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महाकुंभ का इतिहास : आध्यात्मिक दर्शन

आध्यात्मिक दर्शन
आध्यात्मिक दर्शन

हिन्दू समाज में सदियों पुरानी समागम की परम्परा रही है, जिसमें सामाजिक, धार्मिक व अध्यात्मिक तीनों पक्षों के लिए पाठ्यक्रम तैयार किये जाते रहे हैं, इसी परम्परा को हम कुंभ कहते है। न जाने कितने समय पहले से भारत के चार प्रमुख शहरों यथा हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक में पवित्र नदियों के किनारे प्रत्येक 12वे वर्ष दुनिया का सबसे विशाल सांस्कृतिक समागम ‘महाकुंभ’ का आयोजन होता रहा है, जहाँ करोड़ों की संख्या में देश-विदेश से साधु, संत व गृहस्थ पाप से मुक्ति एवं अमृतपान की लालसा लिए उत्साह, उमंग एवं ऊर्जा के साथ बिना किसी भेद-भाव के सामूहिक रूप से एक साथ पावन नदियों में डुबकी लगाते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब वृहस्पति ग्रह वृषभ राशि में हो और सूर्य मकर राशि में हो तब महाकुम्भ मेला प्रयागराज में लगता है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए 13 जनवरी, 2025 से प्रयागराज की धरती पर गंगा-यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के संगम पर आस्था, आध्यात्म, जप-तप और आधुनिकता के अद्भुत संगम को दर्शाते हुए 144 वर्षों बाद दिव्य-भव्य एवं डिजिटल पूर्ण महाकुंभ का आगाज हो चुका है।

 संख्या की दृष्टि से यह महाकुंभ दुनिया का विशालतम सांस्कृतिक समागम होगा जहाँ देश-विदेश से 40 करोड़ लोगों के पहुँचने का अनुमान है। जो, ब्रिटेन, स्पेन, जर्मन एवं इटली के समग्र आबादी से ज्यादा होगा। अगर महाकंभ में पहुँचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या को जोड़ दिया जाय तो यह आबादी के लिहाज से यह दुनिया का तीसरा बड़ा देश होगा।

 आश्चर्यजनक रूप से वो कौन सी अदृश्य शक्ति है जो लोगों को आपस में जोड़ती है और न जाने कब से जोड़ती चली आ रही है। भारतीयों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने वाले महाकुंभ के प्रारम्भ की बात करें तो इसका ठोस प्रमाण नहीं मिलता। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 89 सुक्त में कुम्भ शब्द का उल्लेख मिलता है। परन्तु कुंभ का मतलब कच्चे घड़े से है न कि मेले या स्नान से। ऋग्वेद के 600 साल बाद लिखे अथर्ववेद में पहली बार ‘पूर्ण कुंभ’ शब्द का जिक्र मिलता है इसके चौथे मंडल के 34वें सूक्त में इसे समय का प्रतीक बताया गया है। ऋग्वेद के 10वें मंडल के 75वें सूक्त में गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख मिलता है, जो संगम की ओर इशारा करता है।

जिस महोत्सव की कथा ही सुर एवं असुरों के एक साथ होकर समुद्र मंथन से शुरू होती है उसका उल्लेख करते हुए तुलसीदास ने रामचरित मानस में ‘देव दनुज, किन्नर, नर, श्रेणी, सादर, मज्जाहे सकल त्रिवेणी’ लिखा है। इस तरह बिना प्रमाणिकता के कुंभ की शुरूआत कब हुयी ये कहना मुश्किल है। सम्भवतः भारत में ज्ञान की परम्परा को अग्रसर करने के लिए कुंभ परम्परा की शुरूआत हुयी होगी और इसने कुंभ के अमृत यानि ब्रह्मज्ञान को लोगों तक पहुँचने में महत्वपूर्ण निभाई। 2500 वर्ष प्राचीन बौद्ध ग्रंथ मज्झिम निकाय में उल्लेख है कि अत्याचारी लोगों को प्रयाग में स्थान के बाद भी मोक्ष नहीं मिलता है। महाभारत एवं पुराणों में प्रयाग का उल्लेख मिलता है, लेकिन कुंभ मेले का कोई स्पष्ट जिक्र यहाँ भी नहीं मिलता। मत्स्य पुराण में पहली बार कहा गया कि माघ महीने में प्रयाग के संगम में स्नान करने से मोक्ष मिलता है। इसी तरह पद्य पुराण में संगम मेंं स्नान और पानी से आचमन करने को मोक्ष प्राप्ति का माध्यम बताया गया है। इतना तो निश्चित ही है कि अभी तक कुंभ की जानकारी सीमित लोगों तक ही रही होगी।

परन्तु महाकुंभ मेले को मुखर पहचान गुप्तकाल में मिला और इस दौर में इसे धार्मिक मण्डली का दर्जा मिला जिससे महाकुंभ साधु, सन्यासी के साथ गृहस्थों को भी अपनी ओर खीचने लगा यद्यपि इसका प्रचार-प्रसार व विस्तार अभी भी सीमित ही था। 

 हर्षवर्धन कालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने राजा हर्ष के द्वारा प्रत्येक चार वर्षों में प्रयाग के संगम तट पर दान का उल्लेख करता है, ह्वेनसांग भारत में करीब 15 वर्षों तक रहा था, इस तरह इसने सम्भवतः अर्द्धकुंभ का उल्लेख किया है। इस तरह पृण्यभूति वंश के राजा हर्षवर्धन ने महाकंभ के पहचान व वैभव को भारतीय जनमानस में अत्यधिक विस्तारित करने में सहयोग महाकुंभ के वैभव व ख्याति को विस्तृत करने में आदि शंकराचार्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्होंने अखाड़ों की शुरूआत की। शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार और मुगलों के आक्रमण से हिन्दू संस्कृति को बचाने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। अखाड़ा साधुओं का दल होता है जो शस्त्र और शास्त्र विद्या में पारंगत होते है। आजादी के पहले तक आखाड़ों ने देश के सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई महाकुंभ में शामिल होने वाले सभी अखाड़े अपने अलग नियम और कानून से संचालित होते है। वर्तमान में परम्परा के अनुसार शैव, वैष्णव और उदासीन पंथ के सन्यासी के मान्यता प्राप्त कुल 13 अखाड़े हैं।

आजादी के बाद जब देश का रक्षा तंत्र मजबूत हो गया तो इन अखाड़ों के प्रमुखों ने जोर दिया कि उनके अनुयादी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें और सनातन धर्म एवं दर्शन को आगे बढ़ायें। इन अखाड़ों के संतों ने कुंभ के प्रचार-प्रसार की पूरे देश में फैलाया यही कारण रहा कि शंकराचार्य के समय महाकुंंभ की वैभव व ख्याति कई गुना बढ़ गयी और महाकुंभ मेले को सनातन परम्परा के ध्वज वाहन के रूप में देखा जाने लगा। समय का चक्र चलता रहा और लोग इस महासमागम में अपने लिए अमृत तत्व को खोजते रहे। मुगल शासक अकबर ने प्रयाग व महाकुंभ के महत्व को गहराई से समझा और कड़ा यानि आज के प्रयाग को अपनी सल्तनत का सूबा बनाया। महाकुंभ के आयोजन में दिलचश्पी दिखाई तथा अफसरों की नियुक्ति की एवं उन्हें घाटों के निर्माण से लेकर साफ-सफाई की जिम्मेदारी दी गयी। इतिहास के किताबों में सल्तनत एवं मुगल कालीन शासकों के द्वारा अपने साम्राज्य के नागरिकों पर अनेक करों के लगाये जाने का उल्लेख मिलता है, इन्हीं करों में एक कर था तीर्थयात्रा कर यह तीर्थयात्रियों पर लगाया जाने वाला कर था। यह कर कुंभ में डुबकी लगाने वाले श्रद्धालुओं से भी लिया जाता था। बिना कर दिये कोई स्नान नहीं कर सकता था य़द्यपि भारी विरोध के बाद मुगल सम्राट अकबर ने इसे समाप्त कर दिये। महाकुंभ आध्यात्म के साथ-साथ शासकों के लिए आमदनी का भी स्त्रोत था। एक रिपोर्ट के अनुसार 1589 के प्रयाग के महाकुंभ में शाही खजाने से 19 हजार मुंगलियां सिक्के खर्च किये गये और 41 हजार मुंगलियां सिक्कों की कमाई हुयी। समय का चक्र आगे बढ़ता गया और समय दर समय महाकुंभ का महत्व व भीड़ बढ़ती रही। 

 ब्रिटिश सरकार ने भी भारतीय जनमानस के बीच कुंभ मेले के महत्व को गम्भीरता से महसूस किया और इसे व्यापार-वाणिज्य व कमाई के एक अवसर के रूप में भी देखा।

‘कुम्भ सिटी प्रयाग’ नामक किताब में कुंभ में शामिल होने वाले तीर्थयात्रियों के लिए तीर्थयात्रा कर का उल्लेख मिलता है। इसमें सन् 1810 के कुंभ का वर्णन करते हुए बताया गया है कि संगम में स्नान करने वाले तीर्थयात्रियों को 1 रूपया 4 आने कर देना पड़ता था इसे चुकाएं बिना कोई भी तीर्थयात्री संगम में डुबकी नहीं लगा सकता था। 

 अंग्रेजों के लिए महाकुंंभ मेला किसी आश्चर्य से कम नहीं था, वे समझ नहीं पा रहे थे कि कुंभ में बिना किसी सूचना तंत्र या आमंत्रण-नियंत्रण के इतने सारे साधु, सन्यासी, गृहस्थ तय तिथियों पर तथा तय स्थान पर इकट्ठा कैसे हो जाते हैं। कुम्भ में अमीर-गरीब सब एक साथ पहुॅचते थे ऐसे में कुंभ अंग्रेजों के लिए कारोबार का अच्छा स्त्रोत था यद्यपि इसका दायरा सीमित था। एक रिकार्ड के अनुसार अंग्रजों ने सन् 1882 के कुंभ में बीस हजार रूपये खर्च किये और कमाई लगभग ढाई गुना अर्थात 50 हजार रूपये हुयी। अंगं्रेजों के लिए कुंभ कानून-व्यवस्था का भी मुद्दा था। सन् 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज कुंभ एवं महाकुंभ को लेकर सतर्क हो गये थे, उन्हें डर सताने लगा कि कुंभ से क्रान्ति की ज्वाला न भड़क जाय। सन् 1882 के बाद कुंभ के सफल और सुनियोजित संचालन के लिए कुंभ की जिम्मेदारी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को दे दी गयी। महाकुंभ के व्यवस्था संचालन व भीड़ प्रबन्धन के लिए विशेष अफसरों की तैनाती की परम्परा प्रारम्भ हुयी जो अभी भी जारी है। स्वतंत्रता संग्राम के समय तो कुंभ एवं महाकुंभ स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मेल-मिलाप तथा आन्दोलनों के सामाजिक आधार को सुदृढ़ करने का माध्यम बना। समय के साथ कुंभ भी आगे बढ़ता रहा और भारत को स्वतंत्रता मिली। आजाद भारत का पहला महाकुंभ सन् 1954 प्रयागराज में आयोजित हुआ। आजादी के बाद हुये इस महाकुंभ में साधु, सन्यासी तथा आम श्रद्धालुओं में गजब का उत्साह दिखा था। इस महाकुंभ के लिए एक करोड़ 10 लाख का बजट रखा गया था। पहली बार महाकुंभ में तीर्थ यात्रियों के उपचार के लिए अस्थायी अस्पताल बनाये गये।

मेले में बिछड़े लोगों को मिलाने के लिए लाउडस्पीकर लगाया गया। मेले में पहली बार बिजली के खम्भे लगे और बल्ब के प्रकाश से रात्रि के समय मेला क्षेत्र को उजाला दिया गया। यह उस दौर में आधुनिकता के साथ परम्परा का अद्वितीय संगम था अनेक तीर्थयात्रियों ने तो पहली बार बिजली से वल्ब को जलते देखा। इस महाकुंभ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद ने कल्पवास लिया। प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने पवित्र संगम में माघ महीने के मौनी अमावस्या के दिन डुबकी लगाये थे। इन सब से इतर इस महाकुंभ को एक हाथी के भड़क जाने से फैली भगदड़ के दुखःद घटना के लिए भी याद किया जाता है। उस समय देश की आबादी 38 करोड़ थी और एक करोड़ लोगों ने पवित्र त्रिवेणी में डुबकी लगायी थी। 

 इस तरह समय एवं परिस्थितियां तो बदलती रही परन्तु महाकुंभ के प्रति लोगों की लालसा कम नहीं हुयी। सन् 1977 में एमरजेंसी के बावजूद डेढ़ करोड़ लोगों ने संगम में स्नान किया और यह कीर्तिमान समय दर समय बढ़ता चला गया तथा सन् 2013 के महाकुंभ में 12 करोड़ श्रद्धालुओं ने डुबकी लगायी तथा 2025 के पूर्ण महाकुंभ में 40 करोड़ लोगों के पहुँचने का अनुमान है। इस तरह महाकुंभ समय के साथ हुए बदलाओं को स्वीकार हुए देश के एकता एवं एजेंडा को आगे बढ़ाता रहा।

 कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथायें प्रचलित है, जिसमें सर्वमान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदे गिरने वाली कथा है। महाकुंभ मेला पृथ्वी पर तीर्थयात्रियों का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण समागम है। इस दौरान प्रतिभागी पवित्र नदी में डुबकी लगाते है। मान्यता है कि कुंभ में स्नान करने से व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। महाकुंभ देश के लिए केन्द्रीय आध्यात्मिक भूमिका निभाता है और यह भारतीय पर एक मंत्रमुंग्ध प्रभाव डालता है। महाकुंभ खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्म, अनुष्ठानिक और सामाजिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं को समाहित करता है, जो इसे ज्ञान में बेहद समृद्ध बनाता रहा है। 

 यह भारत के उस सनातन परम्परा से निकला समागम है, जिसमें इंसान स्वयं से साक्षात्कार करता है और जीवन का मर्म समझाता है। पौराणिक कथा समुद्र मंथन का अगर दार्शनिक वेदान्तिक व उपनिषदीय निहितार्थ निकाले तो समुद्र मंथन से प्राप्त कुंभ अथवा कलश प्रतीक है सत्य का, आत्मा का तथा उस बिन्दु का जिस तक पहुँचने के लिए हम सब पैदा हुए है। हमारा जन्म न तो विष पीते रहने के लिए हुआ है न ही कामनाओं के चक्कर में पड़े रहने के लिए हमारा जन्म अमृत तक अर्थात ब्रह्मज्ञान तक पहुँचने के लिये हुआ है।

कुंभ का वास्तविक मर्म को ध्यान में रखते हुए जिन स्थानों पर कुंभ आयोजित होते है उन स्थानों पर वैचारिक आदान-प्रदान का कार्यक्रम रखा जाय, आध्यात्म को आगे बढ़ाने वाले कार्यक्रम संचालित हो। पुराणों की कथाएं जो लोक कथाएं एवं लोकधर्म में प्रचलित है उनके गहरे वेदांतिक अर्थ को समझने का कार्यक्रम हो। कुंभ वास्तव में तभी अर्थपूर्ण होगें जब इस समागम में जगत और जीवन की समस्याओं पर चर्चा हो और उनका आध्यामिक समाधान खोजा जाय क्योंकि अधिकांश समस्या आत्मअवलोकन की कमी की उपज है जिनका समाधान आध्यात्म के द्वारा समुचित रूप से किया जा सकता है। विद्वानों का मानना है कि पवित्र नदी में डुबकी लगा लेने भार से इंसान जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं होता है। महाकुंभ का मंच सामूहिक रूप से समाज के बेहतरी के उपायों के मंथन का महामंच है जहां विद्वान आपस में वर्तमान, भूत एवं भविष्य पर चर्चा करते होगें। ऐसे उपायों पर चर्चा करते होगें जो इंसान को इंसान से, इंसान को समाज से, धर्म और प्रकृति से जोड़ते हुए ब्रह्मज्ञान का रास्ता दिखा सके।

 ये महाकुंभ का आकर्षण है, सम्मोहन है, सरोकार है, संवाद की परम्परा है, स्वयं को जानने की जिज्ञासा है, अमृत प्राप्ति की लालसा है जो साधु-संत, सन्यासी एवं गृहस्थ बिना किसी आमंत्रण के देश के कोने-कोने से एक जगह एकत्रित हो जाते है। कुंभ मेला न सिर्फ भारत का बल्कि विश्व का मनुष्यों का सबसे बड़ा जमावड़ा रहा है। इससे बड़ी सामुदायिकता सम्पूर्ण विश्व में किसी भी उद्देश्य के लिए नहीं होती है।

कुंभ का प्रचलन भारत में अति प्राचीन है उस समय संचार व यातायात की सुविधाएं नगण्य थी ऐसी स्थिति में व्यक्तियों को अपने-अपने रीति-रिवाज व ज्ञान के श्रेष्ठता के प्रति भ्रम होना स्वाभाविक था। लेकिन कुंभ जैसे आयोजनों में जब देश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले व्यक्तियों का जमावड़ा होता था तो विचारों व संस्कृति का खुला आदान-प्रदान होता था और एक तरह की उदारता हमारे अन्दर आती थी और मनुष्य अपने को श्रेष्ठतम मानने वाले अहंकार शिथिल होने लगता था क्योंकि जब हम कुंभ में मिलते है तो बाते करते हैं, एक दूसरे को जानने का प्रयास करते हैं, कथाये सुनते है, हमारा उद्देश्य दूसरों को दबाना नहीं होता है। अगर कोई ऐसा होता जिससे हमारी असहमति हो भी जाय तो हम शास्तार्थ करते है। इस तरह से यह कुंभ का सामाजिक पक्ष था जो भारत के लिए अति उपयोगी रहा। भारत में जो सहिष्णुता की भावना है, वैचारिक खुलापन और उदारवाद रहा उसमें इस तरह के मेलों, संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों का निश्चित ही बहुत महत्व रहा है और इसने भारत को बहुत आगे ले गया। वर्तमान में भारत सूचना-संचार क्रांति के दौर से गुजर रहा है और महाकुंभ का जो प्राचीन उद्देश्य सूचनाओं का आदान-प्रदान था उससे हम बहुत आगे निकल चुके है ऐसे में इस दौर में कुंभ का स्वरूप क्या हो इसके आयेजन के निहितार्थ क्या होना चाहिए इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है इसलिए वर्तमान में हमारी नदियां दूषित है, भूमण्ंडलीय तापन, पर्यावरणीय प्रदूषण जैसी चिन्ताएं लगातार बढ़ रही हैं। अगर नदियों को हम माँ मानते हैं तो अस्वस्थ माँ को और तकलीफ देना क्या नैतिक होगा? हमारे सनातन धर्म का अन्तिम उद्देश्य भी तो नैतिकता, आचरण की पवित्रता पर ही रहा है। प्रदूषित पर्यावरण कभी भी संपोषणीय विकास में सहायक नहीं बन सकता। बदलते समय के साथ हमें अपने उत्सवों एवं त्योहारों को नये एवं गहरे अर्थ देने पड़ेगें अन्यथा सब कुछ विकृत, अर्थहीन, ऊर्जा व अवसरों का अपव्यय होगा और ऐसे में धर्म की भी साख घटती है।

 महाकुंभ ने आध्यात्मिक तथा सामाजिक पक्ष के अतिरिक्त लोगों के लिए व्यापार-वाणिज्य रोजगार के अवसर भी लाता रहा है जहां मुगल काल से आज तक महाकुंभ ने निवेश से ज्यादा पूँजी निर्माण की है। वर्तमान महाकुंभ को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी का पूर्वानुमान है कि इस बार भारत की अर्थव्यवस्था में महाकुंभ के द्वारा 2 लाख करोड़ रूपया जुड़ेगा। वर्तमान महाकुंभ को दिव्य-भव्य बनाने के लिए 63 सौ करोड़ रूपये खर्च होने की सम्भावना है। इस बजट का बड़ा हिस्सा शहर के अवसंरचना निर्माण में खर्च हुआ है। आइये समझते है 2 लाख करोड़ का गणित अगर कोई तीर्थयात्री आयेगा तो टैक्सी बस या रिक्शा का प्रयोग करेगा, होटलों या अन्य जगहों पर ठहरेगा कुछ खरीदारी भी करेगा ऐसे में मान ले कि अगर वह 5000 रू0 खर्च कर देता है और जैसा अनुमान है कि इस बार 40 करोड़ श्रद्धालुओं के प्रयागराज पहुँचेगें इस तरह से देश की अर्थव्यवस्था में 2 लाख करोड़ जुड़ जायेगा। माना जा रहा है जो तीर्थयात्री महाकुंभ में डुबकी लगायेंगें उनमें से ज्यादातर अयोध्या, काशी, मथुरा जैसे आस्था के अन्य केन्द्रों पर जाना चाहेंगें महाकुंभ से आस्था एवं अर्थव्यवस्था में ऐसा इको-सिस्टम बनता जा रहा है जिसमें सबको अपना कल्याण दिख रहा है। 

 भारत की सनातन परम्परा कैसे बदलाओं को स्वीकार करती है वर्तमान में आयेजित हो रहे महाकुंभ को देखकर समझा जा सकता है। संगम के तट पर आयोजित हो रहे महाकुंभ को भव्य-दिव्य एवं डिजिटल महाकुंभ बनाने के लिए आधुनिक स्मार्ट तकनीकों का गजब समागम दिखाई दे रहा है। अनुमानित 40 करोड़ आगन्तुओं को ध्यान में रखते हुए महाकुंभ क्षेत्र का विस्तार 40 किमी0 में किया गया है। 50 हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात किये गये है। 27 सौ सी0सी0टी0वी0 कैमरा, ड्रोन एवं आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस के सहयोग से मेला परिसर के एक-एक तीर्थयात्रियों की निगरानी की जा रही है ओर इसके लिए आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस इंटिग्रेटेड सेंटर बनाया गया है। रेलवे स्टेशनों पर क्यू आर कोड वेस टिकटिंग की व्यवस्था है।

लगभग 5 लाख गाड़ियों के पार्किंग की व्यवस्था है। साधु-संतों का भी स्मार्ट फोन, इंटरनेट एवं तकनीक से रिश्ता मजबूत होता जा रहा है। सोशल मीडिया पर रील के चलन ने कुंभ को वैश्विक एवं भव्य बनाने में तथा सनातन परम्परा से पूरी दुनिया को परिचित कराने का अद्भूत सहयोग दिया है। इस तरह कुंभ में पुरातन व आधुनिकता का अद्वितीय संगम हमें दिखाई दे रहा है। यही सनातन परम्परा की खूबसूरती भी है कि तकनीक आयी तो उसका विरोध करने के बजाय उसे सहज रूप से स्वीकार कर लिया है। इस तरह महाकुंभ का दर्शन हर आदमी के वजूद, तौर-तरीकों का सम्मान, बिना किसी बाहरी दबाव के खुद को अनुशासित करने का फ़लसफ़ा है। अपने सामर्थ्य के अनुसार दूसरों के लिए कुछ करने की सोच, पुरानी चीज का बिना विरोध किये नये चीज को स्वीकार करना, चाहे वह भौतिक हो या ज्ञान की धारा, चाहे परम्परा हो या आधुनिकता। यही सोच तो भारत की आत्मा एवं एकता की प्राणवायु रही है जिसे महाकुंभ जैसे महामंचों वे सदैव आगे बढ़ाया। भले ही कालचक्र के हिसाब से महाकुंभ के भौतिक स्वरूप में बदलाव आता रहा हो लेकिन आत्मा वही रही है ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामया’।  

 

 

              ( ओम प्रभा )

                शोध छात्रा

 आधुनिक एवं मध्यकालीन् इतिहास विभाग

      ईश्वर शरण डिग्री कालेज

          प्रयागराज


Published: 20-01-2025

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