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पृथ्वी को मत छेड़ो, चेत जाओ कहीं देर न हो जाये

रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : कोरोना महामारी ने एक बात तो ये साबित कर दी है कि प्रकृति बहुत शक्तिशाली है और उसे पता है कि मानव ने अपनी जिद में उसका जो नुकसान किया है उसकी भरपाई कैसे करनी है. दूसरे अपने तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों और सुरक्षा कवच के उपर

पृथ्वी को मत छेड़ो, चेत जाओ कहीं देर न हो जाये
पृथ्वी को मत छेड़ो, चेत जाओ कहीं देर न हो जाये
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : कोरोना महामारी ने एक बात तो ये साबित कर दी है कि प्रकृति बहुत शक्तिशाली है और उसे पता है कि मानव ने अपनी जिद में उसका जो नुकसान किया है उसकी भरपाई कैसे करनी है. दूसरे अपने तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों और सुरक्षा कवच के उपरांत भी मानव पानी के बुलबुले जैसा कमजोर है. तीसरी आधुनिक साधनों ने विश्व के लोगों के बीच आज दूरियां इतनी पाट दी हैं कि एक अदद रहस्यमयी शत्रु वायरस ने दिन दूरी रात चौगुनी गुनी गति से मानव जाति को लीलना शुरू कर दिया. पृथ्वीवासी मनुष्य अपनी अचेतन सामूहिक वृत्तियों यथा मोह, माया, मद और चौधराहट के कृत्रिम अंहकार के वशीभूत होकर प्रकृति को रौंदता तो चला गया पर यह भूल गया कि प्रकृति जब बदला लेने पर उतारू होगी तो उसे चींटी की तरह मसल सकती है. विश्व भर में हम पृथ्वी के गर्भ में छिपे संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करते रहे, नदियों, सागर, मिट्टी यहां तक कि अंतरिक्ष को क्षति पहुंचाते चले गये. अपने स्वाद और शौक की पूर्ति के लिये प्रजातियों को मार कर खाते चले गये. जलचर, उभयचर, सरीसृपों को तो नुकसान पहुंचाया ही खुद के भी दुश्मन बन बैठे. आलीशान शहरों, अट्टालिकाओं और भौतिक सुख सुविधाओं के लिये वनस्पतियों, वनों को उजाड़ डाला. परिणामस्वरूप मौसम के चक्र पर प्रभाव पड़ा. वर्षा के क्षेत्र में सूखा और सूखे क्षेत्रों में बाढ़, ग्लेशियरों का पिघलना, भूस्खलन, भूकंप के जब तब झंझावात, चक्रवात, समुद्री तूफान से टापुओं के भौगोलिक नक्शे में बदलाव और अप्रत्याशित व्याधियों आदि ने कुछ समय से हमें झकझोर कर रख दिया है. यानी हमने अपने खाते में सामूहिक कुकर्मों की बेहिसाब पूंजी जमा कर ली है जिसका कर्ज अब हमें सामूहिक रूप से चुकाना तो पड़ेगा. अगर आगे की पीढ़ियों के लिये सुरक्षित धरती छोड़ के जाना है और मानवता की प्राण रक्षा करनी है तो हमें अपने तौर तरीकों में परिवर्तन लाना होगा. इस दृष्टि से देखें तो कोविड-19 आपदा हमारी शत्रु नहीं बल्कि खतरे की घंटी है जो हमें जगाने आयी है. हो सकता है कि अस्तित्व के संकट से जूझ रही मानवता को संदेश देने का प्रकृति का यही तरीका हो. इसलिए अब से हमें अपने आर्थिक विकास के विचार में प्रकृति के विकास को भी आवश्यक रूप से शामिल करना होगा. कोविड-19 ने हमें यह संकेत दे दिया है कि हमारे क्रियाकलापों से प्रकृति को क्षति पहुँच रही है जिसका प्रारब्ध फिर हमें ही सहना होगा. समझने की बात सीधी सी ये है कि अगर आप दुख और कष्ट में हैं तो मैं भी सुख और शांति से नहीं रह सकता, ऐसा भाव हमें रखना होगा. कोविड-19 से मिले कष्ट हमें ये समझा रहे हैं कि हमें प्रकृति के सभी चराचर जीव जंतुओं, वनस्पतियों और उसके विविध रूपों के प्रति प्रेम, आदर, सहयोग और स्वीकृति का भाव रखना होगा. सभी से जुड़ कर चलना होगा, ताकि सर्वे भवंतु सुखिनः की सामूहिक चेतना का भी विकास हो सके. पिछले दो दशकों में आधा दर्जन महामारियों ने समय समय पर विश्व नियंताओं को चौंकाया और चेताया है. वो भी मानव के अहं ब्रह्मास्मि भाव की त्रुटियों का परिणाम थीं. फिर भी आदमजात ने प्रकृति पर अपने शक्ति प्रदर्शन का शौक नहीं छोड़ा, त्रुटियां करता गया और इतिहास अपने आप को दोहराता गया. आज ये वैश्विक महामारी भी मानवीय कुवृत्तियों का ही परिणाम है. भारतीय मनीषा में कहा गया है-चरैवेति चरैवेति। अंग्रेजी में कहावत है परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति के क्रोध ने अतीत में भूराजनीतिक समीकरणों को बदला है। तीर, तलवार, भाला से चल कर तोप, बम, मिसाइल तक के शस्त्र विश्व के किसी देश की ताकत का पैमाना हुआ करते थे अब तक। कोविड-19 ने ऐसी मौजूदा सुपर पावरों को जमीन सुंधा दी है. सबसे ताकतवर अमरीका थर थर कांप रहा है. इटली, स्पेन की तो बिसात क्या कभी सूरज निकलने से लेकर ढलने तक जिस इंग्लैंड की हुकूमत हुआ करती थी उसकी मलिका विक्टोरिया और वजीरे आजम की जान पर बन आयी है. महान पर्शिया सभ्यता का वारिस ईरान बेहाल है. तेजी से आर्थिक मोर्चे पर कुलांचे मार रहा चीन का करोबार सहमा पड़ा है. ये सारे वो देश हैं जहां न संसाधनों की कोई कमी है न धन की. जहां की स्वास्थ्य सुविधाओं के कसीदे पढ़े जाते रहे थे अभी तक. आशंका इस बात की भी अब खुल कर व्यक्त की जाने लगी है कि कहीं कोरोना मानव निर्मित रासायनिक हथियार तो नहीं है. इंगलैंड ने तो बाकायदा चीन पर उंगली भी उठा दी है. इंटरनेशनल कोर्ट आफ जस्टिस भी चीन को कटघरे में खड़ा करने की तैयारी में लगता है. पर इन सबके बीच सबसे ज्यादा आबादी और मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना वाले विकासशील और संपन्न देशों कि सर्वे एजेंसियों के हिसाब से देहाती, गरीब और खुशहाली के पैमाने पर निचली पायदान पर बैठे भारत ने एक टिमटिमाते दिये की तरह जिस हौसले से इस आपदा का सामना किया है वो एक मिसाल है. कोविड-19 के बाद ज्ञाता लोग जैसे विश्व की भविष्यवाणियां कर रहे हैं उससे ये साफ है कि अब आने वाले समय में सभी को अपनी प्राथमिकताओं को नये सिरे से तय करना होगा. विकसित देशों में बीसवीं शताब्दी के मध्य तक जिन छूत की बीमारियों ने अपना सिर उठाया था उसे उन्होंने बेहतर जीवनशैली, सुधरी स्वास्थ्य और जल निकासी व्यवस्था के जरिये काफी हद तक काबू पा लिया था. बीसवीं शती के चालीसवें और पचासवें दशक में एंटी बायोटिक्स के विकास ने उन्हें इतना निश्चिंत कर दिया कि इन बीमारियों पर शोध कार्य पीछे छूटता चला गया. कोविड-19 के बाद अब किस वायरस का कब और कहां से वार होगा कोई नहीं जानता. पर इस महामारी ने विश्व के सामने एक चुनौती पेश की है कि इस दिशा में निरंतर खोज कार्य जारी रखना होगा. भारत इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकता है क्योंकि यहां ऐसी छूत की बीमारियों का एक लम्बा इतिहास है. भारत के पास ऐसी महामारियों की जानकारी और उनके इलाज का अनुभव है. यही नहीं चेन्नई के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एपिडेमियोलाजी, दिल्ली के नेशनल सेंटर फार डिसीज कंट्रोल, बंगलुरू के सेंटर फार इनफेक्शियस डिसीज रिसर्च और पुणे के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वायरोलाजी में बाकायदा शोध कार्य चल भी रहा है. भारत सरकार को चाहिये कि वो इन संस्थानों को हर संभव सुविधा और सहायता उपलब्ध कराये ताकि भविष्य में आने वाली ऐसी चुनौतियों को अवसर में बदला जा सके. भारत आई टी सेक्टर में साफ्टवेयर का मास्टर माना जाता है. उसके साफ्टवेयर के कौशल को आधुनिकतम मेडिकल तकनीक से जोड़ कर ऐसा डेटा तैयार किया जा सकता है जो छूत की बीमारियों के सस्ते परीक्षण किट तैयार करने में क्रांतिकारी साबित हो सकता है. साथ ही भारत महामारियों की रोकथाम के लिये कम लागत में टीका भी तैयार कर सकता है. इस दिशा में हमारे यहां पहले ही मीजल्स, मम्स, रुबेला, डिप्थीरिया, टिटनेस, पोलियो और टीबी के लिये बीसीजी का टीका बना कर विश्व की 50 प्रतिशत मांग को पूरा किया जा रहा है. टीके की खोज के लिये लम्बे समय तक लम्बे खर्च की जरूरत होती है. भारत सरकार अगर निजी कंपनियों के साथ मिल कर इस दिशा में काम करे तो हेल्थ केयर के इंटरनेशनल मार्केट में अपना देश धाक जमा सकता है. वर्तमान संकट ने मजबूती के साथ इस बात को रेखांकित किया है कि भारत जैसे देश के लिये हेल्थ केयर और लाइफ साइंस का मैदान एक बड़ा अवसर लेकर आया है. भारत सरकार को निजी क्षेत्र के साथ मिल कर दोनों हाथों से इस अवसर को भुनाने का प्रयास करना चाहिये. ताकि भारत विश्व की फार्मेसी ही नहीं प्रयोगशाला भी बन जाये.

Published: 04-05-2020

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