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थोड़े में गुजारा करो, जियो और जीने दो

रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : इंसान अगर विज्ञान का दम्भ त्याग कर स्वार्थ को तिलांजलि देकर फिर से थोड़े में गुजारा करने का हुनर सीख जाये तो हम आने वाली पीढ़ियों के लिये पृथ्वी को रहने लायक छोड़ कर जा सकते हैं. गौर करें कि कोई भी धर्म हो आज भी इनसान ज

थोड़े में गुजारा करो, जियो और जीने दो
थोड़े में गुजारा करो, जियो और जीने दो
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : इंसान अगर विज्ञान का दम्भ त्याग कर स्वार्थ को तिलांजलि देकर फिर से थोड़े में गुजारा करने का हुनर सीख जाये तो हम आने वाली पीढ़ियों के लिये पृथ्वी को रहने लायक छोड़ कर जा सकते हैं. गौर करें कि कोई भी धर्म हो आज भी इनसान जिन मूल्यों पर चल कर जीवनयापन कर रहा है उनकी रचना का काल वो था जब केवल मानवीय चेतना थी, मशीन का नामोनिशान नहीं था. सभी सम्प्रदायों, विचारों में मूल तत्व यही रहा कि कोई एक सुपर पावर है जो अंतरिक्ष से लेकर पृथ्वी तक सभी जीवों, वनस्पतियों और पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों के बीच एक ऐसा सुंदर संतुलन साधे हुए है जैसे कोई दक्ष प्रबंधक किसी इकाई का कामकाज संभाले रहता है. ईसा से पांच हजार साल पहले ही हमारे ऋषि अर्थवन ने अथर्ववेद में मंत्रों से चेताया था कि पृथ्वी हमारी माता तो है पर यहां 'हम' का अर्थ विराट है। 'हम' में नदी, सागर, पोखर, पहाड़, वन, मनुष्य और चौरासी लाख प्रजातियों के जीव और वनस्पति की अरबों प्रजातियां सम्मिलित हैं. डार्विन की जीवन की विकास श्रंखला में एक कोशिकीय जीव से विकसित होते होते जब मानव की दुर्लभ काया सामने आयी तो उसने अपने मस्तिष्क के बल पर अपने को फिटेस्ट प्राणी साबित कर दिया. यही नहीं उसने सब पर राज करने की आकांक्षा और कुनीति के चलते यह स्थापित करना भी शुरू कर दिया कि अगर वो सबसे फिट है तो केवल वही सरवाइव कर सकता है. बाकी सब यानी जीव जन्तु, पेड़ पौधे, हवा पानी, जंगल पहाड़, नदी पोखर सागर से लेकर जमीन और आकाश तक उसके गुलाम हैं और उसकी दया पर हैं। उसका कहा मानेंगे तो ठीक वरना ताकत के नशे में चूर इनसान उन्हें तबाह कर देगा. क्यों ? क्योंकि विज्ञान की ताकत उसके पास है. इसी ताकत के बल पर इनसान धीरे धीरे इनसान से ही भरोसा कम करके मशीनों पर भरोसा जताता चला गया. गाय, बैल, गधा, घोड़ा, खच्चर, उंट, हाथी जो कभी युद्ध तो कभी शांति काल में इनसान के साथी हुआ करते थे. अब ये सब ही नहीं मानव संसाधन यानी कमजोर इनसान भी बेकार और बेरोजगार हैं. बीसवीं सदी तक मनुष्य, पशु पक्षियों और प्राकृतिक संसाधनों का जो सुंदर संतुलन कायम हुआ करता था. वो अब टूट गया है. पशु क्या मनुष्य की जगह मशीनों ने ले ली है. मतलब क्या इक्कीसवीं सदी मशीनों की होगी और हाड़ मास के इनसान, जीव जन्तु ही नहीं वनस्पतियां भी विलुप्त हो जायेंगे. ऐसा हुआ भी है और अब तक चार लाख से ऊपर पशुओं और वनस्पतियों की प्रजातियाँ आधुनिक विकास की भेंट चढ़ कर विलुप्त हो चुकीं हैं. महात्मा गांधी ने भी चेताने वाले स्वर में कहा था कि पृथ्वी पर सबकी आवश्यकता की पूर्ति के लिये सब कुछ है पर किसी के लालच के लिये नहीं. ये लालच और पूंजी जमा करने की हवस ही है कि आज पृथ्वी की हवा और उसके पानी में जहर घुल रहा है और हम और हमारे दूर दृष्टि दोष के बीमार नीति नियंता आंख पर पट्टी बांधे कोल्हू के बैल की तरह एक ही दायरे में चलते चले जा रहे हैं. यह वेद पुराणों की ही सीख है कि पुरुषार्थ से जो भी कमाया जाता है उसमें जगत के हर प्राणी का भाग होना चाहिये. अगर ऐसा नहीं किया जाता तो यह चोरी के समान है. बीसवीं सदी में भारत के गांवों कस्बों की रसोइयों में देखा है हमने कि सेवादारों, गाय, कुत्ता, पक्षी, मछली के भोजन का अंश निकाला जाता रहा है. पर आज इक्कीसवीं सदी की पैदाइश का उसूल है 'मेरा पेट हाऊ, मै न दूंगा काऊ.' यह विडम्बना है कि आज मदर डे, फादर डे से हमें याद आता है कि हमें उन माता पिता के लिए भी कुछ करना चाहिए जो हमें धरती पर लाये. अलबत्ता ऐन्द्रिक प्यार के लिये वेलैन्टाइन पूरे सप्ताह हाजिर है. बहरहाल पृथ्वी मां को याद करने के लिये भी 1974 से एक दिन 5 जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है. प्रति पल प्रकृति के सहारे ही जिंदा हैं हम इसे याद रखने के लिये इतना ही काफी है कि जो अन्न हम खाते हैं, जो पानी हम पीते हैं, हमारे जिंदा रहने लायक जो जलवायु है वो पृथ्वी की ही देन है. आगे से अगर हमें खुद की चिंता करनी है तो प्रकृति की चिंता भी करनी पड़ेगी. अपनी ही नहीं अपने बच्चों की खातिर हमें पृथ्वी को संभाल कर रखना है. अन्य ग्रहों पर आवास के लिये भटकने से पहले पृथ्वी और उस पर बसे चराचर जीवन की रक्षा के लिये 'सर्वे भवंतु सुखिनः' की भावना के साथ संगठनों, व्यापार जगत, नागरिकों, सरकारों, गुरुकुलों और धार्मिक संगठनों को जागना होगा, समस्या की गंभीरता को समझना होगा और आवाज उठानी होगी. यह एक सुखद संकेत है कि विश्व के 143 देशों ने पर्यावरण रक्षा के लिये जागरूकता पैदा करने और उस दिशा में कार्य करने का प्रण किया है. आज की तारीख में पर्यावरण के मुख्य मुद्दे ये हैं। एक-नदी, पोखर, सागर के जल का प्रदूषण। दो-पृथ्वी पर बढ़ती आबादी। तीन-विश्व का बढ़ता तापमान। चार-टिकाउ उपभोग। पांच-वन्य जीव अपराध। ये सारे मुद्दे पृथ्वी पर जीवन की संभावना को लगातार क्षीण कर रहे हैं। मनुष्य क्या सभी जीव जंतु और वनस्पति पानी के बगैर नहीं रह सकते. मनुष्य के शरीर में तो 70 परसेंट पानी ही है. पानी अगर प्रदूषित होगा तो तमाम तरह की बीमारियां हमलावर हो जायेंगी. हमारे वैज्ञानिक पृथ्वी के अलावा अभी तक रहने लायक कोई और ग्रह ऐसा नहीं खोज पाये हैं जहां पानी हो. इसलिये जल ही जीवन है. कवि रहीम ने तो बहुत पहले ही कह दिया था - रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून. पानी बिना न ऊबरे मोती, मानुस, चून. पृथ्वी पर बढ़ती आबादी ने परेशानी इसलिये पैदा की है क्योंकि हमारे प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं. जाहिर है हरेक के हिस्से में पहले जितना दाना पानी आता था अब उतना कहां से आयेगा. अपने हिस्से के लिये इनसान स्वार्थी होता जायेगा, लड़ेगा, झगड़ेगा, हिंसा पर उतारू हो जायेगा. एक तरफ आबादी बढ़ने से मानव संसाधन बढ़ेगा पर मशीनों पर अत्यधिक निर्भरता से हाथों से काम छिनेगा. अपना हिस्सा पाने के लिये धर्म, रंग, नस्ल, जाति के भेद उभरेंगे. सामूहिक हिंसा के दृश्य सामने आयेंगे. वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि होगी और जीवन जीना दुश्वार होता चला जायेगा. वैश्विक तापमान बढ़ने या ग्लोबल वार्मिंग के खतरे भी सामने आने लगे हैं. बर्फ के ग्लेशियर पिघलने लगे हैं. समुद्र के किनारे बसे गांव-कस्बे -शहरों के डूबने के खतरे सामने हैं. जहां पहले बहुत ज्यादा बारिश होती थी वहां अब सूखा है. जहां सूखा था वहां बारिश होने लगी है. जलवायु चक्र में परिवर्तन दिखायी दिया है. ईंधन और एयर कंडीशनिंग ने पृथ्वी की मारक किरणों से रक्षा करने वाली ओजोन की छतरी में जगह जगह छेद कर डाले हैं. अल्ट्रा वायलेट किरणों से फ्लोरा और फौना दोनों का हाल बेहाल हुआ है. टिकाउ उपभोग की आज जरूरत इसलिये ज्यादा है क्योंकि प्लास्टिक का कचरा सारे विश्व के लिये परेशानी बन गया है. पहले गांव देहातों के परम्परागत भोज का आयोजन पत्तलों, दौनों, सरैयों और कुल्हड़ों में हो जाया करता था. ढाक के पत्ते और माटी दोनों ही पर्यावरण मित्र हैं. निस्तारण उनका न भी हो पाये तो मिट्टी में मिल कर खाद बन जाते हैं. आज प्लास्टिक का रोजमर्रा के सामान का कचरा शहर से लेकर गाँव तक पटा पड़ा है. खेतों के गर्भ से लेकर नदी, पोखर, नाले, नालियों से लेकर सागर और पशुओं के पेट में समाता जा रहा है. जीवन में काम आने वाली अधिकांश वस्तुएं आज प्लास्टिक के भरोसे है. इस कचरे का अगर निस्तारण न किया जाये तो सैकड़ों साल तक यह यूँही बना रहेगा. इसका निस्तारण भी एक अलग समस्या है. कम्प्यूटर, मोबाइल का कचरा आज इतनी बड़ी समस्या है कि धनी देश अपने यहां के कचरे को गरीब देशों में निस्तारित करके सांस ले पा रहे हैं. पर कबाड़ का ढेर बन रहे उन गरीब देशों का क्या होगा ? आबादी बढ़ने के कारण आवास के लिये इनसानों ने जंगलों का रुख किया है. जंगलों को साफ करके वो अपने लिये घर तो बना ले रहे हैं परंतु जंगलों में रहने वाले मूल निवासी आदिवासियों और जानवरों को बेघर होना पड़ रहा है. इसके कारण शहरवासियों और वनवासियों के बीच संघर्ष बढ़ा है. साथ ही जानवर शहरों की ओर भोजन पानी के लिये निकल रहे हैं जो पहले उन्हें जंगलों से ही मिल जाया करता था. नतीजा ये है कि मैदानी किसान शिकायत कर रहा है कि बंदरों, सुअरों, नीलगायों, हाथियों ने उसकी खेती बरबाद कर दी है. किसान अपनी जगह सहीं हैं पर यह भी सोचा जाना चाहिये कि ऐसी नौबत ओवर पॉपुलेशन की वजह से आयी न. इसलिये अब भी समय है चेत जाओ और ऊपर के मुद्दों पर मिल बैठ कर गंभीरता से विचार करो और कोई समाधान निकालो. पर्यावरण दिवस पर वर्ष 2020 के लिये विश्व बिरादरी ने जो थीम या विषय निर्धारित किया है वो है-आओ जैव विविधता का उत्सव मनायें. भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मन की बात में इसी जैव विविधता का उल्लेख किया भी था. वैसे भारत जैसे 17 भाषाओं और 250 बोलियों वाले देश ने आज़ादी के बाद से अब तक जिस खूबी के साथ विविधता में एकता के दर्शन कराये हैं उसके आधार पर वो पर्यावरण की रक्षा के क्षेत्र में एक मिसाल कायम कर सकता है।

Published: 06-05-2020

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