प्राचीनतम काशी में शिव की पूजा भी प्राचीनतम है। वैदिक समय से यहां योगियों में एक परंपरा शिवदृष्टि की भी रही है जो काशी का शैव दर्शन है। नए समय में यह पहली बार उच्चार ले रहा। डॉ. गौतम चटर्जी की अंग्रेजी में लिखी पुस्तक 'काशी शैविज्म' इस विषय को पहली बार रेखांकित करती है और वैदिक सभ्यता से श्यामाचरण लाहिरी और गोपीनाथ कविराज जैसे मनीषियों तक आती योग परंपरा को गहन स्वरूप देती है। इस विषय प्रवर्तन पर प्रोफेसर कमल शील ने अपना लिखित विमर्श प्रस्तुत किया।
श्रावण मास के प्रथम सोमवार की शाम काशी की एक कलादीर्घा में इस पुस्तक पर काशी के विद्वानों ने गहन बातचीत की। दिल्ली की संस्था वाणीश्री का यह आयोजन था।
पुस्तक पर चर्चा करती हुई विदुषी प्रो. विभा त्रिपाठी ने पौराणिक आख्यान और पुरातात्विक आधार के उदाहरण रखे। अपने सारगर्भित वक्तव्य में प्रो. विभा ने विषय को जीवन और विद्या के अन्तस से जोड़ा। विषय प्रवर्तन डॉ. गौतम ने किया। उन्होंने बताया कि आठ प्रकार के शैव दर्शनों को विद्वान एक अरसे से जानते आ रहे जिनमें द्वैत और अद्वैत दोनों दृष्टियां हैं। सिंधु सभ्यता से अभी के कश्मीर तक शिव को लेकर दार्शनिक विचार हैं लेकिन काशी में भी है और वैदिक समय से रहा है ऐसा अब विद्वान और लोक पहली बार जान रहा। यहां नटराज और दक्षिणामूर्ति की आराधना आरम्भ से रही है।
संस्था की डॉ. संघमित्रा चक्रवर्ती ने धन्यवाद दिया। संगोष्ठी में प्रो. सुभाष लखोटिया, प्रो. सदानंद शाही, सुरेश जांगिड़, सुरेश नायर, राम शंकर, सरिता लखोटिया, वेणु वनिता, अदिति आदि मनीषा उपस्थित थी। कुशल संचालन दीप्तरूप घोष दस्तीदार ने किया। पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है।