अगर आप वाकई लखनऊ के हैं तो बचपन मे आपने यह आवाज़ जरूर सुनी होगी "लैया रामदाने की,बच्चों को बहलाने की"। सुनी है?नहीं सुनी है ,तो जाहिर है आपका बचपन लखनऊ में नहीं बीता है। अगर नही बीता है तो आपकी अम्मा ने आपको बहलाने का कोई और तरीका ईजाद किया होगा। मगर मैं खास लखनऊ का हूँ। साठ सत्तर साल हो गए रहते हुए। पैदा भले सीतापुर में हुआ था।मुझे अच्छी तरह याद है कि जब वह आवाज़ लगाता था तो मेरी दादी अम्मा तो क्या मोहल्ले की कई अम्माएँ उसे बुलाकर रामदाने की लैया खरीद लेती थीं। उसे खा कर रोते हुए बच्चे चुप हो जाया करते थे। उनकी बहती हुई नाक उनकी माताएं आँचल से पोछतीं थीं। और वे लैया राम दाने की खाने के बाद सड़क पर गुल्ली डंडा खेलने निकल पड़ते थे। राजनीति के मैदान में यही उनका पहला सबक होता था।
मुझे नहीं पता कि किस पार्टी के नेता ने अपने बचपन मे लैया रामदाने की खाई थी। अनुमान के आधार पर श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जरूर खाई होगी। वे पुरानी पीढ़ी के थे। उनके बचपन मे पिज्जा नही था ,लैया राम दाने की थी। पत्रकारी को चाहिए जब अटल जी के जमाने के , भारत रत्न प्राप्त लाल कृष्ण अडवाणी का इंटरव्यू करें तो लैया रामदाने के बारे में यह प्रश्न जरूर करें -क्या आपने खाई थी?अगर नहीं खाई तो राम मंदिर बनाने के बारे में विचार कैसे आया?.
जहां तक कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी की बात है तो जाहिर है किइटली में लैया रामदाने की बिकती नही है सो बचपन मे उन्होंने नहीं खाई होगी तो फिर राहुल और प्रियंका को क्यों खिलाई होगी। यह गरीबों के बच्चों को बहलाने की चीज है।रईसों को शायद ही रामदाने की लैया का नाम भी पता होता होगा। मै कांग्रेस के विरुद्ध यहां कोई तजनीतिक टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। भाजपा की नेता बसुंधरा राजे ने भी शायद ही कभी रामदाने की लैया खाई हो। नितिन गडकरी और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह से भी जरा इसके भाव और स्वाद के बारे में पूंछ कर देखें। सदन में प्रश्न करके देखें तो आप पार्टी वाले उनकी जीभ पर रामदाने की लैया रखने के लिए टूट पड़ेंगे।
मुझे नहीं पता कि रामदाने को राम दाना क्यों कहते हैं?राम से उसका रिश्ता क्या है। लेकिन इतना मालूम है कि पहले यानी मेरे बचपन में यह सस्ती होती थी । चूंकि पचास -साथ दशक के बीच कोई खाता पीता मध्यम वर्ग पैदा नही हुआ था। इसलिए लैया रामदाने की खूब बिकती थी। उस दौर में पिज्जा,इडली,चाउमीन नही था। घरों में हलुआ बनता था,पकौड़ी बनती थी। महिलाएं बच्चों को धोखा खिलाते थे।पापड़ भून कर देते थे । बच्चे उसे चाव से खाते थे। हाँ, आलू की टिक्की और दही बड़ा उस समय बहुत लोकप्रिय था ।
जमाना बदलता रहता है। पिछले दशकों में इतनी तेजी से बदला है कि उसे पहचानना मुश्किल हो गया है। अम्मा ,अम्मी बोलते थे बच्चे । अब माम बोलते हैं। वैसे ऊपरी तौर पर कोई खास फर्क नजर नहीं आता। लेकिन अगर गौर करें तो हलुए और केक में जो अंतर है , वह साफ दिखाई देता है। हलुआ पुरातन है केक आधुनिक।
अब इस दौर में पुरातनपंथी भला कौन कहलाना चाहेगा? टाई को कंठलँगोट कहना क्या हास्यप्रद नहीं लगेगा। मैं ही नहीं हर कोई चाहेगा कि उसका बच्चा फर्राटे से अंग्रेजी बोले। गिटपिट- गिटपिट बोले । अच्छी बात है।फ्रेंच भी बोले तो और भी अच्छा लेकिन "मैया मोरी मैँ नहिं माखन खायो"
को नहीं भूले तो और भी बेहतर।
तो भाइयों और भौजाइयों ! आपसे निवेदन सिर्फ इतना है कि आप भले ही पिज्जा खाइए,चाउमीन खाइए लेकिन लैया रामदाने को भूल न जाइये ।अगर आप भूल गए तो जानते हैं क्या होगा?
जब आप और आपके पतिदेव बूढ़े हो चुके होंगे और आप दोनों की बत्तीसी बाहर आ चुकी होगी तब जब आपके पोता पोती,नाती ,नातिन पूछेंगे बताइये लैया राम दाना क्या होता है?आपने हमे अभी तक क्यों नहीं खिलाई? तब आप और आपके पतिदेव मोबाइल का पीटीएम लेकर घूमेंगे ,पूछते फिरेंगे कि लैया रामदाने की कहाँ किस दुकान में मिलती है। गूगल से भी पता नहीं चल रहा है। वह किसी भाव मे नहीं मिलेगी। शहर और कसबे हाथ उठा देंगे कि बाबा जमाने की चीजें हम नहीं बेचते। तब आपको किसी गांव के बड़े बूढ़े से सुनेंगे कि हां कभी बिकती थी।बरसीं हो गए सूने हुए।
हां, बिकता तो बहुत कुछ था लेकिन माल कल्चर ने सब लपेट लिया। चीनी की बुढ़िया, छोटी सी बकसिया में सजी,कपड़ो में बंधी कुल्फी मांगोगे तो माल कल्चर की बहुमंजिला दुकानें मुंह बा देंगी। पंसारी की दुकानें, हाट बाजार धीरे धीरे कहानी किस्से हो जाएंगी। मालकल्चर बीते जमाने की चीजें नही बेचता। जानता भी नही है।
अनूप श्रीवास्तव