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बड़े गौर से देख, सुन रहा है मोदी को विश्व

रजनीकांत वशिष्ठ : लखनऊ : भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोविड-19 आपदा की इस विकट घड़ी में देशवासियों से कहा-लाकडाउन तो कष्ट सह कर भी आमजन ने सड़कें खाली कर दीं और घरों में खुद कैद हो गये. फिर कहा-ताली, थाली या शंख बजा कर उन योद्धाओं का आभार प्रक

बड़े गौर से देख, सुन रहा है मोदी को विश्व
बड़े गौर से देख, सुन रहा है मोदी को विश्व
रजनीकांत वशिष्ठ : लखनऊ : भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोविड-19 आपदा की इस विकट घड़ी में देशवासियों से कहा-लाकडाउन तो कष्ट सह कर भी आमजन ने सड़कें खाली कर दीं और घरों में खुद कैद हो गये. फिर कहा-ताली, थाली या शंख बजा कर उन योद्धाओं का आभार प्रकट करो जो अपनी जान जोखिम में डाल कर आम जन की सेवा में जुटे हैं. अधिकांश ने अपील पर अमल किया. फिर कहा-अंधकार को धिक्कारने के बजाय एक दिया जलाओ. मोदी और उनके राजनीतिक दल से वैचारिक मतभिन्नता रखने वालों को छोड़ भी दिया जाये तो अधिकांश ने इस अपील को भी सिर माथे लिया. न फिलीपींस की तरह गोली मारने का आदेश, न यूरोप की तरह भारी भरकम जुर्माना फिर भी मोदी की विनम्र अपील मात्र पर 135 करोड़ आबादी का संयम काबिले तारीफ तो कहा ही जायेगा. भले ही मोदी विरोधी इसे अपनी लोकप्रियता आंकने की मोदी की टेस्टिंग टेक्नीक कहें पर ये नुस्खा कारगर तो है. बावजूद कुछ जिद्दी दुराग्रहियों के, कोरोना का आंकड़ा स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में अभी तक शीर्ष पर विराजमान कुछ देशों के मुकाबले, भारत में नियंत्रण में ही कहा जायेगा. शायद विश्व ही नहीं भारत के कर्णधारों और नीति नियंताओं को भी इस बात का एहसास नही रहा होगा कि यहां लोगों में इतनी दृढ इच्छा शक्ति और मोदी के प्रति विश्वास है कि एक आवाज पर अनुशासन के बंधन में बंध जायेंगे. विश्व में स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में नंबर एक अमेरिका और नंबर दो इटली फिर इंगलैंड, स्पेन, फ्रांस से लेकर ईरान तक और परदे में छिपे चीन में कोरोना के आंकड़ों के मुकाबले अगर भारत में इसके असर को देखा जाये तो गनीमत ही है. ये महामारी भारत में बाहर से आयी है. अमेरिका, यूरोप और चीन से आये भारतीयों या फिर दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया या अफ्रीका से आये तबलीगी जमातियों के चोरी छिपे देश भर के पूजा स्थलों में बिखर जाने और मानव बम की तरह औरों को महामारी की चपेट में लेने की शरारत के कारण भारत में फैली. इसके बावजूद मोदी के कहने पर लोग लाकडाउन का पालन कर रहे हैं और घरों में कैद हैं तो बन्दे में कोई बात तो है. विपक्ष कहने को भले कह ले कि बिना तैयारियों के लाकडाउन भारत में लागू कर दिया गया. करोड़ों लोगों को रोजी रोटी से हाथ धोना पड़ा है. मोदी सरकार की गलत नीतियों के कारण देश अराजकता का सामना कर रहा है. पर सच बात ये है कि लोगों को मोदी की ये बात समझ में आ गयी कि जान है तो जहान है. मोदी ने पहले यही नारा दिया था. आर्थिक मोर्चे पर कितना भी घाटा हो जाये जान बची रही तो सब पट जायेगा. अब जनता के भरोसे पर ही मोदी कह रहे हैं कि जान भी, जहान भी. तो इसके मायने साफ हैं कि भारत महामारी से निपटेगा और विश्व को भी सिखायेगा कि कैसे जिया जाये. अमेरिका और यूरोप या चीन की आरंभिक भूल यही रही कि वो अर्थव्यवस्था की चिंता करते रह गए. नतीजा यह हुआ कि महामारी लोगों को लीलती चली गयी, आला दरजे की उनकी स्वास्थ्य सुविधाएं धरीं रह गईं. यही नहीं चुनौती को अवसर में बदलने की कला कोई मोदी से सीखे. मास्क का काम खादी के गमछे से चला लिया. मास्क ही चाहिये तो घर घर मास्क बनने लगे. सेनिटाइजर की भी कोई कमी नहीं रही. चीनी मिलों को चालू रखा, राजस्व के लिये शराब भी मिली और सेनिटाइजर के लिये कच्चा माल भी मिला. चीनी आवश्यक वस्तुओं में शामिल रही ही. विदेश से कुछ नहीं खरीदा बल्कि कभी इंदिरा गांधी के जमाने में लाल सड़ा गेंहू देकर एहसान लादने वाले अमेरिका और अन्य देशों को भारत आज दवाइयां बांट कर परोपकार कर रहा है. अपने चिकित्सकों, पैरामेडिकल स्टाफ, आयुर्वेद और योग के दम पर यहां जितने कोरोना पीड़ित जान गंवा रहे हैं उससे ज्यादा लोगों को बचा भी ले रहा है. वैज्ञानिक महामारी की काट खोजने में जुट गये हैं. मोदी को पता है कि भारत में ये सीजन खेती का है. गेंहू की कटाई चल रही है. उपज के बाजार में चले जाने के बाद अगली फसल की बुवाई का समय आना है. इसलिये एक ओर जहां मोदी सरकार की नजर कोरोना की रोकथाम पर है जिसे उन्होंने त्रिस्तरीय रणनीति बना कर घेर लिया है. देश के वे हिस्से जो कोरोना से अप्रभावित हैं वहां दिहाड़ी कामगारों, रोज कुंआ खोद कर पानी पीने वालों के लिये लाकडाउन खोल दिया जायेगा. वे हिस्से जहां हल्का असर देखा गया है वहां पैनी नजर रखी जायेगी और वो हिस्से जहां स्थिति गंभीर है उन्हें हाट स्पाट बना कर सील कर दिया जायेगा. रोग को फैलाने और छिपाने वालों और चिकित्सकों, सेवा कर्मियों से दुर्व्यवहार करने वालों से सख्ती से निपटा जायेगा. वहां दूसरी ओर टीम मोदी की नजर कृषि कार्यों पर है जिससे न केवल देशवासियों को भोजन मिलना है बल्कि अन्नदाता किसान की जेब में धन आना है. किसान की उपज खेत पर ही कैसे बिके, अगर ये संभव न हो तो उपयुक्त मंडी तक उसे कैसे पहुंचाया जाये. अगली फसल के लिये बीज, खाद, पानी, खेती और पशुधन के लिये आवश्यक दवाओं का इंतजाम कैसे हो. आवश्यक सामान की कालाबाजारी पर प्रहार कैसे हो. आम उपभोक्ता तक जरूरी सामान कैसे पहुंचे. श्रमिकों, दिहाड़ी मजदूरों, गरीब बुजुर्गों, महिलाओं को आर्थिक सहायता कैसे मुहैया हो उनका रोजगार कैसे बहाल हो. कोविड 19 के कारण देश की अर्थव्यवस्था सन्निपात की स्थिति में है उससे कैसे निपटें. सुन्न बाजार में जान कैसे फूंकी जाये, बेरोजगारी दूर करने का क्या माडल हो. आदि इत्यादि जैसे तमाम सवालों के उत्तर ढूंढने का प्रयास युद्धस्तर पर किये जा रहे हैं. महामारी तो तीन, पांच न सही दस सप्ताह में शांत हो ही जानी है पर आजादी के बाद से कोविड 19 से भी गंभीर जिन समस्याओं ने देश को घेरा हुआ है, मोदी सरकार को उनका भी इलाज ढूंढना होगा. भारत में हर दिन 3 हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं. हर चार में से एक बच्चा कुपोषित है. नौजवानी बरबाद हो रही है। रोजी रोजगार ने भूपरिदृश्य बदल डाला है. रोजी के लिये जो लोग गांव से पलायन करके गये थे वो कोरोना के चलते वापस गांव की ओर पलायन कर रहे हैं. उनके लिये गांव, कस्बों और पास के ही छोटे शहरों में रोजगार कैसे मुहैया कराया जाये. युवाओं का रुझान खेती, किसानी, बागवानी, पशुपालन, सामाजिक वानिकी, पर्यावरण रक्षा जैसे रोजगारपरक कार्यों की ओर कैसे मोड़ा जाये. किसान, गरीब, महिलाएं सामाजिक उपेक्षा और सरकारी भ्रष्टाचार, बेरुखी और अनदेखी के मारे हैं. सरकारें सैकड़ों करोड़ रुपये मूर्तियां बनाने या मीडिया को पक्ष में करने के लिये विज्ञापनों पर फूंकती आयीं हैं. हमारे देश के कर्णधारों ने आजादी के बाद जो कुछ किया उसके लिये बेशक हम शुक्रगुजार हैं. मगर गड़बड़ ये हुई कि उन्होंने देश को चलाने के लिये जो डिजायन हमें दिया वो आमजन की सेवा के लिये नहीं था उन पर शासन करने के लिये था. ये सब कोविड 19 से भी ज्यादा घातक महामारियां हैं जिन्होंने भारत राष्ट्र की व्यवस्था को लकवाग्रस्त बना दिया है. जैसे जैसे मोदी सरकार एक एक करके इन समस्याओं का इलाज ढूंढती जायेगी वैसे वैसे मोदी विश्व के लिये अनुकरणीय बनते जायेंगे क्योंकि 18 भाषाओं और 250 से उपर बोलियों वाले भारत को संभालना कोई आसान काम है क्या.

Published: 14-04-2020

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