ करता था. किसी गरीब देश को कर्जे से लाद कर उसकी जर, जोरू, जमीन को हड़प लेने की प्रवृत्ति ने उसकी सीमाओं में इंच इंच विस्तार की कुनीतियों को दुनिया के सामने बेपरदा कर दिया है.
लंदन की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के रोढिम ग्रुप ने चीन की इस डेब्ट ट्रैप पालिसी की आलोचना करते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह एक तरह से चीन का आर्थिक उपनिवेशवाद है. चीन गरीब देशों को न केवल विकास की आड़ में पहले कर्ज के जाल में फांसता है बल्कि जब कर्ज की रकम अदा नहीं कर पाते उनकी जमीनों को अपने सामरिक लाभ के लिये प्रयोग में लाना शुरू कर देता है. यही नहीं कर्ज के ऐवज में उन गरीब देशों के आधारभूत ढांचे के विकास के ठेके भी वो अपनी उन कंपनियों को देने के लिये बाध्य करता है जिनके डायरेक्टोरियल बोर्ड में सीसीपी के सदस्य महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होते हैं. हालांकि और धनी देश भी इस पालिसी को अपनाते हैं लेकिन मूलतः उनकी शर्तें पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना जैसी छिपी हुई नहीं होती हैं.
वही उसने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में किया जहां से वो अपने महत्वाकांक्षी चाइना-पाकिस्तान इकोनामिक कारिडोर की सड़क बना कर ऐतिहासिक रूप से भारत के इस सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इलाके को हड़पने की मंशा पाले हुए था. पर यह दांव उसे उल्टा पड़ गया और वो अपनी वैश्विक छवि को बचाने की खातिर खून का घूंट पीकर रह गया और उसे अपनी सीपीईसी योजना रद्द करनी पड़ी. तब उसने पाकिस्तान पर दवाब डाला कि वो विश्व मुद्रा कोष से कर्ज लेकर उसका कर्जा चुकाये ताकि इस योजना में फंसी उसकी रकम की भरपाई हो पाये. तभी सारी दुनिया को चीन के इस विस्तारवादी रवैये का पता चल सका. इसके पहले वो तमाम छोटे और गरीब पूर्वी यूरोप, एशिया और अफ्रीकी देशों को कर्जे के जाल में फांस चुका था.
2018 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में चीन के इस काले कारनामे का खुलासा किया कि वो गरीब देशों को बंधुआ बना कर उनके संसाधन और जमीन पर अपना कब्जा जमा रहा है. अंतरराष्ट्रीय दवाब के कारण ही चीन को 2001 से 2017 के बीच देशों को दिये गये ऐसे कर्जों को या तो राइट आफ करना पड़ा या फिर रिस्ट्रक्चर करना पड़ा है. इन देशों में आधारभूत ढांचे के विकास के लबादे में चीन के मल्टी बिलियन डालर के प्रोजेक्ट चल रहे थे. मकसद था आर्थिक विकास और सामरिक दबदबा. एक चतुर चालाक बनिया की तरह इस छीछालेदर से पार पाने के लिये 2019 में आई एम एफ और वर्ल्ड बैंक की तर्ज पर चीन के वित मंत्रालय ने डेब्ट ससटेनेबिलिटी फ्रेमवर्क जारी किया है. कुछ टिप्पणीकार इसे चीन का आर्थिक उपनिवेशवाद कह रहे हैं.
आप भले ही इसे चीन की चालाकी कहें या कूटनीति वो अपने दार्शनिक और आर्ट आफ वार किताब के लेखक लू शुन के बताये रास्ते पर चल रहा है. वो ये है कि युद्ध छिप कर किया जाता है और जीतने के लिये किया जाता है. पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया दो ध्रुवों में बंटी जिसमें एक का मुखिया अमेरिका और दूसरे का रूस हुआ करता था. नब्बे के दशक में रूस के विभाजन के बाद दुनिया का अकेला सरदार अमेरिका रह गया. अब चीन ने माओ त्से तुंग, देंग शियाओ पिंग के बाद अब शी जिन पिंग के राज में सांस्कृतिक क्रांति के बाद पूंजी कमाने के मामले में जिस तरह से पेंगें बढ़ाई हैं. वो उसकी दुनिया का बादशाह बनने की महत्वाकांक्षा को उजागर करती नजर आती हैं. चीन की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों का तो मानना है कि कम्युनिस्ट शासन के सौ साल 2049 में पूरे होने के बहुत पहले ही यानी 2030 तक चीन विश्व का सबसे शक्तिशाली देश होगा.
चीन को इस राह में चुनौती सिर्फ भारत से ही है। चाहे वो मानव संसाधन का मामला हो, चाहे व्यापार का मामला हो या टेकनोलाजी और साइंस का. चीन दुनिया में भले ही हार्डवेयर का बादशाह हो लेकिन साफ्टवेयर के मामले में दुनिया भारत की प्रतिभा का ही लोहा मानती है. चीन के पास सस्ती लेबर और तैयार माल है तो भारत के पास बाज़ार और कद्रदान खरीददार हैं. 1962 में भले ही मात खायी हो पर भारत के सामरिक बल का अंदाज 1967 में और अब डोकलाम, गलवान में उसे भली भांति हो ही चुका है. इस पर भी वो भारत को अस्थिर और परेशान करने मे वो कोई कसर तो बाकी रखने से रहा. हमारे पारंपरिक और मित्र पड़ोसी देशों श्रीलंका और नेपाल को भी चीन ने अपनी डेब्ट ट्रेप पालिसी के जाल में फांस ही लिया था. पर अब भारत के प्रति इन देशों का पुराना नजरिया बहाल होते दिख रहा है. भारत ने अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान के साथ मिल कर क्वाड देशों का समूह बना कर चीन के थल और नभ के साथ जल पर भी कब्जे की दुराकांक्षा पर भी लगाम तो लगाई है.