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राजनीति में आत्ममुग्धता

रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : राजकाज के बारे में तमाम सूत्रवाक्य ऐसे हैं जो लगभग हर देश, काल, परिस्थिति में लागू होते आये हैं. मसलन प्रभुता पाय काय मद नाहीं. पावर करप्ट्स मैन. हिस्ट्री रिपीट्स इसटसेल्फ बिकाज मैन रिपीट्स हिज मिस्टेक्स. काजर की कोठरी

राजनीति में आत्ममुग्धता
राजनीति में आत्ममुग्धता
रजनीकांत वशिष्ठ : नयी दिल्ली : राजकाज के बारे में तमाम सूत्रवाक्य ऐसे हैं जो लगभग हर देश, काल, परिस्थिति में लागू होते आये हैं. मसलन प्रभुता पाय काय मद नाहीं. पावर करप्ट्स मैन. हिस्ट्री रिपीट्स इसटसेल्फ बिकाज मैन रिपीट्स हिज मिस्टेक्स. काजर की कोठरी में कैसो हू जतन करो, काजर को दाग भाई लागे ही लागे. ये कहावतें हाल में निपटे पांच राज्यों के चुनाव नतीजों पर एकदम फिट बैठतीं हैं. इन नतीजों का दूसरा अहम संदेश ये है कि भारत की जनता अब इतनी सयानी हो चुकी है कि उसे आसानी से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है और उसे मुफ्तखोरी की लत बीमारी की हद तक लग चुकी है और वही राजनीतिक दलों की असली भाग्यविधाता है. इन नतीजों की रोशनी में ये सोच लेना भी जल्दबाजी होगी कि मोदी का जादू खतम हो रहा है या राहुल गांधी का सूरज उगने लगा है. बेशक ये भी सच है कि राजपाट में किसी का भी जादू हमेशा के लिये कायम नहीं रहता है और न ही कोई हमेशा के लिये जनता की निगाहों से ओझल रह सकता है. पर अगर तेलंगाना को छोड़ दें तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में भाजपा और मिजोरम में कांग्रेस के खेवनहार चुनाव से पहले दीवारों पर लिखी इबारत को नहीं पढ़ पाये तो यही कहा जा सकता है कि वो आत्ममुग्धता के शिकार हो गये और अंदर ही अंदर जनता के गुस्से को भांप ही नहीं पाये. छत्तीसगढ़ में चाउर वाले बाबा के नाम से मशहूर बेहद लोकप्रिय मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को ऐसी करारी शिकस्त का सामना करना पड़ेगा ऐसा चुनाव से पहले कोई सोच ही नहीं पा रहा था. प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर धान का कटोरा कहे जाने वाले इस राज्य में गरीबों को दो रुपये किलो चावल दिया जा रहा था. यहां की राशन प्रणाली को पांच साल पहले तक देश के लिये माडल माना जा रहा था. रमन सिंह को भी कमोबेश बेदाग छवि का नेता माना जाता रहा है. पर मतदान से तीन दिन पहले राजधानी रायपुर की सड़कों पर घूमे तो असलियत सामने आने लगी. आम मतदाता बदलाव के लिये खुसफुसाते दिखे. वजह तमाम बतायीं गयीं. रमन सिंह तो ईमानदार हैं पर उनके मंत्री बेईमानी की सीढ़ियां चढ़ते गये. रमन सिंह की नाक के नीचे उनके कारिंदे कमाई के रिकार्ड बनाते रहे. दो रुपये किलो चाउर का बुरा असर ये सामने आया कि किसानों को खेतों में काम करने वाले मिलना बंद हो गये. मेहनतकशों में अकर्मण्यता तो पसरी ही राशन वितरण में भी घोटाले के मामले सामने आने लगे. उस पर कांग्रेस के किसानों की कर्ज माफी के चुग्गे ने मारक प्रहार कर दिया. बेईमानों से घिरे आत्ममुग्ध ईमानदार का क्या हश्र हो सकता है उसे छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों से आसानी से समझा जा सकता है. किसने सोचा होगा कि मध्यप्रदेश की जनता 15 साल से राज करने वाले अपने प्यारे मामा को सत्ता से उतार देगी। पर चुनाव से पहले ग्वालियर चंबल संभाग के दौरे में अलग ही कहानी सामने आयी. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस की कर्जमाफी की काट के तौर पर किसानों के लिये भावांतर योजना शुरू की थी. इस क्षेत्र के ही एक जिले दतिया की कहानी कुछ यूं सामने आयी कि पहले इस योजना के तहत 8 करोड़ रुपया किसानों में बांटने के लिये आया जो ठीक ठाक बंट गया. इसके बाद फिर 108 करोड़ रुपया आया उसमें से केवल 8 करोड़ बंटा बाकी 100 करोड़ रुपया अधिकारी, बिचौलिये, और भाजपाई मिल बांट कर खा गये. जब दतिया में ये हाल रहा तो प्रदेश के बाकी जिलों का अंदाजा लगाया जा सकता है. यानी मामा भोपाल में निश्चिंत आत्ममुग्ध होकर बैठे रहे जिलों में उनकी किसान हितकारी योजना को पलीता लग गया. सुनाई तो ये भी पड़ा कि कलेक्टरों की भरती में पैसा लिया जाने लगा था. सो कलेक्टरों ने भी काम में कम कमाई में ज्यादा रुचि दिखायी. सोचा गया मीडिया को सेट रखो तो काम बन जायेगा सो राजधानी भोपाल में चुनिंदा पत्रकारों और फोटोग्राफरों को माहवारी रकम बांध दी गयी. व्यापम घोटाला पीछे लगा ही था रोजगार के मोर्चे पर भी कोई सालिड काम नहीं किया गया. खनन और शराब माफिया बेलगाम होने लगे और भ्रष्टाचार के छींटे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के परिजनों के दामन पर लगने लगे. मध्यप्रदेश वैसे भी संपन्न शहरों का नहीं ग्रामीण आबादी का प्रदेश है सो ऐसे हालात में कांग्रेस का कर्जमाफी का वायदा किसानों के सिर चढ़ गया. इसे भाजपा नेतृत्व का अति आत्मविश्वास कहें या आत्ममुग्धता कि वो आम मतदाता का मूड समझ ही नहीं पाये और अपनी ही धुन में आगे चलते रहे और भुगत गये. राजस्थान में उपचुनाव में पराजय के बाद भाजपा को ये समझ जाना चाहिये था कि लोग महारानी वसुंधरा राजे के राजकाज के तौर तरीकों से नाराज हो चले हैं. पर उपर से लेकर नीचे तक भाजपा का नेतृत्व बेफिकर रहा कि उपचुनाव और आम चुनाव में फरक होता है. जबकि राजस्थान की राजधानी जयपुर की फिजांओं में मुख्यमंत्री के बारे में दिलचस्प टिप्पणियां लगातार तैरती रहीं कि एट पीएम, नो सीएम. सप्ताह के शनिवार और रविवार को जनता तो दूर अफसर भी मुख्यमंत्री से मिलने को तरसते रह जाते. महारानी के अभिजात्य तौर तरीके राजस्थानी आम जनमानस को भाजपा से निरंतर दूर कर रहे थे. उपचुनाव के बाद से ही भाजपा के खेमे से ही ये चर्चा उभर कर बाहर आने लगी थी कि आमचुनाव में राज्य को बचाये रखना है तो नेतृत्व में परिवर्तन करना होगा. सुनाई तो ये भी पड़ा कि नेतृत्व परिवर्तन का सवाल उठा तो महारानी की धमकी थी कि अगर ऐसा किया गया तो पार्टी टूट सकती है. उस पर कभी राजपूत आंदोलन तो कभी जाट आंदोलन तो कभी गूजर आंदोलन ने भी नेतृत्व की क्षमता पर सवालिया निशान लगा दिये. मगर राज्य की मुख्यमंत्री को ये गुमान बना रहा कि मैने तो इतने काम किये हैं कि जनता को उन पर ही निछावर होगी. इसलिये वसुंधरा राजे पांच साल पहले वोट मांगने के लिये निकलीं थीं और अब पांच साल बाद दर्शन देने निकलीं. पांच साल की यह देरी सत्ता से दूरी बन गयी. उन्होंने ये मान लिया कि उन की कुछ योजनाएं जनता पर जादू की छड़ी का काम कर देंगी और वो उनके सामंती तौर तरीकों को नज़रंदाज़ करके सर आंखों पर बिठा लेगी. यही तो आत्ममुग्धता होती है. ये सही है कि चाहे राजतंत्र हो या लोकतंत्र कोई भी शासक अपनी सारी प्रजा को संतुष्ट नहीं कर सकता. थोड़े समय के राजपाट के बाद कुछ विरोधी स्वर उभर ही आते हैं. केवल वामपंथी शासन व्यवस्था में विरोधी स्वरों को कुचलने का माद्दा होता है. इस बारे में यूपी के मुख्यमंत्री और नौ बार विधायक रहे कल्याण सिंह ने एक बार कहा था, मै जानता हूं कि मेरे चुनाव क्षेत्र में कुछ मतदाता जिनका मै काम नहीं कर पाउंगा मुझसे नाराज जरूर होंगे. इसलिये अगले चुनाव से पहले मैं दूसरे क्षेत्र के मतदाताओं को मना कर इस नुकसान की भरपाई कर लेता हूं. भाजपा नेतृत्व इन तीन राज्यों में ये काम भी नहीं कर पाया. कुछ ऐसी ही आत्ममुग्धता का शिकार कांग्रेस को मिजोरम में होना पड़ा जिसे पूर्वोत्तर में उसका बहुत मजबूत गढ़ माना जा रहा था. कांग्रेस वहां दस साल से सत्ता में थी और इस आधार पर निश्चिंत थी कि वहां की 90 प्रतिशत से ज्यादा आबादी ईसाई है. उसे भरोसा था कि आरएसएस की ईसाई विरोधी नीतियां फिर से उसे हर हाल में सत्ता में तीसरी बार बिठा देंगी. पर हुआ क्या क्षेत्रीय दल ने उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया. हां 2019 का सेमीफाइनल कहे जा रहे इस मुकाबले में तेलंगाना को जरूर अपवाद कहा जा सकता है. नये बने उस राज्य में मतदाताओं ने अपने उसी नेता पर भरोसा करना ठीक समझा जिसे तेलंगाना का जनक माना जाता है. हालांकि वहां समय से पहले चुनाव करा के के चन्द्रशेखर राव ने एक जुआ खेला था. पर वहां की जनता उन्हें और समय देना चाहती थी. इसलिये न सोनिया गांधी की भावुक अपील काम आयी न गैर भाजपा मोर्चे की धुरी बन रहे आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू और उनका वामपंथियों और कांग्रेस के साथ गठबंधन कोई रंग दिखा पाया.

Published: 16-12-2018

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