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होली : जो रस बरस रहा बरसाने

गोपिकाएं कुछ समझ पाती उससे पहले ही उनके ऊपर रंग की वर्षा होने लगी। कुंज के घने वृक्षों पर बैठे गोप सखाओ ने गोपिकाओ के ऊपर रंग भरी पिचकारी मारनी शुरू कर दी। पूरे वातावरण में रंग गुलाल का आवरण चढ़ गया।

जो रस बरस रहा बरसाने
जो रस बरस रहा बरसाने
पूरे बरसाने गाँव में रंग बरस रहा था लेकिन गोपियों कि दृष्टि बार बार नन्द गांँव वाली पगडंडी की ओर लगी हुई थी। किसी अतिआत्मीय की प्रतीक्षा में गोपियों की रंग भरी झोली का मुंँह अब तक न खुला था। गोपियों के अतिआत्मीय कृष्ण हो हो सकते है सो यह प्रतीक्षा उन्ही की थी।
 
धीरे धीरे दिन चढ़ने को आया लेकिन कृष्ण अपने गोप सखाओ संग बरसाने होली खेलने नही आए। हर वर्ष कृष्ण तो सवेरे- सवेरे जमुन जल लाते समय से ही गोपीकाओं को घेरकर रंगना शुरू कर देते थे। गृह का काज तक न करने देते यहांँ तक कि त्योहार की रसोई बनाने तक में खटका लगा रहता कि कहीं कान्हा आकर रसोई में रंग न डाल दे। ग्वाल बालों को लट्ठ से डराना पड़ता था। फिर आखिर इस बार ऐसा क्या हो गया जो उन्होंने अब तक हमारी सुधि न ली। क्या वे भूल गए कि हम उनकी राह तक रहीं होंगी। क्या आज राधा का भी ख्याल न आया उन्हे ? ऐसे तमाम प्रश्नों ने राधा सहित गोपियों के मन को क्लांत कर रखा था।
 
कृष्ण की प्रतीक्षा में होली के रंग भरे दिन भी राधा के चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई। सखी रंगदेवी से राधा का उतरा चेहरा देखा न गया। रंगदेवी ने बाकी सखियों की ओर इशारे भरी दृष्टि से देखा कि शायद किसी के पास कुछ उपाय हो। “क्यों न हम सब सखियांँ ही इस बरस नन्द गांव चलकर रंग खेल आवे ?” ललिता ने सुझाव दिया, “अब कुछ न कुछ तो करनो ही पड़ेगो। न जाने श्याम आज काहे नहीं आए। वाके बिना होरी को कैसो आनन्द ?”
 
 जब कृष्ण हर बार होली खेलने आते तो यही सखियां उनके ग्वाल बाल को लट्ठ लेकर धमकाती थी लेकिन जब कान्हा इस बार वृंदावन नही आए तो सारी सखियों को होली का हो हल्ला कर्कश लगने लगा। बाहर से आ रही “हो..हो..होरी है” की ध्वनि उनके लिए बस शोर भर थी। रसोई बनी तो लेकिन किसी सखी से कौर न तोड़ा गया। सबका चित्त बस श्याम श्याम की टेर में लगा रहा।
 
राधा ने सखियों की बात सुनी तो वे गोकुल जाने को तैयार हो गई। सबने अपनी - अपनी रंग भरी झोरी उठाई और कृष्ण राह पकड़ ली। “श्याम ने आज ऐसी ठिठोली करके नीकी नाय करी वाको आज मजा तो चखानो ही पड़ेगो। सबरी मिलके आज वाको श्याम रंग लगाएंगी। कारो को और कारो करेंगी।” सखी इंदुलेखा ने सबको समझाते हुए कहा। लेकिन राधा चुप ही थी। उन्हे तो बस कान्हा के दर्शन की आस थी और मन ही मन वह कृष्ण छवि में ध्यान लगाए हुए चल रही थी। तभी एक सखी ने उन्हें चिताते हुए कहा ‘लो कान्हा यहाँ‌ बैठे है।’ कृष्ण नंदगांव के बाहर एक वृक्ष की जड़ पर बैठे थे। सखियों ने आसपास देखा तो कोई ग्वाल बाल भी नही दिखाई पड़ा। 
 
सखियां कृष्ण के पास पहुंची और उनसे ब्रज न आने का कारण पूछने लगी। लेकिन श्याम ने न तो उन गोपियों की ओर देखा और न ही उनके प्रश्नों का उत्तर दिया। राधा ने स्निग्ध दृष्टि ने श्याम को निहारा लेकिन श्याम से तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। श्याम बस शांत भाव से नीचे की ओर दृष्टि डाले बैठे रहे। राधा का दिल कृष्ण को इस तरह देख बैठा जा रहा था। अपनी नटखट बातो और लीलाओं से गोकुल में रोज ही उत्सव करने वाले श्याम आज इतना गंभीर होकर होली के हुल्लड़ से दूर क्यों बैठे है यह सभी गोपियों की समझ से परे था। 
 
श्याम को कुछ न बोलते देख एक सखी उनके पास पहुंँची और उनकी बाह कसकर पकड़ ली। “तुम क्या समझे थे लला हम तुम्हे आज के दिन भी ऐसे छोड़ देंगी।” कहते हुए सखी ने अपनी कमर ने बंधी रंग की झोरी खोल ली। अब तक चेहरे पर गंभीरता ओढ़े श्याम धीरे से मुस्कुराए। रंगने के लिए हाथ में झोरी लिए खड़ी सखी से श्याम ने वह झोरी छीन ली। गोपिकाएं कुछ समझ पाती उससे पहले ही उनके ऊपर रंग की वर्षा होने लगी। कुंज के घने वृक्षों पर बैठे गोप सखाओ ने गोपिकाओ के ऊपर रंग भरी पिचकारी मारनी शुरू कर दी। पूरे वातावरण में रंग गुलाल का आवरण चढ़ गया। पहले से तैयारी करके बैठे ग्वालो ने सखियों पर इतना गुलाल बरसाया की सबकी आंँखें बंद हो गई।
 
सखियों की रंग से भरी झोरी खुली ही न सकी। हर एक को लग रहा था कि श्याम बस उसे रंग लगा रहे है और वह प्रेममूर्ति बनी उन्हे निहारे जा रही है। कृष्ण सबके थे सो वे सबके पास थे और एकदम ऐसे जैसे वह किसी और के हो ही नही सकते।
 
राधा ने अपनी कलाई में किसी की पकड़ महसूस की। वह स्पर्श से ही समझ गई की यह कृष्ण है। श्याम ने अपने दोनो हाथो में गुलाल लेकर श्यामा जू के दोनो गालों पर मल दिया। राधा जी ने शिकायते लहजे में कृष्ण से बरसाने आकर रंग न लगवाने का कारण पूछा तो कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले, “राधे मैं तो तुम्हारे रंग में ही रंगा हूंँ तो फिर भला इन रंगों का मुझपर क्या असर होगा। प्रेम का रंग ही सबसे गाढ़ा रंग हैं। इतना गाढ़ा कि यह न सिर्फ रंगे जाने वाले को बल्कि रंगने वाले को भी अपने में सराबोर कर लेता है। रही बात बरसाने न आने की तो यह सब श्रीदामा की योजना थी। उसे हर बार के लट्ठ का हिसाब जो करना था इन गोपियों से।” राधिका समझ चुकी कि यह सब कान्हा की ही चाल थी।
 
श्यामा जू ने अपने गालों पर लगे गुलाल को हथेलियों में लेकर कान्हा के दोनो गालों को रंग दिया और दोनों एक ही रंग में रंग गए। यह रंग प्रेम का था। यह रंग भक्ति का था। राधा कृष्ण की प्रेमभक्ति के रंग और रस में फिर पूरी सृष्टि डूब गई लेकिन जो रंग और रस होली को बरसाने में बरसता है वह और किसी भी लोक में नही। 
 
- द्वारिका

Published: 20-03-2024

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