अमेरिका का अफगानिस्तान से जाना क्या भारत का सरदर्द बढ़ाएगा
कर्नल विपिन पाठक (रिटायर्ड) : चंडीगढ़ : क़तर के दोहा में अमेरिका और अफगानिस्तान के बीच संधि पर हस्ताक्षर से यह नहीं समझना चाहिए कि अब वहां अमन की हवाएं चल पड़ेंगी. आधी अधूरी शांति के दस्तावेज से कबीलाई संघर्ष में कमी के कोई आसार फिलहाल नज़र नहीं आ रहे हैं. मेरा यह मानना है कि अमेरिकी फौजों के वहां से हटते ही तालिबान और दुसरे गुटों के बीच रिश्ते सामान्य होते ही आतंकवादियों की भरती वहां फिर से चालू हो जानी है. तालिबान के शासन में पाँव जमाते ही वो न केवल सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सवालों पर फोकस करेंगे बल्कि अल कायदा, आई एस आई एस और हक्कानी नेटवर्क कि तरह अपने वजूद के लिए हाथ पाँव मरना शुरू कर देंगे. इस समय ऐसी अफवाह है कि हक्कानी नेटवर्क कश्मीर में घुस कर भारतीय फौजों से उलझने की तैयारियों में जुटा है. हक्कानी नेटवर्क के पास ८००० से १०००० लड़ाकों की फ़ौज है. अभी ये अफगानिस्तान से ऑपरेट कर रहे हैं और पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आई एस आई इसे समर्थन दिए हुए है. ऐसा लगता है हक्कानी नेटवर्क ने तालिबान से अपना नाता तोड़ कर अल कायदा से हाथ मिला लिया है. २०१४ में पाकिस्तानी सेना ने उत्तरी वजीरिस्तान से विदेशी और घरेलू आतंकियों जिसमे हक्कानी नेटवर्क भी शामिल था, का सफाया करने के लिए ऑपेरशन ज़र्ब इ अज्ब शुरू किया था. इस ओपरेशन के शुरू से हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ पाकिस्तानी सेना कि गंभीरता पर सवाल उठाये जाने लगे थे. २०१५ में पाकिस्तान ने नेशनल एक्शन प्लान के तहत हालाँकि हक्कानी नेटवर्क पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया था. इसके बावजूद आई एस आई ने दक्षिणपूर्व अफगानिस्तान में इसे फलने फूलने का पूरा मौका दिया. पाकिस्तान इस नेटवर्क को अपने फायदे का समझता रहा है. अफगानिस्तान के बड़े हिस्से पर आज भी तालिबान, अल कायदा, आई एस आई एस और हक्कानी नेटवर्क का नियंत्रण है और ये जब तब वहां की सरकार और अवाम पर हमले करते रहे हैं. आधिकारिक रूप से भले ही हक्कानी नेटवर्क का अब तालिबान और क्वेटा शूरा तालिबान में विलय हहो गया हो. मगर हक्कानी नेटवर्क ने अब भी उत्तरी वजीरिस्तान और दक्षिणपूर्व अफगानिस्तान में अपनी जड़ें जमाई हुई है और उनकी अलग कार्यशैली कायम है. तालिबान किसी भी कीमत पर अफगानिस्तान की जमीन पर अल कायदा या आई एस आई एस के पाँव नहीं जमने देना चाहता है. हक्कानी नेटवर्क अगर अलकायदा के स्थ मिल कर अफगानिस्तान में अपने वजूद को बचाने की मुहिम में लगता है तो उसके पास कश्मीर के लिए लड़ाके तैनात कर पाना मुश्किल होगा. अमेरिका से हुआ प्रस्तावित समझौता लागू होता है तो तालिबान सत्ता में होंगे और हक्कानी को अपने प्रभाव वाले क्षेत्र मेंअपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़नी होगी. इस से अमेरिका और नाटो के सैनिकों को निशाना बनाने के बजाये पश्तून, ताजिक, हाजरा, उज़बेक, बलोच, पशाई, नुरिस्तानी, गुज्जर और कुछ और कबीलों के बीच अंदरूनी लड़ाई शुरू हो जाएगी. अफगानिस्तान में सत्ता हासिल कर लेने के बाद तालिबान की रूचि कश्मीर में नहीं रह जाएगी क्योंकि तब उसे अल कायदा, आई एस आई एस और हक्कानी नेटवर्क गुटों से जूझना होगा. अफगानिस्तान में आई एस आई एस की ताकत अफगान तालिबान से अलग हुए कुछ फौजियों और २०१५ में पाकिस्तान में अपनी पाँव रखने वाले पाकिस्तानी तालिबान को मिला कर अनुमान से कोई ३००० से ५००० आतंकियों की है. इस समय तालिबान आई एस आई एस के हाथों अपनी खोयी हुई जमीन को हासिल करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखायेगा. तब कही अपनी ऊर्जा कश्मीर में लगा सकता है. उधर अल कायदा, आई एस आई एस और हक्कानी के साथ मिल कर अपने आप को और कट्टरपंथी साबित करने की कोशिशों में जुटेंगे. इसलिए सम्भावना ये है कि ८० या ९० के दशक की तरह ये अपने लड़ाके कश्मीर में भेज नहीं पाएंगे और आपस में ही अफगानिस्तान में उलझे रहेंगे. ज्ञात हो कि ८० और ९० के दशक में विदेशी आतंकवादी सोपोरे से अपने अभियानों को अंजाम देते रहे हैं. अमेरिका के अफगानिस्तान से हटने के बाद हालांकि हक्कानी नेटवर्क भी कश्मीर में अपनी टांग अड़ाने के बजाय काबुल की सत्ता में हिस्सेदारी चाहेगा क्योंकिईसा उसके अपने अस्तित्व के लिए भी जरूरी है. हालांकि भविष्य में हक्कानी का एजेंडा कश्मीर हो सकता है जहाँ वो लश्कर ए तोयबा और जैश ए मोहम्मद के साथ मिल कर घुसने की कोशिश कर सकता है. इसलिए सीमा पर हरदम भारत को चौकन्ना रहना होगा. पाकिस्तान भी सुधरने वाला नहीं है और वो इस फ़िराक में रहेगा कि अमेरिकी फौजों के निकलने के बाद जैसे ही अफगानिस्तान में हालात स्थिर हों वो अफगान लड़ाकों को कश्मीर में भेज कर छद्म युद्ध शुरू करे. आश्चर्यजनक किन्तु सत्य यह भी है कि भारत में कश्मीर को विशेष दर्जे वाली धारा ३७० हटाये जाने पर पाकिस्तान के इश्सरे पर चलने वाले अफगान तालिबान ने एक निष्पक्ष बयान जरी करके कहा था कि वैश्विक मुस्लिम एकता के नज़रिए से भारत और पाकिस्तान को संयम बरतना चाहिए. इस बयान को दूसरों के मामले में दखल देने के बजाये राष्ट्रीय मुद्दों तक अपने को सीमित रखने की रौशनी में देखा जा सकता है. हमारे नीति नियंताओं को एक और खतरे से सचेत रहना चाहिए कि गैर अफगान आतंकी भी कश्मीर में हरकत कर सकते हैं. इस के अलावा अमेरिकन फौजों के अफगानिस्तान से हटने के बाद हालिया कोई बदलाव दिखाई नहीं दे सकता है. पर पाकिस्तान कि शह पर थोड़े समय के बाद लोकल कश्मीरी युवाओं को कश्मीर में ९० जैसे हालात पैदा करने के लिए उकसाया जा सकता है. डूरंड लाइन पर सक्रिय पश्तून गुट टी टी पी भी भारत के खिलाफ हरकत कर सकता है लेकिन वो भी अपने बीच के ही पश्तूनों के साथ दुश्मनी निभाने में उलझा रहता है. इसलिए अफगानिस्तान से हाल फिलहाल कोई खतरा तो नहीं दिखायी दे रहा है पर पाकिस्तान सीमा पर तनाव कायम रखने में कोई कसर छोड़ने वाला नहीं है.