गांव संवरेगा तो भारत निखरेगा
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : भारत में आजादी के बाद से बापू का नाम लेकर राज तो किया गया पर उनके काम को जमीन पर उतारने का काम नहीं हो पाया. महात्मा गांधी जब कहते थे कि भारत की आत्मा गांव में निवास करती है तब गांवों की आबादी अस्सी फीसदी हुआ करती थी. आजाद भारत के कर्णधार शहरों को तो चमकाते गये पर गांवों को उनके हाल पर छोड़ दिया. नतीजतन 20 फीसदी ग्रामीण आबादी शहरों की और अपनी सूरत संवारने के लिये गांव को अलविदा कह गई. वो तो कोविड 19 की आपदा ने जब घेरा तब ग्रामीणों को ये बात समझ आयी कि शहर कितने बेरहम हैं और गांव आज भी उनका कितना अपना है.
दरअसल इस महामारी ने विश्व में विकास और अर्थव्यवस्था के मॉडल की कलई खोल कर रख दी है. शिक्षा, स्वास्थ्य, अस्त्र-शस्त्र, भौतिक सुख सुविधा, आकाश पाताल नापने के कमाल यहां तक कि भगवान के अस्तित्व को भी वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के कीर्तिमान गढ़ने वाले अमेरिका, यूरोप, चीन, मध्यएशिया के देश जहां एक अदद अदृश्य वायरस के आगे त्राहिमाम की मुद्रा मे आ चुके हैं. वहां माथे पर अभी तक विकासशील देश का बिल्ला लगाये रखने वाला भारत दमदारी के साथ कोरोना से जंग लड़ ही नहीं रहा, विविधता में एकता के दर्शन कराते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है. एक दीये और तूफान की कहानी की तरह.
वो इसलिये कि इंसान की पहली बुनियादी जरूरत रोटी है. तीन समय न सही दो समय ही भोजन मिलता रहे तो वो कम कपड़ा और मकान से भी काम चल सकता है. मतलब जान है तो जहान है. विश्व के किसी भी देश के पास न भारत की तरह तीन मौसम और चार फसलें हैं और न हीं सदानीरा नदियां. कोई संकट आये भी तो एकाध फसल बरबाद होगी, खेती का क्या फिर हरी हो जायेगी. भारत के गांवों की शक्ति इतनी प्रबल है कि वो अपनी आबादी के साथ साथ औरों का पेट भरने का दम भी रखती है. इसीलिये तकनीकी और औद्योगिक विकास के शिखर पर बैठे देश आज कराह रहे हैं जबकि उनके मुकाबले भारत में हुआ नुकसान न के बराबर है. भारत में भी शहरों में कोरोना की मार है, गांवों में लोग आज भी बेलौस जिंदगी जी रहे हैं.
सस्ती मजदूरी के लिये ग्रामीणों को शहर ले जाया गया. यही नहीं बेरहम शहरों ने गांवों से मजदूर तो छीने ही छीने, कृषि उत्पादों की कीमतें दलालों और आढ़तियों के हवाले से कम रख कर, खाद्य मुद्रास्फीति को काबू में रख कर और उद्योगों को सस्ता कच्चा माल मुहैया करा कर कृषि क्षेत्र को जान बूझ कर उपेक्षित किया गया. फिर भी कमाल ये देखिये कि किसान साल दर साल रिकार्ड उत्पादन करता चला गया. अन्नदाता किसान ने इस महामारी के दौर में साबित कर दिया है कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल आधार है. यह बात पहले भी शीशे की तरह साफ थी, अब संकट की इस घड़ी ने इसे रेखांकित कर दिया है.
बेमौसम बारिश के बावजूद इस बार साढ़े दस करोड़ टन के रिकार्ड उत्पादन की आशा थी. पर आवाजाही बंद होने से पोल्ट्री, दूध और मछली के कारोबार पर असर पड़ा. खराब होने वाली जिंसों-सब्जियों, फलों, फूलों और मसालों की उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिल पाया. टमाटर, स्ट्राबेरी पशुओं को खिलाने पड़े या खेतों में ही दफन करने पड़े. कृषि मजदूरों का अभाव उपर से. इतनी विषम परिस्थितियों में भी किसान तन कर खड़ा है तो उसे नमन करने को जी चाहता है.
यहां बड़ा सवाल ये है कि क्या ये महामारी कृषि क्षेत्र मे हमारे नजरिये को बदल देगी ? क्या इसके बाद सरकारी नीति में कृषि को वरीयता मिलेगी ? ये माना कि आने वाले समय में शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकार का जोर रहेगा पर पेट की आग ठंडी करने वाले व्यवसाय कृषि को भी संकट के बाद उतना ही सम्मान मिलेगा ? कृषि के प्रति नीति नियंताओं की सोच बदलने से क्या किसानी मुनाफे का सौदा बन जायेगी ?
इन सारे सवालों पर गंभीरता से विचार किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि कोविड 19 के बाद नीतियों में बदलाव कृषि क्षेत्र का भविष्य तय करेगा. किसान के लिये उपज का लाभकारी मूल्य और मासिक आय की व्यवस्था एक चुनौती होगी. एक रिपोर्ट के अनुसार उपज का लाभकारी मूल्य न मिलने से भारतीय किसानों ने 15 सालों में 45 लाख करोड़ रुपये खोये हैं. अगर किसानों को ये रुपये मिलते तो ग्रामीण नौजवान खेती किसानी छोड़ कर शहरों में रोजगार के लिये न भटकते. दरअसल सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास वाली सोच का समय आ चुका है.
यहां यह भी सोचना होगा कि खाली कृषि से अगर किसान की आय दोगुनी करने की गुंजाइश होती तो फिर किसान आत्महत्या करने को मजबूर क्यों होता. इसलिये अर्थव्यवस्था के आधार गांव का अगर विकास करना होगा तो फिर पूरे गांव को एक स्वाबलम्बी इकाई बनाने का जतन करना होगा. जो बापू की दिली इच्छा थी, हाल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संघचालक मोहन भागवत ने अपने उद्बोधन में कहा भी था. जैसा आज से चालीस साल पहले तक था भी. गांव में किसान के अलावा गांव का अपना बढ़ई, लोहार, कुम्हार, नाई, धोबी, मृत जानवरों का तारनहार, संयुक्त परिवार और खेतिहर मजदूर हुआ करता था। गांव की जरूरत पूरा करने वाले अधिकांश कर्मकार गांव के अंदर ही बसते थे. सबका पारिश्रमिक कैश में न सही बार्टर के आधार पर उपलब्ध था. सबसे बड़ी बात सबके लिये दो जून की रोटी का जुगाड़ रहता था.
कालांतर में समाजवाद, साम्यवाद ने कब अपनी जड़ें फैलाकर जातिवाद का वीभत्स रूप ले लिया पता ही न चला. आरक्षण व्यवस्था ने गांव में दीवारें खींच दीं. कर्म प्रधान विश्व जन्म प्रधान व्यवस्था में बदल गया. मशीनी ट्रैक्टरों ने बढ़ई, खेतिहर मजदूर और बैल को बेरोजगार कर दिया. प्लास्टिक ने कुम्हार की रोजी छीन ली. जातीय दर्प के उभार के चलते नाई, धोबी, दलित अपने पुश्तैनी पेशे में लाज महसूस कर शहर के हवाले होने चल दिया. औद्योगिक क्रांति ने संयुक्त परिवारों को बिखेर दिया. माने गांव का पारम्परिक स्वाबलम्बी ढांचा पूरी तरह छिन्न भिन्न हो गया. शहरी भौतिक उपभोक्तावाद धीरे गांव की नसों में घुलने लगा और गांव को शहर बनाने के प्रयास होने लगे.
गांव को कस्बों और शहरों से जोड़े रखने वाले आधारभूत ढांचे के विकास में कोई बुराई नहीं थी लेकिन सादा जीवन उच्च विचार का फलसफा ढह गया. ग्रामीणों के पांव चादर से बाहर पसरने लगे. भौतिक सुख सुविधाएं बढ़ें इस इरादे से मनरेगा के नाम से एक योजना मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में शुरू हुई जिसमें ग्रामीण गरीब को कम से कम सौ दिन का रोजगार देने का प्रावधान था. वो प्रधानों और अधिकारियों की मिलीभगत से भ्रष्टाचार की भेंट तो चढ़ ही गयी उसने गांवों में अकर्मण्यता और खेतिहर मजदूरों की अनुपलब्धता को बढ़ावा दिया.
बहरहाल मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल से कृषि और गांव पर ध्यान देने का मन बनाया है और बजट में यह सदिच्छा प्रकट भी की है. उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने भी इसे जमीन पर उतारने का इरादा जाहिर किया है. गांव लौट चुके मजदूरों की बड़ी संख्या अभी शहरों की ओर लौटने वाली नहीं है. इसलिये कि शहरों में भी लाक डाउन के कारण व्यवसाय ठंडे पड़े हैं. योगी सरकार ने विभिन्न राज्यो से लौटे 5 लाख श्रमिकों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार देने की योजना बनाई है. इसके लिये कृषि उत्पादन आयुक्त की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया है जिसमे प्रमुख सचिव पंचायती राज, प्रमुख सचिव एमएसएमई, प्रमुख सचिव कौशल विकास को सदस्य बनाया गया है. इस कमेटी का लक्ष्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिये रोजगार के अवसर तलाशना होगा. कमेटी 'वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट' योजना के तहत रोजगार सृजन के साथ साथ बैंक के माध्यम से लोन मेले, रोजगार मेले आयोजित करेगी. महिला स्वयं सेवी समूहों को अचार, सिलाई एवं मसाला उद्योग जैसे रोजगार उपलब्ध कराये जायेंगे.
गौशालाओं के विकास से श्वेत क्रांति, जैविक खाद, मत्स्य उत्पादन में नील क्रांति, कुक्कुट पालन को बढ़ावा दिया जायेगा.
ग्रामीण विकास विभाग के प्रमुख सचिव मनोज कुमार सिंह ने व्यवस्था की है कि गांव लौटे युवाओं को उन्हीं के गांवों में जांच कर तत्काल जाब कार्ड दिलाये जायेंगे. मनरेगा मजदूरी भी 182 रुपये से बढ़ा कर 201 रुपये केन्द्र सरकार ने कर दी है. मनरेगा के तहत मनोरमा, पांडु, वरुणा, सई, मोरवा, मंदाकिनी, तमसा, काली पूर्व जैसी प्रदेश के 39 जिलों से होकर बहने वाली 16 नदियों के पुनर्जीवन की योजना बनाई गई है. इसके अलावा जल संरक्षण, सिंचाई, बाढ़ रोकने के लिये नालों, नालियों का निर्माण भी मनरेगा मजदूरों से कराया जा सकता है. प्रधानमंत्री आवास योजना, मुख्यमंत्री आवास योजना, शौचालयों का निर्माण और निजी और सामुदायिक भूमि के विकास का काम भी इनसे लिया जा सकता है.
उधर किसानों को राहत देने के लिये प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत सीधे खातों में सहायता भेजने का काम किया जा रहा है. दुखद बात ये है कि इसमें भी कुछ ग्राम प्रधानों ने रिश्वत लेने का सुराख खोज लिया है. लाभार्थी से पैसा खाते से निकलवा कर उससे पैसे वसूल किये जा रहे हैं. भ्रष्टाचार का यह छेद कैसे बंद हो इस दिशा में सरकार को कोई कदम उठाना होगा. इसके अलावा उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा में पायलट प्रोजेक्ट के बतौर ई ग्राम स्वराज और आवास के स्वामित्व की योजना और को शुरू किया जा रहा है.
मोदी सरकार की कोशिश ये है कि शहरों से गांवों को लौटे मजदूर अब गांव के किसानों के साथ मिल कर ग्रामीण भारत की पुनर्संरचना मे लग जायें ताकि भारत के गांव सशक्त और स्वाबलम्बी आर्थिक इकाई बन सकें. दुनिया की दुनिया जाने पर भारत के विकास का टिकाऊ मॉडल ग्रामीण विकास में निहित है. या यूं कहें कि यही मॉडल दुनिया के सामने एक मिसाल बन कर सामने आ सकता है.