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राजनीति की जागरूकता में निवेश बचपन से ही करना होगा

रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : राजतंत्र अब लोकतंत्र में बदल चुका है. अब देश काल परिस्थिति के अनुसार प्रजा के भाग्य का निपटारा एक हाथ में नहीं होता. पहले अपना राजा चुनने का अधिकार भी प्रजा के हाथ में नहीं होता था. शक्तिशाली वंशावली तय करती थी कि अगला

राजनीति की जागरूकता में निवेश बचपन से ही करना होगा
राजनीति की जागरूकता में निवेश बचपन से ही करना होगा
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : राजतंत्र अब लोकतंत्र में बदल चुका है. अब देश काल परिस्थिति के अनुसार प्रजा के भाग्य का निपटारा एक हाथ में नहीं होता. पहले अपना राजा चुनने का अधिकार भी प्रजा के हाथ में नहीं होता था. शक्तिशाली वंशावली तय करती थी कि अगला राजा कौन होगा. अब लोकतंत्र माने जनता द्वारा, जनता के लिये, जनता का शासन है. यानी अब प्रजा यह तय करती है कि उसका प्रतिनिधि कौन होगा. करीब चार सौ साल पहले राजाओं और सामंतों से मुक्ति पाने वाले शासन तंत्र ने अब विश्व भर में अपनी स्वीकार्यता स्थापित कर ली है. पर उत्तरप्रदेश विधानसभा और फिर अपने भारत देश की सबसे बड़ी चौपाल लोकसभा में एक पत्रकार के नाते मैंने पिछले तीस सालों में जो नजारा देखा है वो सुखद तो नहीं ही कहा जा सकता. लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार आशा तो ये थी कि प्रजा जो भी पढे या कढ़े प्रतिनिधि भेजेगी वो जिम्मेदारी के साथ प्रजा की समस्याओं को सामने रखेंगे और सरकार और विपक्ष दोनों के सहयोग से उन समस्याओं के समाधान को खोजने का प्रयास करेंगे. आज़ादी के बाद कुछ समय तक तो इमानदार जनप्रतिनिधियों ने इमानदारी के साथ काम किया. पर वो हनीमून पीरियड पूरा होते ही खोटे सिक्कों ने खरे सिक्कों की जगह ले ली. फिर जो हुआ वो ये कि सत्ता के लिये चुने हुए प्रतिनिधियों ने दलीय आधार पर एक दूसरे को पीटा-मारा, कागज के गोले फेंके, कुर्सिंयां, माइक जो हाथ लगा फेंका. यही नहीं हो हो करके उच्श्रृंखलता और उद्दंड व्यवहार की सारी सीमाओं को लांघते चले गये. यही वो मंजिल तो नहीं थी जिसकी राजशाही के बाद कल्पना की गयी थी. पत्रकारों की बात तो छोड़िये संसद या विधानसभा की दर्शक दीर्घाओं में आने वाले विदेशी आगंतुकों और देशी स्कूली बच्चों पर यह सब नजारा देख कर क्या असर पड़ता होगा ये तो वही अनुभव कर सकते होंगे. पर यह तय है कि वे सब यहां से बेहद दुखद और नकारात्मक अनुभव अपने साथ ले जाते होंगे. क्या इसका कारण समस्याओं का वायदों के बावजूद समय से न सुलझ पाना है ? या फिर क्षेत्र, धर्म, जाति, भाषा, लिंग भेद के आधार पर प्रजा की आकांक्षओं और अपेक्षाओं का लगातार बढ़ते जाना है ? क्या बढ़ती जनसंख्या हमारे तंत्र पर असह्य दबाव डाल रही है ? या फिर राज काज में हर क्षेत्र और उसका प्रतिनिधि अपने हिस्से की महत्वाकांक्षा को पूरा करना चाहता है ? अगर ऐसा है भी तो संसद या विधानसभाएं प्रतिनिधियों द्वारा हा हा हू हू करके दिनों या महीनों तक कार्यवाही न चलने देने के लिये थोड़े ही बनीं थीं. इसकी कार्यवाही चलाने के लिये भी पैसा खर्च होता है और यह पैसा जनता की जेब से ही निकल कर आता है. इसलिये आता है कि जनता ने अपने जिन प्रतिनिधियों को चुन कर आशा के साथ भेजा है उन्हें शोरशराबा, हंगामा करने के लिये नहीं भेजा है. बल्कि इसलिये भेजा है ताकि वो उनके जीवन से जुड़े सवालों को सरकार के सामने तार्किक ढंग से रखें, अगर हो तो समाधान भी सुझाएं और नही तो सरकार के तंत्र से समाधान की अपेक्षा रखें. तब तो इन लोकतांत्रिक चौपालों की कोई सार्थकता है. वरना लोकतंत्र का उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पायेगा. कहने का तात्पर्य ये है कि अगर लोकतंत्र को जन कल्याणकारी बनाना है तो जनता को इसके बारे में और अधिक जागरूक करना होगा. वरना राजतंत्र में तो एक अयोग्य राजा कभी कभी कष्टकारी साबित हुआ करता था अब लोकतंत्र में सैकड़ों नये अयोग्य राजा प्रजा के कष्टों को बढ़ाने वाले होंगे. उदाहरण के लिये देश को आजादी मिलने के कुछ सालों बाद तक तो सब ठीक से चला और सच्चे और अच्छे लोग राजनीति में आये. बाद में जनता के मतों की ताकत का प्रयोग करके धनबलियों और बाहुबलियों का आगमन शुरू हो गया. ये लोग धनबल और बाहुबल का सही उपयोग करते तो जनता का कल्याण हो सकता था किंतु प्रायः देखा गया कि ऐसे जनप्रतिनिधियों ने लोकतंत्र से अर्जित शक्ति का प्रयोग अपनी व्यक्तिगत ताकत बढ़ाने में किया. लोकतंत्र वंशवाद से मुक्ति का माध्यम भी शुरू में माना गया किंतु धीरे धीरे हर जगह देश में राजनीतिक राजवंश फिर खड़े होने लगे. लोकतंत्र को बीमारियों से अगर मुक्त करना है तो जागरूकता का अभियान बच्चों से शुरू करना होगा. मुझे याद है कि सत्तर के दशक तक सरकारी प्राथमिक स्कूलों में साल में एक बार ही सही बाल संसद का आयोजन किया जाता था. इस का उद्देश्य कक्षा पांच तक के बच्चों को जनसेवा के बारे में या जनसेवक बनने की प्रक्रिया को समझाना हुआ करता था. इस आयोजन के सारे पात्र बच्चे ही हुआ करते थे. एक बच्चा अध्यक्ष बन कर बाल संसद का संचालन करता तो एक बच्चा प्रधानमंत्री और एक नेता विपक्ष बनाया जाता. बाकी बच्चों में से कुछ सत्ता पक्ष तो कुछ विपक्ष के सदस्य बनते. विपक्ष प्रश्नों के माध्यम से ही अपने परिवेश की समस्याओं को सामने रखता तो सत्ता पक्ष उन पर अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता. जहां जरूरत होती वहां अध्यक्ष आसन से सत्ता या विपक्ष के सदस्यों को निर्देश जारी किये जाते. आगे चल कर उनमें से कुछ बच्चे लीडर बनते या नहीं भी बनते तो अपने लीडरों या जनप्रतिनिधियों से इतना तो कह ही सकते थे कि आपको वहां सिर्फ हंगामा खड़ा करने के लिये नहीं भेजा है हमने. पर पता नहीं क्यों बाद के सालों में बाल संसद के आयोजन का सिलसिला सरकारी प्राथमिक स्कूलों के कार्यक्रम से निकाल दिया गया. शिक्षा माफियाओं ने पता नहीं क्या खेल खेला कि धीरे धीरे सरकारी स्कूल ही बेजान होते चले गये. वो महज रसोईघर बन कर रह गये और दो दो चार चार कमरों वाले निजी प्राइमरी स्कूल केवल अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई के नाम पर हावी होते चले गये. उन्हें बाल संसद से क्या लेना देना वो तो इसी बात की कमाई में खुश रहे कि गरीब बच्चों के मां बाप अंग्रेजी की बीन पर निहाल रहे. परंतु हाल के कुछ सालों में केन्द्रीय विद्यालयों ने बाल संसद की इस परम्परा को पुनर्जीवित किया है। यह देख कर अच्छा लगा कि हाल में केन्द्रीय विद्यालय, गोमतीनगर, लखनउ में कई संभागों के केन्द्र्रीय विद्यालयों के छात्रों ने बाल संसद की प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. यही नहीं कई सांसदों और पूर्व सांसदों ने न केवल इस प्रतियोगिता को देखा बल्कि बच्चों को संसद की कार्यवाही की बारीकियों से अवगत कराया और संसद और विधानसभाओं में जनता की समस्याओं को रखने के गुर सिखाये. यह भी एक सुखद संकेत है कि मोदी सरकार ने नयी शिक्षा नीति पर विचार करने का कदम उठाया है. बचपन से ही स्कूलों में मातृभाषा में शिक्षा, स्कूलों में रसोईघर से ज्यादा पठन पाठन पर जोर, शारीरिक कसरत के उपाय, बच्चों के रुझान को समझ कर उन्हें पढ़ाई के हिस्से के ही बतौर कौशल प्रशिक्षण की व्यवस्था, शिक्षा में नयी तकनीक का प्रयोग जैसे कुछ कदम उठाये जाये तो भविष्य में उन्हें बेहतरीन मानव संसाधन के रूप में विकसित किया जा सकता है. बेरोजगारी की समस्या का कोई रास्ता निकलेगा या फिर भारत का वासी दुनिया को जरूरत के हिसाब से नयी राह दिखा सकता है. शिक्षा में निवेश जरूरी है मगर सोच समझ के हो तभी हम बचपन से उन्हें विश्व का सर्वोत्तम नागरिक बनाने की बात सोच सकते हैं. बेसिक शिक्षा से ही अगर हम अपने बच्चों को राजनीति न सही राजनितिक चेतना का पाठ पढ़ा सकें तो यह लोकतंत्र की सेहत के लिए बेहतर ही होगा.

Published: 12-12-2019

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