समाजवादी पार्टी की घोसी उप चुनाव में जीत आगामी लोकसभा चुनाव के संदर्भ में एक सधी शुरुआत मानी जा रही है। इस जीत का सेहरा जनता के सर बांधने की परम्परा रही है। समाजवादी पार्टी ने भी उसी परम्परा का निर्वाह किया लेकिन जनता के मानस पटल पर अपनी छाप डालने वाले रणनीतिकार शिवपाल सिंह यादव की मेहनत को भी किसी नजरिए से खारिज नही किया जा सकता है। उन्होने पुराने और नये पार्टी नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के बीच जिस प्रकार से सांमजस्य स्थापित कर संघर्ष को दिलचस्प बनाया वह अपने आप में अद्धितीय रहा है।
पूरे चुनाव में उन्होने जिस प्रकार की भूमिका निभायी वह एक संघर्षषील व्यक्तित्व का परिचय है। जीत के पीछे कई और भी रहस्य छिपे हुए हैं। वे रहस्य भी समाजवादी पार्टी की जीत में बड़ी भूमिका निभाने वाले कारक बने। करीब 16 महीने में ही भाजपा छोड़ सपा और फिर सपा छोड़ भाजपा में जाकर चुनाव लड़ने वाले दारा सिंह चौहान की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ा। दूसरी तरफ करीब 62 हजार क्षत्रिय और राजपूत मतदाताओं का एक तरफा झुकाव हुआ। साथ ही यादव और मुस्लिम अर्थात पार्टी का एमवाई समीकरण ने भी बड़ी भूमिका निभायी।
समाजवादी पार्टी को कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, रालोद का साथ मिला। इन सभी पार्टियो के कार्यकर्ताओं ने इंडिया संगठन को मजबूती देने के लिए एकजुटता का अहसास कराया। इसके अलावा बसपा इस उप चुनाव में चुनावी मैदान से बाहर रही। भाजपा दलित मतदाताओं को साधने में इस बार नाकाम रही। जिसकी वजह से दलित मतदाताओं का मत भी समाजवादी पार्टी अपने पाले में खींच ले गयी। इस बात का अहसास सत्ताधारी दल को भी हो चुका है।
यदि हम बात सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव की करे तो संगठन को कैसे खड़ा किया जाता है। संगठन का किस प्रकार उपयोग किया जाये समाजवादी पार्टी में उनसे अधिक अनुभव शायद ही किसी नेता के पास हो। उन्होने पार्टी संगठन में गतिशीलता लाने और जुझारूपन पैदा करने में कोई ढिलाई नही बरती। इस बात को पिछले दो उप चुनावों ने साबित कर दिया है। यह ध्रुव सत्य है कि संघर्ष कभी निरर्थक नहीं जाता है।
उन्होने वातानुकूलित सियासत करने वाले समाजवादियो को भी आइना दिखाया है। पहले पार्टी के भीतर शिवपाल की प्रतिबद्धता को लेकर आशंकाऐं व्यक्त की जा रही थी लेकिन उन्होन अपने कर्म से उन को निर्मूल साबित कर दिया है। उनकी सक्रियता ने हताश-निराश पुराने समाजवादियों में भी नयी उर्जा का संचार किया। पुराने समाजवादी भी जो नेपथ्य में सांस ले रहे थे वे भी मोर्चे पर डट गये। उन्होने संघर्ष करने के कौशल और प्रतिबद्धता का नियोजित प्रदर्शन किया।
शिवपाल ने पार्टी के स्थापना काल से ही पार्टी संगठन को खड़ा करने में जो खून जलाया और पसीना बहाया उसकी भरपाई कर पाना नामुकिन है। साल 2016-17 में समाजवादी पार्टी के भीतर जो भी घटना चक्र घटित हुआ, उसे दुर्भाग्यपूर्ण के सिवा कुछ नही कहा जा सकता है। उसका नतीजा भी पार्टी भुगत चुकी है। सपा में शिवपाल की वापसी के बाद पार्टी में नयी प्राण वायु का संचार हुआ। पार्टी के निष्क्रिय हो चुके वरिष्ठ समाजवादी नेतां और कार्यकर्तां सक्रिय हो उठे। उन्हे उम्मीद की किरण दिखायी पड़ी। आज शिवपाल को पार्टी के चाणक्य की उपमा से नवाजा जा रहा है।
पार्टी के भीतर नई जिम्मेदारी मिलने के बाद उन्होने अतीत को भुलाकर वर्तमान में सांस लेना बेहतर समझा। नई पटकथा लिखने का संकल्प लिया। चुनावी मैदान में विपक्षी का सामना करने के लिए कार्यकर्ताओं को संघर्ष करने का गुर सिखा कर सियासी रण क्षेत्र में उतारा। साथ ही उन्होने खुद आगे डटकर मोर्चा सम्हाला और कार्यकर्ताओं से जुड़े रहे।
सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल पर जो भरोसा जताया था भतीजे के उस भरोसे को फिलहाल चाचा ने अंजाम तक पहुचाया। सबसे पहले पार्टी और परिवार की प्रतिष्ठा से जुड़े मैनपुरी लोकसभा के उप चुनाव में बहू डिम्पल यादव की जीत तय करने में अपनी साख और प्रतिष्ठा को दांव पर लगाया। बहू डिम्पल को लोक सभा की ड्योढ़ी पार कराकर, इस सीट की परम्परा को महफूज रखा। यह सीट सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन होने के कारण रिक्त हुई थी। मैनपुरी लोकसभा उप चुनाव में शिवपाल की मेहनत, त्याग और संघर्ष को उनके विरोधी भी सराहना करते हैं।
घोसी विधान सभा के उप चुनाव में शिवपाल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ बूथ प्रबंधन से लेकर जन संवाद तक के अभियान में खुद को जोड़े रखा। उन्होने कार्यकर्ताओं को चुनावी प्रबंधन की जो शिक्षा दी, वह मौजूदा परिस्थितयों के अनुकूल था। परिस्थितयों के सामने किताबी शिक्षा नगण्य हो जाती है लेकिन घोसी में शिवपाल ने कार्यकर्ताओं को परिस्थितजन्य रणनीति के अनुसार जिम्मेदारी सौंपी। प्रशासन की ज्यादतियों के खिलाफ वे मुखर रहे। जब सेनापति मोर्चे पर डटा हो तो उसकी सेना भी उसका साथ नही छोड़ती है।