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रोजगार : अच्छे दिन कब आयेंगे ?

नब्बे के दशक से ही सारी दुनिया में और वर्ष 2004 से भारत में तकनीक पर सवारी ने रोजगार रहित विकास का ऐसा मनहूस मॉडल खड़ा कर दिया है कि सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार विकास का अंतरसंबंध छिन्न भिन्न हो चुका है. यानी मशीन को रोजगार मिला, हर हाथ काम से महरूम हो गया. ऐसे में हमारी सारी नीतियां निर्माण का चक्का घुमाने या ज्यादा पढ़े लिखे युवाओं को सेवा क्षेत्र की दुनिया में सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में होनी चाहिये ताकि ग़रीबों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का इंतजाम हो सके.

अच्छे दिन कब आयेंगे ?
अच्छे दिन कब आयेंगे ?


2014 के लोकसभा चुनाव में एक नारा सिर चढ़ कर बोला था-अच्छे दिन...आने वाले हैं. ये नारा देश के मतदाताओं को ऐसा भाया कि उन्होंने आगा पीछा सोचे बगैर मतपेटी पर निहाल होकर नारा देने वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम के हाथों में अपना भाग्य सौंप दिया. पर इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि देश की जनता इस तथ्य से अनजान रही कि नब्बे के दशक से ही सारी दुनिया में और वर्ष 2004 से भारत में तकनीक पर सवारी ने रोजगार रहित विकास का ऐसा मनहूस मॉडल खड़ा कर दिया है कि सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार विकास का अंतरसंबंध छिन्न भिन्न हो चुका है. यानी मशीन को रोजगार मिला, हर हाथ काम से महरूम हो गया. एक से एक मशीनी संसाधन ने काम संभाल कर मानव संसाधन को बेरोजगार और बेकार कर दिया.

बाद में भले ही सत्तारूढ़ दल ने हरेक के खाते में दस पन्द्रह लाख जमा कराने जैसे वादे को चुनावी या विदेशों में जमा काले धन को परिभाषित करने का जुमला बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया हो लेकिन तब अच्छे दिन का अर्थ अलग अलग लोगों के लिये अलग अलग लगाया गया. एक किसान के लिये उपज का लाभकारी दाम और राजसहायता. उद्यमी को लालफीताशाही से मुक्ति. आम आदमी को भ्रष्टाचार और भय से मुक्ति. पर एक शिक्षित और अर्द्धशिक्षित युवा के लिये तो अच्छे दिन यानी सिर्फ और सिंर्फ एक अदद नौकरी और बढ़ती आय ही थी. दिल बहलाने के लिये ही सही कह सकते है कि बाकी सबको तो कुछ न कुछ प्रसाद मिल ही गया. पर सबसे घाटे में रहा युवा जिसे मानव संसाधन कहा जाता है. वो ऐसे कि नौकरियों के बहुत बुरे दिन आ गये. हर साल दो करोड़ युवाओं को नौकरी देने के वादे पर ऐतबार करना भारी पड़ गया. नौकरियों का ऐसा टोटा पड़ा कि बढ़ने की तो छोड़िये लोगों की लगी लगायी नौकरियां या तो जाने लगीं, या फिर आज वो आधे वेतन पर काम करने को मजबूर हैं.

देश में वाजपेयी युग की समाप्ति के बाद यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के शुरुआती ढाई सालों में नौकरियों पर गाज गिरना शुरू हुई थी जब सांख्यिकी के नक्शे पर विकास तो कुलांचे मारता दिखा लेकिन उसके सापेक्ष नौकरियों का सृजन नहीं हो पा रहा था. पानी के बुलबुले की तरह गरीबी तो घटती दिखी पर वो मनरेगा जैसी आकाश वृत्ति के कारण थी जो लखनउ के नवाब वाजिद अली शाह की दरियादिली सरीखी थी जो मजदूरों द्वारा दिन में बनाये इमामबाड़े को रात में गिरा कर अगले दिन की मजदूरी का इंतजाम किया करते थे. उस योजना का भी हस्र गंवई कहावत में ये हुआ कि 'मांगे जांचे काम चले तो काहे को रंडुआ ब्याह करे.' अर्थात आधी से ज्यादा रकम फर्जीवाड़ा करके अफसर और ग्राम प्रधान डकारते रहे और बाकी जो बचा, उसमें मजदूर काम के बजाय पुलिया पर बैठ के मसाला और दारू में निपटाता गया. कागजों पर नहरों की सफाई, तालाबों की खुदाई होती रही. सो न खुदा ही मिला न विसाले सनम. हां एक काम हुआ ग्राम प्रधानों के चुनाव करोड़ों में होने लगे और सरकारी खजाने से रोजगार देने की योजना ग्रामीण भारत में सामूहिक रिश्वत का एक ऐसा जरिया जरूर बन गयी जिस के सहारे यूपीए को एक और कार्यकाल लूटने खाने को मिल गया।

हां आने वाले सालों में रोजगार के विकास का एक और अस्थायी दौर दिखायी पड़े। वो ऐसे कि जिस दरियादिली के साथ मोदी सरकार उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन के नाम पर बैंकों से छोटे स्तर पर मूंगफली की तरह कर्जे बंटवा रही है उससे लगेगा कि अब हर हाथ को काम मिल जायेगा लेकिन निर्माण का यह मंसूबा भी हवा हवाई साबित हो सकता है। क्रेडिट सुइसे का ताजा अनुमान है कि भारत में एक बिलियन डालर से ऊपर माली हैसियत वाली 100 से उपर इकाइयां अस्तित्व में आ सकतीं हैं जिन्हें बाजारी भाषा में यूनिकार्न कहा जा रहा है. पर इतनी भी कूबत उनमे नही होगी कि लाभ कमाने की बात तो छोड़िये नफा नुकसान बराबर करने लायक साबित हो पायें. भारत सरकार के खजाने में इतना दम नहीं होगा कि वो धैर्य धारण करके एकाध संभावनाशील कंपनियों को भी अरबों डालर का निवेश करके उबार पाये.

निष्कर्ष ये कि भारत का भविष्य अब पूंजी और उद्यमशीलता पर निर्भर रहने वाला है, मजदूरों की भरती पर नहीं. कुछ वामपंथी विचारक पूंजी और तकनीक के बजाय हर हाथ को काम की थ्योरी पर जोर दे सकते हैं पर ये कारगर नहीं होने वाला. अगर भारत टेक्नोलोजी को स्लो डाउन करके मजदूर के हाथ से काम छीनने वाली कुछ तकनीक पर प्रतिबंध भी लगा दे. तो भी उत्पादकता बढ़ानेऔर मुनाफा कमाने की चाहत उद्यमियों को तकनीक की ओर आकर्षित तो करके ही रहेगी. वो काहे को श्रमिकों की मंहगी भर्ती करे और फिर ट्रेड यूनियन के जाल में फंस कर अपना बेडा गर्क करवाए. मुंबई, कोलकाता, कानपुर या नॉएडा के उद्योगों का जैसा हाल प्लांट यूनियनों ने किया वो सबके सामने है. पूरब का मेनचेस्टर कहा जाने वाले कानपुर की कपडा मिलें आज तक ठंडी पड़ी हैं. इसलिए मशीन के बजाय मानव पर दांव लगाना और आधुनिकतम तकनीक की उपेक्षा करना रिस्की होगा. इससे नुकसान न केवल उद्यमी का होगा बल्कि भारत का भी होगा.

अमेरिका में कुछ वर्गों में ताकतवर टेक कंपनियों गूगल, फेसबुक आदि को तोड़ कर टेक्नोलाजी को स्लो डाउन करने की चर्चा चल पड़ी है ताकि तकनीक के आधार पर समाज में उनके द्वारा फैलायी असमानता पर लगाम लगायी जा सके. पर इतिहास हमें सिखाता है कि अकसर अग्रणी तकनीक हमेशा बड़ी कंपनियों की ही बपौती नहीं होती नौसिखिये भी ये कमाल दिखाते रहे हैं. इस नकारात्मक सोच के बजाय हमें इस बात पर गौर करना होगा कि आधुनिक तकनीक भले ही गुणवत्ता वाली नौकरियों को खत्म करती हो पर इसका सकारात्मक पहलू ये भी है कि इससे लागत में चमत्कारिक तेजी से कमी आती है और मूलभूत सामान और सेवा की पूर्ति बड़े छोटे सबको सुलभ हो सकती है. पेटीएम, फोनपे या क्रेड का कमाल देखिये न आज एक पानवाला, सब्जीवाला, चायवाला भी कैश के बजाय ई करेंसी का मजा उठा रहा है.

रोजगार रहित विकास के इस पहलू के दो कारण हो सकते हैं. एक तो अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्थाओं का आधार कृषि से हट कर निर्माण और सेवा क्षेत्र की ओर केन्द्रित होना है. खासकर बैंकिंग, बीमा, न्यूज और किताबों की दुनिया के डिजिटलीकरण से इन सेवाओं की न्यूनतम लागत लगभग न के बराबर हो जाती है. वही परिदृश्य उर्जा क्षेत्र में है जहां जीवाश्म या प्रकृति के मूलधन पर आधारित उर्जा से नवीकरणीय सौर, पवन या पन यानी पानी की शक्ति से संचालित उर्जा की ओर बढ़ने के प्रयासों से न केवल प्रदूषण में कमी आ रही है बल्कि दीर्घ अवधि के लिये मासिक खर्चे में चमत्कारिक बचत होने लगी है. मसलन सौर पैनल लगाने में शुरुआती खर्च के बाद आम आदमी को बिजली कमोवेश जीरो लागत पर उपलब्ध है. कोई अपनी किताब प्रकाशित करवाना चाहता है तो वो मामूली लागत पर ई फार्मेट में छपवा सकता है. दुनिया भर में तकनीक के सहारे 'जीरो मार्जिनल सोसाइटी' की इस विचारधारा को लेखक जेरेमी रिफकिन ने बड़े कायदे से व्याख्यायित किया है.

दूसरा कारण तकनीक के दम पर ही किसी भी उत्पाद में कम से कम कच्चे माल का उपयोग. आज की तारीख में सामान्य रोजमर्रा उपभोग में आने वाली अधिकांश वस्तुओं में कम से कम इनपुट का प्रयोग किया जा रहा है. मसलन सौ साल पहले बनने वाली कारों के मुकाबले आज आधुनिक कार ईंधन कम पीती है, उसकी बाडी में हल्के मैटीरियल का इस्तेमाल हो रहा है और कल पुर्जे भी कम से कम होते जा रहे हैं. इस पूरे चलन पर एंड्र्यू मैकेफी ने भी एक किताब लिख डाली है 'मोर फ्राम लेस' माने ज्यादा से कम की ओर कैसे बढ़ें. शून्य सीमांत समाज और मोर फ्राम लेस की थ्योरी के मिले जुले प्रयास से यह तय है कि साजो सामान की उपलब्धता व्यापक होगी और कम पैसे वाले देशवासी की जेब भी इन उपभोक्ता सामग्रियों की खरीद कर पाने में सक्षम होगी. याद करिये चार साल पहले इंटरनेट के दामों में भारी कमी के चलते ही आज वो गरीब भी मोबाइल पर वीडियो काल कर पा रहा है जो घर की रसोई में टोस्टर या फ्रिज नहीं रख सकता.

लायसेंस परमिट राज के दौर से चले आ रहे जमीन और श्रम के मामलों में अड़ियल रवैये की मेहरबानी से देश सीधे कृषि क्षेत्र से सेवा क्षेत्र में कूद तो गया लेकिन निर्माण क्षेत्र का विकास अधकचरा रह गया. यही वजह है कि भले ही इंटरनेट सेवा स्वदेशी हो पर चलती वो चीनी, कोरियाई, या अमरीकी मोबाइल से है. हाईवे अपने हैं, बसें, कारें और मोटर साइकिलें विदेशी दौड़ रहीं हैं. आंतरिक और सीमा सुरक्षा में सैनिक हमारे, हथियार विदेशी हैं. बचपन से सुनते आये थे कि एक सुई तक तो बना नहीं पाता भारत. हां मेधावी और परिश्रमी डाक्टर, नर्स, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षक, प्लम्बर, इलैक्ट्रीशियन, राजमिस्त्री, लेबर और रनर तैयार करके भारत सेवा क्षेत्र में जरूर दुनिया से प्रतिस्पर्धा कर सकता है.

जहाँ तक देश में कृषि सुधारों के विरोध का प्रश्न है तो आज कई महीनों से किसान यूनियनों और वामपंथी और मध्यमार्गी विरोधी दलों की आपत्ति कानून को लेकर कम इस बात को लेकर ज्यादा है कि अगर ये लागू हो गये तो उनकी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति उड़नछू हो जायेगी. इन कानूनों के लागू हो जाने पर भविष्य में मौजूदा रकबे से कम में भी कम संख्या में किसान ज्यादा उत्पादन करके दिखा सकते हैं. ऐसी दुनिया में जहां तकनीक के सहारे आय का सृजन अधिक होगा तो सरकार को सस्ते माल और सेवाओं की बिक्री से अधिक राजस्व मिलने की संभावना हो सकती है. जाहिर है कि तब सरकार भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुसार मूलभूत खाद्य पदार्थों और सेवाओं को राजसहायता देने की स्थिति में हो सकती है. यूपीए सरकार का सारा जोर नौकरियों के सृजन के बजाया राजस्व बढ़ाने पर था और इसीलिये गरीबी के उन्मूलन के लिये मनरेगा, मुफ्त पढ़ाई जैसे कार्यक्रमों पर खर्च किया जा सका.

तकनीक के इस रोजगार रहित विकास के युग में आज बहस का मुद्दा यह होना चाहिये कि अधिकाधिक नौकरियां दे सकने वाले कौन से ऐसे क्षेत्र है जिन्हें कम नौकरियां देने वाले क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा प्रोत्साहन और सहयोग दिये जाने की आवश्यकता है. तकनीक के किन क्षेत्रों में ऐसी क्षमता है जो कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा मानव संसाधन को नौकरी उपलब्ध करा सकते हैं. उदाहरण के लिये एप आधारित टैक्सी सेवा या होम डिलीवरी सेवाएं. ऐसी उद्यमिता को बढ़ावा जहां से ज्यादा से ज्यादा नौकरियां सृजित हो सकें.

आंकड़ों की नजर से देखें तो मोटा मोटी पूरी दुनिया में इस समय करीब करीब दो अरब लोग यानी एक तिहाई लोग बेरोजगार हैं. अपने देश भारत में श्रम एवं सेवायोजन मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2017 तक सवा तीन करोड़ से उपर लोग बेरोजगार थे. उसके बाद तो लगता है गिनना ही छोड़ दिया गया क्योंकि तब से कोई मासिक, तिमाही या सालाना सर्वे ही नहीं किया गया. वास्तव में आज देश में कितने बेरोजगार हैं इसका अनुमान लगा सकते हैं तो बेरोजगारी की दर से अंदाजा लगा लीजिये जो पिछले चार सालों में ग्रामीण भारत में 7.5 प्रतिशत और शहरी भारत में 9.5 प्रतिशत की दर से सुरसा की तरह मुंह फैलाये हुए थी. अब सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की ताज़ा रिपोर्ट कहती है पचास सप्ताह के बाद ग्रामीण बेरोजगारी की दर 14.34 प्रतिशत और शहरी बेरोजगारी की दर 14.71 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है.

इसका सबसे बड़ा कारण लॉक डाउन को बताया जा रहा है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि ऐसे समय में आर्थिक गतिविधियाँ बंद रहती हैं. हालांकि इस साल रोजगार पर इसका इतना प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा जितना पिछले साल हुआ था. पिछले साल लॉक डाउन के कारण करीब साढ़े १२ करोड़ लोगों को लगी लगाई नौकरी से हाथ धोना पड़ा था जबकि २० करोड़ लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ था. बेशक सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, डाक्टरों. इंजीनियरों, नर्सों, सफाई कर्मियों के संगठित क्षेत्र के रोजगार पर असर नहीं पड़ा. लेकिन कल कारखानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों, खासकर कुटीर उद्योगों के बंद होने से असंगठित क्षेत्र के कामगारों की रोजी रोटी तबाह हुई है. ठेके पर काम करने वाले श्रमिकों को खाने के लाले पड़े हैं. बेशक इस बार आंशिक लॉक डाउन लगाया गया है तो भी आपूर्ति श्रंखला पर बुरा असर पड़ा है. बड़े शहरों से काम के अभाव में मजदूरों के पलायन ने बीमारी को ग्रामीण इलाकों तक पहुंचा दिया है. मध्य वर्ग सहमा है इसलिए उसने बढ़ते स्वास्थ्य खर्च को देखते हुए खपत कम कर दी है. तो जाहिर है इसका प्रभाव उत्पादन पर पड़ेगा.

जबसे भारत में भी औद्योगिक युग ने तकनीकी युग में प्रवेश किया तबसे एक अदद नौकरी गूलर का फूल बनने लगी। पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब का जुमला भी खारिज हो गया. एक दौर था जब पचास साल पहले कम पढ़ा लिखा या अनपढ़ भी किसी प्रभावशाली अफसर या नेता की सिफारिश पर आसानी से जिंदगी गुजारने या परिवार पालने लायक नौकरी पा जाया करता था. एक अनार दो चार या दस बीस बीमारों के लिये काफी हुआ करता था. मगर समय गुजरा आबादी बढ़ी, शिक्षा का प्रसार बढ़ा तो सोचा गया कि नौकरियां मिलना आसान हो जायेगा. पर मर्ज था कि बढ़ता ज्यों ज्यों दवा की। अब अनार एक था तो बीमार सौ नहीं लाखों की संख्या में खड़े नजर आये.

शायद घाघ कवि ने उत्तम खेती इसीलिये कहा होगा क्योंकि कृषि कार्य में पूरा का पूरा संयुक्त परिवार पल जाया करता था और परिवार के हर सदस्य को उसकी क्षमता और योग्यता के हिसाब से काम से काम और भरपेट भोजन घर में ही उपलब्ध था. दिल में सचाई होती थी और सादा जीवन, उच्च विचार के बल पर थोड़े में गुजारा हो जाता था. कृषि युग के बाद जैसे ही औद्योगिक युग ने अपने पांव पसारे कृषि प्रधान भारत के परिवार टूटने लगे और युवा गांव छोड़ कर नयी जिंदगी की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगे मध्यम व्यापार या निकृष्ट चाकरी के लिये. तब भी गनीमत ये थी कि देश के शहरों में भारी भरकम कारखानों में और सरकारी महकमों में पेट पालने लायक काम मिल जाया करता था. भले ही शहर गांवों की उपजाऊ जमीनों को निगल कर गुलजार हुए हों और गांव वीरान.

फिलहाल तो इस चिंतन का यही सार और सत्य है कि अब भारत के नौजवान का भविष्य कृषि, निर्माण या सरकारी क्षेत्र में उतना नहीं रह गया है जितना नब्बे के दशक तक हुआ करता था. गाँव का नौजवान पढ़ लिख कर हाथ में आयी छोटी जोत से न तो परिवार का पेट भर सकता है और उसे घुटन्ना पहन कर खेती करने में लाज भी आती है. निर्माण क्षेत्र ऑटोमेशन की राह चल पड़े हैं सो वहां मानव संसाधन की जरूरत ही नहीं. अब सेवा क्षेत्र ही बचा है जहां ज्यादा से ज्यादा नौजवानों को खपाया जा सकता है. रही बात सरकारी नौकरियों की तो जिस तरह प्रशासनिक सुधार आयोग दफ्तरों को कंप्यूटर से लैस करके मानव संसाधन को कम कर रहे हैं वहां गुंजाइश घटेगी ही. साथ ही सरकार चाणक्य नीति पर अमल करते हुए जैसे जैसे बैंकों, बीमा, या सार्वजानिक क्षेत्र की कंपनियों से पल्ला झाड़ रही है, पेंशन ख़तम कर रही है सो सरकारी नौकरियों पर कैंची चलनी ही है.

ऐसे में हमारी सारी नीतियां निर्माण का चक्का घुमाने या ज्यादा पढ़े लिखे युवाओं को सेवा क्षेत्र की दुनिया में सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में होनी चाहिये. साथ ही सरकार को कल्याणकारी राज्य की भूमिका का निर्वहन करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पूँजी निवेश और राजस्व जुटाने के प्रयास करने होंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा हाथों को काम देने वाले कृषि क्षेत्र और कुटीर उद्योग के लिए राजसहायता का जुगाड़ हो सके. ग़रीबों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का इंतजाम हो सके. हालात बिगड़े जरूर हैं पर संभाले जा सकने की उम्मीद तो रखी ही जा सकती है.

 

 


Published: 22-05-2021

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