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कवि : मुकुट बिहारी सरोज

यह माना, तुम एक अकेले,शूल हजारों घटती नज़र नहीं आती मंजि‍ल की दूरी ले‍कि‍न पस्‍त करो मत अपने स्‍वस्‍थ हौसले समय भेजता ही होगा जय की मंजूरी

मुकुट बिहारी सरोज मुकुट बिहारी सरोज

उनका जीवन आदि से अंत तक रोमांचक था। मृत्यु से कुछ घंटा पहले उन्हें 'काका हाथरसी हास्यरत्न पुरस्कार' तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री डॉ मुरली मनोहर जोशी ने प्रदान किया था ,जिसे आईसीयू में ले जाकर उन्हें सौंपा गया। वे अस्थमा के मरीज थे और अपनी शर्तों पर जिंदगी जीनेवाले अघोरी थे। जिन कवियों की कविता के वे घोर विरोधी थे ,उनके नाम का पुरस्कार शायद उनकी स्वाभिमानी आत्मा बर्दाश्त नहीं कर पायी और कुछ ही घंटों में उस युग-चारण ने अपना दम तोड़ दिया। अंतिम दिनों में उन्होंने मुझे कई लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखी थीं,जिनका आशय यही था कि स्थितियाँ उनके अनुकूल नहीं थीं।

अपनी वसीयत में उन्होंने सख्त निर्देश दिया था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शव को विद्युत शवदाह गृह में जलाया जाये। शवयात्रा में कोई धार्मिक मंत्रोच्चार न हो और न ही कोई श्राद्धकर्म किया जाए। उनके जनमने की तारीख में कवित्व था - 26 जुलाई 26; हालाँकि मृत्यु की तारीख 18 सितम्बर 2002 में छंद का निर्वाह नहीं हो पाया। वे स्वभाव से खांटी कम्युनिस्ट थे, मगर जीवन में कभी किसी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं रहे।उन्हें आशंका थी कि पार्टी अनुशासन उनके औघड़पन को स्वीकार न करे। तथापि ,अपने सात सदस्यीय परिवार में उन्होंने साढ़े चार कम्युनिस्ट बंना दिये।

कालेज की पूरी पढ़ाई में अधिकाँश समय पीछे से घिसी पेन्ट को लम्बे-ढीले कुर्ते से ढंककर निबाह किया। वे कुछ दिन फॉरवर्ड ब्लॉक के भी सदस्य रहे। एक प्रिंटिंग प्रेस में कम्पोजिटर बने। उन्होंने तांगे वालों और प्रेस मजदूरों की यूनियन बनाई।ग्वालियर में मई दिवस के एक आयोजन में लाऊडस्पीकर, तांगे और घोड़े सहित गिरफ्तार भी हुए।तांगेवाला यही रट लगाता रहा कि आजये कैसी सवारी मिलीं कि घोड़ा तक गिरफ्तार हुआ ! परिवार का वित्त -प्रबंधन ऐसा कि महीने के अंत में रोटी-नमक-मिर्च से काम चलता था।

वह फक्कड़ कवि थे ग्वालियर के मुकुट बिहारी सरोज (1926 -2002) ,जिनकी कविताएं 'इन्हें प्रणाम करो ,ये बड़े महान हैं ' 'ऐसे ऐसे लोग रह गए ' 'मेरी कुछ आदत ख़राब है ' एक समय जनकविता के प्रतिमान हुआ करती थी और कविसम्मेलनों की प्रमुख आकर्षण । बातचीत के अन्दाज में व्यंग्य गीत रचने वाले सरोज जी छन्द विधान, विषय-वस्तु और तेवर की दृष्टि से अनूठे कवि थे । उन कविताओं की प्रस्तुति भी वे नाट्य-संवाद की तरह पूरे अभिनय के साथ करते थे। उनके गीतों के शब्द-शब्द में आजादी के बाद की राजनीति में जनता के सपनों के तिलस्म का टूटना झलकता है।उनके केवल दो कविता संग्रह प्रकाशित हुए - 'किनारे के पेड़' और 'पानी के बीज'। उनकी स्मृति में एक संस्था गठित है -जनकवि मुकुट बिहारी सरोज स्मृति न्यास ,जो प्रतिवर्ष उनके जन्मदिन 21 जुलाई को ग्वालियर में किसी रचनाकार को सम्मानित करता है। सौभाग्यवश,मुझे उनका भरपूर स्नेह मिला। कई बार उनके साथ मुझे भी मार्क्सवादी अड्डों पर रेन बसेरा करने का मौका मिला। वे जन्मजात फक्कड़ थे। किसी को भी भला-बुरा कह सकते थे। ऐसा न होते तो विश्वविद्यालयी समीक्षक उन्हें सिर पर उठाते। -बुद्धिनाथ मिश्र

जब तक खुले न पाल

जब तक कसी न कमर, तभी तक कठि‍नाई है
वरना,काम कौन-सा है, जो कि‍या न जाए।

जि‍सने चाहा पी डाले सागर के सागर
जि‍सने चाहा घर बुलवाये चाँद-सि‍तारे
कहनेवाले तो कहते हैं बात यहाँ तक
मौत मर गई थी जीवन के डर के मारे
जबतक खुले न पलक, तभी तक कजराई है
वरना, तम की क्‍या बि‍सात,जो पि‍या न जाए।

तुम चाहो सब हो जाए बैठे ही बैठे
सो तो सम्‍भव नहीं भले कुछ शर्त लगा दो
बि‍ना बहे पाया हो जि‍सने पार आज तक
एक आदभी भी कोई ऐसा बतला दो
जब तक खुले न पाल,तभी तक गहराई है
वरना,वे मौसम क्‍या,जि‍नमें जि‍या न जाए।

यह माना, तुम एक अकेले,शूल हजारों
घटती नज़र नहीं आती मंजि‍ल की दूरी
ले‍कि‍न पस्‍त करो मत अपने स्‍वस्‍थ हौसले
समय भेजता ही होगा जय की मंजूरी
जबतक बढ़े न पाँव,तभी तक ऊँचाई है
वरना,शि‍खर कौन- सा है,जो छि‍या न जाए।


Published: 23-05-2023

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