एक विस्मृत रचनाकार प्रेमचंद की अर्द्धांगिनी
क्या शिवरानी अधिक बेबाक थी?
यह कहना मुनासिब है कि हिंदी समाज जितना प्रेमचंद को जानता है, उतना वह शिवरानी देवी को नही जानता। वह उन्हें अधिक से अधिक प्रेमचंद की पत्नी या "प्रेमचंद घर में" की लेखिका के रूप में ही जानता है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे अपने समय की महत्वपूर्ण कहानीकार भी थी। वे ऐसी बेबाक और साहसी कथाकार थी, जो स्त्री मुक्ति के मुद्दे पर प्रेमचन्द से आगे का सोचती थी। सहित्य में इस बारे में उन्होंने अपने पति की तुलना में अधिक तीखे सवाल उठाए थे और समाज को बदलने के लिए स्त्री-पुरूष समानता स्थापित करने का पुरजोर आह्वान किया था।
दुर्भाग्य से, हिंदी की दुनिया में उनकी कहानियों की चर्चा नहीं हुई, जबकि उनके दो कहानी संग्रह आजादी से पहले ही छप चुके थे। हिंदी के कथा आलोचकों नामवर सिंह, विजयमोहन सिंह और मधुरेश ने भी इस ओर ध्यान नही दिया। प्रेमचंद घर में पुस्तक उनके कहानी संग्रहों के बाद की रचना है। जब प्रेमचंद अपने लेखन से राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो रहे थे, उसी समय शिवरानी देवी ने भी लिखना शुरू किया था। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी, न ही विवाह से पहले साहित्य में उनकी कोई खास दिलचस्पी थी। लेकिन 1905 में विवाह के बाद प्रेमचंद की सोहबत में साहित्य में उनकी दिलचस्पी विकसित हुई। प्रेमचंद ने उन्हें आगे बढ़ाया और 1924 में जब शिवरानी देवी की उम्र 35 वर्ष थी, तो उनकी पहली कहानी चांद पत्रिका में "साहस" शीर्षक से छपी थी। इस पहली कहानी से ही पता चलता है कि शिवरानी देवी बहुत साहसी और बेबाक थी। तब प्रेमचंद का चर्चित उपन्यास रंगभूमि भी नही आया था। लेकिन सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि प्रेमचंद ने "सौत" शीर्षक से एक कहानी लिखी थी। इसी शीर्षक से शिवरानी देवी ने भी एक कहानी लिखी थी। हालांकि उसका रचना काल और विषय वस्तु अलग है। सब जानते है कि सौत प्रेमचंद की पहली हिंदी कहानी थी और 1915 में छपी थी। उससे पहले वे उर्दू में लिखा करते थे।
प्रेमचंद के हिंदी में कहानी लिखने के नौ साल बाद शिवसानी देवी ने हिंदी में लिखना शुरू किया। प्रेमचंद ने "बूढ़ी काकी" लिखी तो शिवरानी देवी ने भी "बूढ़ी काकी" नाम से कहानी लिखी थी। ये दोनो कहानियां उनके पहले कहानी संग्रह "नारी हृदय'' (1993) में संकलित है। इस तरह शिवरानी देवी ने पांच ऐसी कहानियां लिखी, जिनके शीर्षक प्रेमचंद की कहानियों से मिलते थे। इनमें "पछतावा", "विमाता'', और "बलिदान" जैसी कहानियां है। "पछतावा" और "विमाता" तो "कौमुदी" (1937) में संकलित है। "बलिदान" कहानी अभी तक असंकलित है। यह कहानी 1937 में चांद में प्रकाशित हुई थी। हिंदी का दुर्भाग्य है कि शिवरानी देवी के कहानी संग्रह वर्षों तक अनुपलब्ध रहे। पिछले दिनों नई किताब प्रकाशन ने शिवरानी देवी के दूसरे कहानी संग्रह "कौमुदी" को फिर प्रकाशित किया है। इस तरह करीब 80 साल बाद यह किताब हिंदी जगत के सामने आई है। लेकिन अभी तक नारी हृदय उपलब्ध नही है। इसकी भूमिका लिखने के लिए प्रेमचंद ने बाबू शिवपूजन सहाय से अनुरोध किया था और इस बारे में उनको पत्र भी लिखा था। इससे पता चलता है कि प्रेमचंद चाहते थे कि उनकी पत्नी कहानी के क्षेत्र में आगे बढ़े। लेकिन शिवरानी देवी की किताबें उपलब्ध न होने से उनकी कहानियों पर चर्चा या मूल्यांकन नहीं हो पाया।
अब साहित्य प्रेमियों में शिवरानी देवी की कहानियों को जानने-परखने में दिलचस्पी पैदा हुई है। इसका नतीजा यह हुआ कि इलाहाबाद के हिंदी के शिक्षक तथा आलोचक डाॅक्टर क्षमा शंकर पांडेय ने शिवरानी देवी पर किताब लिखी है। इसमें भूमिका के अलावा आठ अध्याय है और प्रेमचंद के शिवरानी के नाम कुछ पत्र भी है। यह किताब शिवरानी देवी के निधन के 44 साल बाद आई है। सच पूछा जाए तो शिवरानी देवी के कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर हिंदी में यह पहली किताब है, जबकि पूरी दुनिया में प्रेमचंद की किताबों की भरमार है। कया प्रेमचंद की महानता के साये में शिवरानी दब गई? क्या कारण है कि हिंदी समाज ने शिवरानी देवी को विस्मृत कर दिया और एक कहानीकार के रूप में उनकी चर्चा ही नही की गई? यह अलग बात है कि "प्रेमचंद घर में" नामक पुस्तक की हिंदी में बहुत चर्चा हुई। वह प्रेमचंद के जीवन पर पहली किताब थी। तब तक मदन गोपाल, इंद्रनाथ मदान, रामविलास शर्मा या अमृत राय की कोई किताब नही आई थी। हालांकि शिवरानी देवी ने उस किताब में अपने पति प्रेमचंद को नही बख्शा। उनको कटघरे में खड़ा किया है। चाहे पहली पत्नी के बारे में प्रेमचंद का रवैया हो या उनके विवाहेतर प्रेम प्रसंग का मामला हो। उन्होंने अपने पुत्र की तरह अपने पति का महिमामंडन नही किया। यह उनकी बेबाकी और साहस का सबूत है।
शिवरानी देवी ने प्रेमचन्द के व्यक्तित्व के कई अलक्षित पहलुओं के बारे में लिखा है, जिसकी तरफ प्रगतिशील आलोचक ध्यान नही देते या उनकी चर्चा नही करते या उन्हें चर्चा योग्य नही मानते। डाॅ0 पाण्डेय का कहना है कि "प्रेमचंद घर में" प्रेमचन्द की जीवनी ही नही, शिवरानी देवी की आत्मकथा भी है। वे कहते है ‘‘यह किताब हिन्दी साहित्य में एक लेखिका की अपने लेखक पति की पहली जीवनी तो है ही, एक स्त्री के पारिवारिक जीवन का रोजनामचा भी है।’’ उस दौर में ऐसा उदाहरण शायद ही अन्य भारतीय भाषाओं में मिलता हो जब किसी लेखिका ने अपने पति पर कोई किताब लिखी हो। शिवरानी देवी ने आजादी की लड़ाई में भी कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई और 11 नवम्बर 1931 को वे दो महीने के लिए जेल भी गई। वे चाहती थी कि आजादी की लड़ाई में उनके घर से भी कोई जेल जाए। वे अपने बच्चों को जेल नही भेजना चाहती थी क्योकि वे तब बहुत छोटे थे। वे यह भी नही चाहती थी कि उनके पति जेल जाए क्योंकि तब प्रेमचन्द का स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। उन्होने "प्रेमचन्द घर में" पुस्तक में एक बात का जिक्र भी किया है। इससे पता चलता है। शिवरानी देवी केवल आम गृहिणी नही थी, बल्कि वह देश को गुलामी से मुक्त कराने के बारे में भी बड़ी गंभीरता से सोचती-विचारती थी।
अगर उनके दोनो संग्रहो की कहानियों को देखा जाए, तो पता चलता है कि एक लेखिका के रूप में शिवरानी देवी की चिंताएं समाज को लेकर बहुत व्यापक थी। उन्होंने उस जमाने की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार किया है। कई कहानियों में तो उनके पात्र प्रेमचंद के पात्रों से अधिक साहसी, बेबाक और बोल्ड है। प्रेमचंद ने खुद भी स्वीकार किया है शिवरानी देवी का व्यक्तित्व दबंग और साहसी रहा है। डां पाण्डेय ने लिखा है कि ‘‘ शिवरानी जी की कहानियों में ऐसी नायिकाओं की पर्याप्त संख्या है जो कुरीति और अन्याय के विरूद्ध न केवल तनकर खड़ी होती है, बल्कि तमाम परंपराओं को नकारने का भी साहस जुटाती है।’’ कर्म का फल की कांति, साहस की रामप्यारी, विमाता की राधा, वर यात्रा की रामेश्वरी, समझौता की ललिता और वर्ष परीक्षा की निर्मला ऐसी ही स्त्रियां है। बाल विधवा की कांति गांव के लंपट लड़के मोहन की नाक काटकर उसे उसकी लंपटता की सजा देती है। साहस की रामप्यारी भी एक ऐसी ही स्त्री है। बेमेल विवाह की शिकार होने जा रही रामप्यारी पहले तो पत्र के माध्यम से समझाने का प्रयास करती है। लेकिन इसके बाद भी जब वह विवाह मंडप में आ जाता है, तो उसका वर्णन करते हुए शिवरानी जी लिखती है,‘‘ रामप्यारी धीरे से अपने बगल में हाथ ले गई और फिर तनकर खड़ी होकर उसने घूंघट उलट दिया। तड़-तड़ की आवाज से मंडप गूँज उठा। उपस्थित सज्जनों ने चकित होकर देखा, वर के सिर पर जूते पड़ रहे है। किंतु सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यह काम किसी और का नही था, स्वंय वधू ही यह कार्य कर रही थी। 10-15 जूते जमाकर रामप्यारी ने अपने हाथ का पुराना जूता अपने पिता के सामने फेंक दिया और शीघ्रता से बाहर चली गई।’’ऐसा कोई प्रसंग प्रेमचंद की रचनाओं में नही मिलता।
उनकी चर्चित कहानी "बड़े घर की बेटी" की अब आलोचना भी होने लगी है कि प्रेमचंद ने स्त्री को अन्याय के आगे झूकते हुए समझौतावादी क्यों दिखाया। पिछले दिनों हंस के कथाकार संपादक संजय सहाय ने जब इस कहानी को खारिज किया, तो हिंदी साहित्य जगत में इस पर काफी विवाद भी हुआ, पर तब भी साहित्य में साहस की चर्चा कहीं नही हुई। क्या इसलिए नहीं हुई कि हिंदी आलोचना में एक मर्दवादी दृष्टिकोण शुरू से दिखाई देता है और स्त्रियोचित संस्कार के नाम पर प्रेमचंद ने भी भीरू स्त्री पात्रों की रचना की? अब हिंदी में स्त्री विमर्श शुरू होने पर ये प्रश्न उठने लगे है और आलोचना के मानक बदलने लगे है। पुस्तक में शिवरानी देवी के एक अन्य तेजतर्रार स्त्री पात्र राधा का जिक्र किया गया है। राधा अपने दरोगा पति जालिम सिंह से पूछती है, ‘‘आप आदमियों को इतना पीटते क्यों हैं?क्यों उन पर इतनी सख्ती करते है?बच्चा-बच्चा तो आजादी के लिए दीवाना हो रहा है और आप पेट के लिए खुद भी गुलाम बने हुए है और दूसरों को भी गुलाम बनाए रखना चाहते है।’’राधा आगे कहती है, ‘‘इसी सड़क पर से आज बीसियों लाशें गई। कोई पुलिस के डंडे से मरा है, तो कोई घोड़ों के पैरों से। घायलों की तो गिनती ही नही है। सब तुम्हारे नाम को रो रहे थे। तुमने आदमियों को मारने का ठेका लिया है, तो जिलाने का भी ठेका लेना चाहिए था। क्या उस वक्त सो गए थे?तुम नौकरी छोड़ क्यों नही देते, मैं भूखे मरना पसंद करूंगी पर ऐसे अन्याय की रोटियां नही खाना चाहती।’’ डाॅ0 पांडेय ने लिखा है, जब इस राधा का पुत्र आंदोलन में पुलिस की लाठियों से मारा जाता है और लाश घर आती है, तो दरोगा जालिम सिंह रोने लगता है। तब अपने पति से वह कहती है, ‘‘चुप हो पापी, अब क्यों रोता है? यह तेरी ही करनी का फल है। अब तुझे भी मालूम होगा कि बेटे के मरने का दुख कैसा होता है। तूने सैकड़ों घर उजाड़ दिए। फिर अपनी दांव रोता क्यों है? इसी तरह उनके दिलों पर भी चोट लगी होगी। भगवान कैसे न्याय करते है। तुमने बहुत अच्छा किया भगवान, तत्काल फल दे दिया।’’
इससे आपको अनुमान लग सकता है शिवरानीदेवी के भीतर कैसी आग थी और उनमें अन्याय को लेकर प्रतिकार और प्रतिशोध की भावना कैसी थी। वे किसी समझौते में यकीन नही करती है। उनके समकालीन अन्य पुरूष लेखकों ने शायद ही ऐसे पात्रों की रचना की हो। डाॅ0 पांडेय ने शिवरानी की "स्त्रियां" शीर्षक अध्याय में विस्तार से इसकी चर्चा की है। शिवरानी देवी सांप्रदायिकता, राष्ट्र, स्वराज और आजादी के बारे में भी स्पष्ट दृष्टि रखती है। इस मायने में वे प्रेमचंद से तनिक भी कम प्रगतिशील नही है। हत्यारा कहानी में वे लिखती है, ‘‘ स्वराज हत्या करने से नही मिलता, त्याग, तप और आत्म-शुद्धि से मिलता है। लाभ छोड़ते नही, दुर्व्यसन छोड़ते नही, अपनी बुराइयां देखते नही। उस पर दावा है स्वराज लेने का। यह समझ लो जो स्वराज हत्या से मिलेगा, वह हत्या पर स्थिर रहेगा। सामूहिक उद्योग से जो स्वराज मिलेगा, वह राष्ट्र की वस्तु होगी और थोड़े से व्यक्तियों का एक दल तलवार के जोर पर फिर से शासन करेगा। हम साधारण जनता का स्वराज चाहते है, हत्या बल रखने वाले व्यक्ति समूह का नही।’’
इस पुस्तक में शिवरानी देवी के समय की अनेक महिला रचनाकारों का भी विस्तार से जिक्र किया गया है। इसमें बताया गया है कि उस दौर में किस तरह अन्य महिलाएं, कथा के क्षेत्र में सक्रिय थी। लेकिन हिंदी के इतिहासकारों-साहित्यकारों की कोई विशेष चर्चा नही की। न ही कभी किसी ने इस पर रूचि दिखाई। यही वजह है कि वे इतिहास से ओझल हो गई। आज उनका कोई नामलेवा भी नही है। वे सभी उपेक्षा की शिकार हुई। शिवरानी देवी इसी त्रासदी की शिकार रहीं। वे 1976 तक जीवित रहीं पर हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया।