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दुविधा से मुक्ति की राह पर है कश्मीर

रजनीकांत वशिष्ठ : लखनऊ : आज से 2600 वर्ष पूर्व हिमालय की गोद में बसा कश्मीर एक स्वतंत्र राष्ट्र हुआ करता था. सनातन और बौद्ध संस्कृति यहां की पहचान हुआ करती थी. मुग़ल, अफगान ने भी अपना असर छोड़ा. तब से लेकर आज तक मीठे पानी की नदियों-रावी, चिनाब, तावी, स

दुविधा से मुक्ति की राह पर है कश्मीर
दुविधा से मुक्ति की राह पर है कश्मीर
रजनीकांत वशिष्ठ : लखनऊ : आज से 2600 वर्ष पूर्व हिमालय की गोद में बसा कश्मीर एक स्वतंत्र राष्ट्र हुआ करता था. सनातन और बौद्ध संस्कृति यहां की पहचान हुआ करती थी. मुग़ल, अफगान ने भी अपना असर छोड़ा. तब से लेकर आज तक मीठे पानी की नदियों-रावी, चिनाब, तावी, सिंधु और झेलम, नयनाभिराम झीलों, फलों और मेवों से लदे बागानों और साफ प्राणवायु से सज्जित इस स्वर्ग ने न जाने कितने राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक बदलाव के रक्तरंजित थपेड़ों को सहा है फिर भी अपनी खास कश्मीरियत के दम पर आज भी अपनी नैसर्गिक आभा के साथ बदस्तूर कायम है. कश्मीर के इतिहास के गलियारों में बहुत पीछे जाने के बजाय आज यहां हम उस बड़े बदलाव पर एक नजर डाल रहे हैं जो एक साल पहले ही यहां भारत के निजाम ने लागू किया है. वो बदलाव आया पिछली 5 अगस्त 2019 को जब संसद ने संविधान के आर्टिकल 370 और 35 ए को समाप्त करके इस राज्य को उस दुविधा से आजाद कर दिया जो आजादी के बाद से उसे खाये जा रही थी. वो दुविधा ये थी कि इस विशेष दर्जे के प्रावधान के चलते वहां का अवाम तीन हिस्सों में बंटा हुआ दिखता रहा. एक वो जो ये मानते थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच बंटा पूरा कश्मीर एक आजाद देश होना चाहिये. दूसरे वो जिनका रुझान था कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिये और तीसरे वो जो भारत के साथ रह कर ज्यादा सुकून महसूस किया करते थे. भारत ने इस विशेष दर्जे को समाप्त करके सारी दुनिया और कश्मीरी अवाम को यह साफ संदेश दे दिया कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और यहां वहीं कानून लागू होंगे जो देश के अन्य राज्यों के लिये हैं. इसी विशेष दर्जे के चलते कश्मीरी अवाम कभी भी भारत की मुख्यधारा के साथ एकरस नहीं हो पा रहा था. अब वो मानसिक थक्का निकाल दिया गया है. एक और काम ये हुआ कि इसके पहले जो रियासत कश्मीर, जम्मू और लद्दाख को मिला कर थी उसे भौगोलिक और जनसांख्यिकीय आधार पर तीन टुकड़ों में बांट दिया गया ताकि प्रशासन सहज और सुगम हो सके. अब इस बदलाव के एक साल पूरा होने पर तीन सवाल उभर कर सामने आते हैं. एक-क्या तत्कालीन परिस्थितियों में यह बदलाव बेहद जरूरी हो गया था ? दो-क्या इससे बिगड़ते हालात को संवारने में मदद मिली ? तीन-आने वाले चुनौतीभरे समय मे ये बदलाव वहां भूराजनीति, आंतरिक सुरक्षा, समन्वय प्रक्रिया और बाशिदों के मानस पर क्या असर डाल सकते हैं ? इन तीन सवालों की कसौटी पर अगर देखा जाये तो वहां से इन धाराओं को हटना कश्मीरियों के दिमाग से फितूर निकालने के लिये जरूरी हो गया था जो पाकिस्तान 30 सालों से छद्म युद्ध छेड़ कर भारतीय हिस्से में बसे कश्मीरी नौजवानों के दिलो दिमाग में भरता आ रहा था कि इंडिया अलग है कश्मीर अलग. इस पैमाने पर अगर देखा जाये तो इंडियन मिलिटरी इंटेलिजेंस के रिटायर्ड कर्नल विपिन पाठक के मुताबिक पहले के मुकाबले बीते साल कश्मीर घाटी में हिंसा की घटनाएं कम हुईं, पत्थर मार गिरोह की हरकतों पर लगाम लगी, ज्यादा आतंकवादियों को कब्र में सुलाया गया, आतंक के अर्थतंत्र का गला कसा दिया गया, खुफिया सूचनाओं का प्रवाह बढ़ा और पाक अधिकृत कश्मीर से आतंकियों की आमद पर ब्रेक लगा है. केन्द्र सरकार ने पूरे देश जैसा कानून लागू करने के वास्ते तत्कालीन जम्मू कश्मीर राज्य के 354 कानूनों में से 164 कानून समाप्त किये, 138 कानून संशोधित किये. साथ ही केन्द्र के 170 कानून लागू किये. कर्नल पाठक के अनुसार आंकड़ों की निगाह से देखें तो 1 जनवरी से 20 जुलाई 2020 के बीच ग्रेनेड हमले की 21 वारदातें हुईं जबकि इसी अवधि में 2019 में 52 वारदातें हुईं थीं. 1 जनवरी से 15 जुलाई के बीच 2019 में जम्मू कश्मीर में आतंकवादी वारदातों में 75 सुरक्षा कर्मियों और 22 नागरिकों ने अपनी जानें गंवायी थीं जबकि इसी अवधि में 2020 में केवल 35 जवानों और 22 नागरिकों की जान गयी। 1 जनवरी से 20 जुलाई 2020 के दौरान आईईडी विस्फोट की केवल एक वारदात घाटी में हुई जबकि इसी दौरान 2019 में 6 विस्फोट किये गये थे. 1 जनवरी से 20 जुलाई 2020 के बीच कश्मीर में 148 आतंकवादियों का सफाया किया गया. इनमें से 14 इस्लामिक स्टेट आफ जम्मू कश्मीर और गजवातुल हिंद के सदस्य थे और बाकी हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर ए तोयबा और जैश ए मोहम्मद से ताल्लुक रखते थे. सुरक्षा बलों ने न केवल हिजबुल कमांडर रियाज नायकू, लश्कर कमांडर हैदर, जैश कमांडर कारी यासिर और अंसार गजवातुल हिंद के बुरहान कोका जैसे दुर्दांत आतंकवादियों का सफाया किया बल्कि 15 जुलाई 2020 तक आतंकवादियों के छिपने के 22 ठिकानों को ध्वस्त कर दिया. जम्मू एंड कश्मीर में 4 लाख से ज्यादा लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट जारी किये गये. पहले चरण में विभिन्न विभागों में भर्तियों के लिये 10000 से ज्यादा खाली जगहों की पहचान की गयी. पहाड़ी बोलने वाले लोगों के लिये 4 परसेंट, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये 10 परसेंट आरक्षण का इंतजाम किया गया वो भी केन्द्र सरकार के सातवें वेतन आयोग के फायदों के साथ. 1080 करोड़ रुपये का प्रावधान करके कश्मीरी विस्थापितों के लिये 3000 सरकारी नौकरियों की व्यवस्था की गयी. विकास के मोर्चे पर पचास सालों से लटकी पड़ी शाहपुर-कांडी बिजली और सिंचाई परियोजना पर काम शुरू हो गया. म्यूनिसिपल कमेटियों को अब पांच करोड़ रुपये तक की परियोजनाओं को मंजूरी देने का अधिकार मिला. जम्मू एंड कश्मीर के सीमावर्ती इलाकों में 6 पुलों का उद्घाटन किया गया. 15 नयी बिजली परियोजनाओं का उद्घाटन किया गया और 10000 करोड़ रुपये की लागत वाली 20 और परियोजनाओं की आधारशिला रखी गयी. इसके अलावा जम्मू एंड कश्मीर शासित क्षेत्र के विकास कार्यों के लिये 80000 करोड़ रुपये का पैकेज मंजूर किया गया है. इस रकम से वहां आई आई टी, आई आई एम, एम्स जैसे संस्थान और रोड ट्रांसपोर्ट, एनर्जी और सिंचाई सुविधाओं के विकास पर काम किया जाना है. ये सब सकारात्मक परिवर्तन तो हुए पर हार्टिकल्चर, हैंडीक्राफ्ट और टूरिज्म के क्षेत्र में नौकरियों का नुकसान हुआ है. राजनीतिक नजरबंदी का विरोध हुआ है और केन्द्र सरकार ने राजनीतिक समाधान की दिशा में अभी तक कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया है. दैनिक कश्मीर टाइम्स के एडिटर प्रबोध जामवाल मानते हैं कि यहां पालिटिकल प्रासेस जब तक शुरू नहीं होगी तब तक बहुत सकारात्मक नतीजे सामने नहीं आ पायेंगे. समूचे राजनीतिक तंत्र पर पहरे, नेताओं की गिरफ्तारियां, नागरिक अधिकारों में कटौती, धारा 144, संचार पर काबू से वहां का अवाम क्या सोच रहा है इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल होगा. पहले से ही देश में सबसे ज्यादा बेरोजगारी की मार झेल रहे कश्मीरी नौजवानों में चिंता है कि डोमिसाइल आसान कर देने से राज्य से बाहर के लोग फायदा उठा ले जायेंगे. यही नहीं कश्मीरी अवाम को इस बात से भी परेशानी है कि अब देश का कोई भी नागरिक यहां जमीन खरीद सकता है. इससे धनी लोग वहां बस जायेंगे. कहीं ऐसा न हो कि इस पर्वतीय क्षेत्र का पर्यावरणीय संतुलन दांव पर लग जाये. श्री जामवाल कहते हैं कि बाहरियों को 5 से 9 गुना ज्यादा बोली पर खनन के ठेके देने से उपभोक्ताओं के लिये ईंटा, बालू, पत्थर के दाम आसमान छू रहे हैं. उस पर कमाई और काम धंधा चौपट है. कश्मीर चैम्बर के अनुसार अगस्त 2019 से दिसम्बर 2019 के बीच घाटी में 18000 करोड़ रुपये का घाटा हुआ जो कोविड 19 की कृपा से जुलाई 2020 तक से 40000 करोड़ तक जा पहुंचा है. सुरक्षा के मोर्चे पर बेशक एक साल में 150 आतंकी मारे गये पर 200 नयी भर्तियां भी हो गयीं हैं. उत्तर पश्चिम में पाकिस्तान से सीमा पर तनाव लगातार कायम था ही उस पर चीन से पूर्व में नया मोर्चा खुल गया है. जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में जन सांख्यिकीय बदलाव का खतरा मंडराने लगा है और अवाम मनोवैज्ञानिक दवाब में है. कश्मीर के सूरतेहाल के जानकार श्रीनगर के पुराने बाशिंदे नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि पाकिस्तान और चीन के जबड़ों में फंसा कश्मीर कराह रहा है. यहां तीन तरह के लोग हुआ करते थे. प्रो कश्मीरी, प्रो इंडिया और सेपरेटिस्ट. तीनों एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहे हैं. मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियां पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के नेता मुंह दिखाने लायक नहीं रह गये हैं. ऐसे में सेपिरेटिस्ट सिर उठा कर चल रहे हैं और कह रहे हैं कि देखो हम ही विश्वास के लायक हैं. अवाम भौंचक है कि किधर जाये. उनका दावा है कि पंचायत चुनाव आंखों का धोखा है. 30 परसेंट पंचायतों में चुनाव हुआ ही नहीं. आतंकियों के दर के मारे निर्विरोध भी लोग लड़ने को तैयार नहीं हुए. लालच में जो लड़े तो साउथ कश्मीर के पंच सरपंच पहलगाम और नार्थ कश्मीर के गुलमर्ग के होटलों में छिपे बैठे हैं. आतंकियों के डर से अपने अपने गांव तक नहीं जा पा रहे हैं. यहां के 80 परसेंट नेता ऐसे ही हैं. एक साल में विकास जो हुआ सो हुआ है पर सुरक्षा खर्चों में और बढ़ोतरी हो ली है. व्यावहारिक स्तर पर देखें तो विशेष दर्जा खत्म होने से कश्मीरी को कोई फायदा नहीं मिला. कश्मीरी बाशिंदे का मानना है कि दुनिया के पैमाने पर कश्मीर का जो भूत चालीस पचास सालों से सोया पड़ा था उसे भाजपा ने फिर से जिंदा कर दिया है. अमेरिका हो या चीन सब मध्यस्थता करने को आमादा हैं. पर ये भी सच है कि इतने सालों से पनप रहे कैंसर का एक साल में इलाज नामुमकिन ही है और हथेली पर सरसों नहीं जमाई जा सकती. गिलगित-बाल्टिस्तान और पीओके पर भारत के बोल्ड स्टैंड को दुनिया भर का मौन समर्थन मिलना एक बडी बात है. ऐसा लगता है कि एक साल सबको संतुष्ट न कर पाने के बावजूद कश्मीर की पथरीली जमीन पर शांति की दूब हरियाने लगी है. एक साल आई इ एस अफसर मुर्मू द्वारा प्रशासन की आइलिंग-ग्रीसिंग के बाद वहां एक राजनेता मनोज कुमार सिन्हा की उपराज्यपाल के पद पर नियुक्ति उस बहुप्रतीक्षित पालिटिकल प्रोसेस की शुरुआत मानी जा सकती है जिससे वहां के अवाम के अंदर भरोसा कायम किया जा सके. काम मुश्किल है और समय भी लगेगा पर नामुमकिन नहीं. भारत के भाल को संवारने की कोशिश कभी न कभी किसी न किसी को तो करनी ही थी. सो वो हो चुकी है।

Published: 09-12-2020

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