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राहुल की ताजपोशी के साथ बदलेंगे सूबेदार
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : अब जबकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी औपचारिकता मात्र रह गयी है देश के उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों के सूबेदारों के बदलने की भी चर्चा छिड़ गयी है. वजह साफ है कि अब कांग्रेस का नया आलाकमान राज्
राहुल की ताजपोशी के साथ बदलेंगे सूबेदार
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : अब जबकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी औपचारिकता मात्र रह गयी है देश के उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों के सूबेदारों के बदलने की भी चर्चा छिड़ गयी है. वजह साफ है कि अब कांग्रेस का नया आलाकमान राज्यों में अपने मन के प्रदेश अध्यक्ष तैनात करना चाहेगा. मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की सलाह पर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने पार्टी के अंदर गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में उभर कर सामने आये गुट 23 के विरोधी स्वर को थामने के लिये मैराथन बैठक करके उन्हें इस बात के लिये तो राजी कर लिया है कि वो राहुल गांधी की ताजपोशी के सवाल पर अपने जो भी पूर्वाग्रह या दुराग्रह हों उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दें. राहुल गांधी ने भी बैठक में साफ कर दिया कि वो पार्टी के बुजुर्ग नेताओं की शान में गुस्ताखी का कोई इरादा नहीं रखते. इसके बाद राहुल को अगला अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखे जाने पर गुट 23 के असंतुष्ट नेताओं के धड़े ने तालियां बजाने में भले ही साथ न दिया हो मगर मौन रह कर स्वीकृति के लक्षण जरूर दिखा दिये. परंतु उनके माथे पर इस बात को लेकर चिंता की लकीरें अब भी कायम हैं कि सियासत में उनका बुढ़ापा कटेगा कैसे ? गुलाम नबी आजाद हों या आनंद शर्मा या फिर कपिल सिब्बल सबके सब राज्यसभा सदस्य हैं और उनका कार्यकाल देर सबेर खत्म होने को है. राज्यों में कांग्रेस सिमट रही है तो उनकी वापसी की उम्मीदें भी घट रहीं हैं. राज्यों में कांग्रेस उबरे तो उनके आने की गुंजाइश दिखायी दे. कांग्रेस तब उबरेगी जब राहुल गांधी में अपने दम पर चुनाव जिता लाने का माद्दा दिखायी दे. इस नाते ओल्ड गार्ड्स की चिंता अपनी जगह वाजिब है तो उस पर नौजवान नेताओं का दर्द है कि बुजुर्ग जगह खाली करें तो उनकी सियासत को मुकाम मिले. इस कश्मकश को दूर करने के लिये पता चला है कि आलाकमान ने बुजुर्ग नेताओं के आगे चिंतन शिविरों के संचालन की जिम्मेदारी उठाने की पेशकश की है. कुछ कुछ भाजपा के मार्गदर्शक मंडल की तरह के इस फार्मूले को सहज और सम्मानजनक विकल्प माना जा रहा है. ऐसी परिस्थितियों में राहुल गांधी अगर कांग्रेस की कमान संभालते हैं तो निश्चय ही उन्हें राज्यों में सूबेदारी को सबसे पहले दुरुस्त करना होगा. इनमें से सबसे प्रमुख राज्य वो उत्तरप्रदेश है जहां से गांधी परिवार को प्राणदायिनी शक्ति मिलती रही है. गांधी परिवार के इस सबसे मजबूत किले की दीवारें कितनी कमजोर हैं उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी अपनी पारम्परिक अमेठी सीट तक नहीं बचा सके. वो भी तब जब उनकी बहन और राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को उन्होंने उत्तरप्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी थी. प्रियंका ने कांग्रेस के विधायक अजय कुमार लल्लू को सौंपी थी. पिछड़े वर्ग के अजय कुमार लल्लू ने हर मुद्दे पर सड़क पर उतर कर पुलिस से लाठियां खाने का काम तो बखूबी किया पर न तो कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चल पाये और न ही उनमें जोश भर पाये. नये कार्यकर्ता बनाने की बात तो छोड़ ही दीजिये. ऐसे में लल्लू तीन दशक से वनवास भोग रही कांग्रेस को आने वाले 2022 के चुनाव में उसकी खोयी हुई जमीन कैसे दिला पायेंगे इस बात का भरोसा अभी तक वो कांग्रेस आलाकमान को नहीं दिला पाये हैं. अब कांग्रेसी थिंक टैंक का मानना है कि उत्तरप्रदेश में अध्यक्ष के पद पर ऐसा तेजस्वी ब्राह्मण चेहरा उसे चाहिये जो योगी सरकार से धीरे धीरे नाराज होते जा रहे ब्राह्मण मतदाताओं को लामबंद करने की काबिलियत रखता हो. वजह ये है कि उत्तरप्रदेश को आजादी से पहले से 'काउ बेल्ट' कहा जाता रहा है. 1857 की गदर हो या गांधी जी का सविनय आंदोलन या फिर जेपी मूवमेंट उसमें जान आयी तभी जब ब्राह्मण और मुसलमान एक होकर मैदान में उतरे. राजपूत तो सुविधाभोगी होता है और उसमें परिस्थितियां चाहे जो हों राजकाज से तादात्म्य बिठाने की अभूतपूर्व क्षमता होती है आंदोलन की नहीं. आजादी के बाद भी वो कांग्रेस ही थी जिसने सबसे ज्यादा ब्राह्मण मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश को दिये. वो चाहे गोविन्द वल्लभ पंत हों, या कमलापति त्रिपाठी, या हेमवतीनंदन बहुगुणा या नारायण दत्त तिवारी या श्रीपति मिश्र. उस दौरान कांग्रेस के वोट बैंक में ब्राह्मण और मुसलमान कोर वोटर हुआ करते थे. उस पर साथ हुआ करता था दलित मतदाताओं का. ये एक विनिंग काम्बिनेशन था. पिछड़ा वर्ग कभी कांग्रेस का वोटर नहीं रहा. उसे समाजवादी वैचारिक धड़ा अपने हिसाब से हांकता रहा. पहले चौधरी चरण सिंह, फिर मुलायम सिंह यादव और फिर कांशीराम ने तीन दशकों तक पिछड़ों, जाटों, दलितों और मुसलमानों को साध कर कांग्रेस के पारम्परिक वोट बैंक को झकझोर दिया था. पर इन विचारकों, नेताओं की सियासत भी परवान तभी चढ़ी जब ब्राह्मणों ने उनका साथ दे कर कांग्रेस को सबक सिखाने का फैसला किया. मगर इन समाजवादी या यूं कहें जातिवादियों ने ब्राह्मणों और मुसलमानों को तीसरे चौथे नंबर पर ही रखा ज्यादा करीब नहीं फटकने दिया. जातिवाद के उभार से उकता कर ही ब्राह्मण मतदाता ने बड़ी उम्मीदों के साथ भाजपा को अपना लिया था. पर भाजपा में भी राजपूतों और पिछडों दलितों को तरजीह मिली. मुसलमान तो उत्तरप्रदेश में अपने को दीवार से लगा मान कर चल ही रहा था. ब्राह्मण भी अपने को ठगा से महसूस करने लगा. आज से नहीं दरअसल अरसे से खासकर नब्बे के दशक में कद्दावर नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या के बाद से ही भाजपा ने भी समरसता के नाम पर पिछड़ों और दलितों का सहारा लेना शुरू कर दिया. 2017 में ध्रुवीकरण के चलते ब्राह्मण को फिर भी लगा कि चलो भाजपा को ही गले लगाया जाये. तीन सालों के भाजपा राज में ब्राह्मण को उपेक्षा का ही एहसास हुआ है. इसी गणित को ध्यान में रखते हुए उत्तरप्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी ने प्रदेश अध्यक्ष पद के लिये अब वाराणसी के पूर्व सांसद राजेश मिश्रा का नाम आगे बढ़ाया है. राजेश मिश्रा वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके हैं. पर एक ब्राह्मण नेता के रूप में उनका व्यापक असर नहीं है और उन्हें उनके ही क्षेत्र में आश्वासन गुरू का कहा जाता है. प्रमोद तिवारी की बेटी आराधना मिश्रा कांग्रेस विधानमंडल दल की नेता भी एक युवा ब्राह्मण चेहरा हैं. पर अभी उनका वो कद नहीं हो पाया है कि अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल पायें. कांग्रेस के खीसे में अध्यक्ष पद के लिये एक और प्रभावशाली ब्राह्मण चेहरा ललितेशपति त्रिपाठी का है जो पूर्व मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र, पूर्व मंत्री लोकपति त्रिपाठी के पौत्र और पूर्व विधायक राजेशपति त्रिपाठी के पुत्र हैं. ललितेशपति न केवल युवा नेता है बल्कि उनके परिवार का काउ बेल्ट में आज भी खासा प्रभाव है और उनका नाम आदर से लिया जाता है. शाहजहांपुर में कुंवर जितिन प्रसाद भी वैसे कांग्रेस का एक ब्राह्मण चेहरा हैं पर त्रासदी ये है कि उनको कोई ब्राह्मण नेता ही नहीं मानता. एक और ब्राह्मण चेहरा पूर्व सांसद डा. विनय कुमार पांडे का है जिनका देवीपाटन मंडल से लेकर पूरे पूर्वांचल में व्यापक असर है. स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से संबंध रखने वाले बिन्नू भइया के नाम से मशहूर इस नेता को भी मजबूत ब्राह्मण चेहरा माना जा रहा है. यहां गौरतलब ये है कि चाहे राजेशपति त्रिपाठी हों या राजेश मिश्रा या विनय कुमार पांडे ये तीनों नेता जब चुनाव जीते उस समय सलमान खुर्शीद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे. साफ है कि ब्राह्मण और मुसलमान को अगर इनमें से कोई चेहरा साथ ला पाये तो मायावती के लगातार छीजते जनाधार के चलते उत्तरप्रदेश में दलित मतदाता को आते देर नहीं लगेगी और कांग्रेस की बल्ले बल्ले हो जायेगी. उत्तरप्रदेश के अलावा बिहार, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में भी अध्यक्ष बदले जाने की चर्चा है. अब देखना ये है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर राहुल गांधी की निष्कंटक ताजपोशी के बाद सूबों में परिवर्तन का उंट किस करवट बैठता है. इस पूरी प्रक्रिया में अहमद पटेल की रुखसती के बाद कांग्रेस में उभरे असंतोष को थामने में सलमान खुर्शीद, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अशोक गहलोत और पवन बंसल की सकारात्मक भूमिका रही है.
Published:
21-12-2020