कभी सत्तारूढ़ सरकार के मार्गदर्शक मंडल के एक वरिष्ठ नेता ने हम पत्रकारों के चाल चलन पर मौजू टिप्पणी की थी -"आप से सिर्फ बैठने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो लेट गए। दण्डवत करने लगे। आज लगता है यह टिप्पणी ही सारे परिदृश्य पर लेटी हुई है। हम अपने कांपती उंगलियों से पत्रकारिता की परिकल्पनाओं को टटोल रहे हैं।
पत्रकारिता के मानदंड कभी रहे होंगे, नैतिक मूल्य भी रहे होंगे, सम्वेदनाओं के छोर पर हम सजग हुआ करते थे,अब सारे मुद्दे बेमाने हो गए हैं। अब हम सिर्फ प्रबन्ध पत्रकारिता के लम्बरदार हैं| हम बेमतलब । हर जगह दुम हिला रहे हैं। व्यवस्था खिलखिला रही है। और इस हालत के लिए सत्ता गाहे बगाहे ही, हम स्वतः जिम्मेदार हैं। पत्रकारिता की संस्थाए पहले भी कोल्हू के बैल की सजग भूमिका में थी आज भी इससे इतर नही हैं।
आज हमारे लिए एक ही मुहावरा मौजू है -बाजार लगी भी नही/गठकते आ पहुंचे. अखबार और चैनल के कामकाज पर उंगली उठाने की जरूरत भी क्या है? अब न्यूज़ की जगह व्यूज़ परोसे जा रहे हैं। अखबारों और चैनलों ने स्वतः मुखौटे लगा लिए हैं। हमारी सरगर्मी एक ऐसे अंधे कुएं जैसी है जिसमे झांकने के लिए वे भी उतारू है जिनके पास बाल्टी डोर तक नही हैं, फिर भी शोर मचा रहे रहे हैं । हम चुल्लू भर पानी के लिए मोहताज हैं। लगता है - किसी को भी हमारी फिक्र नही है । कोई हमारी ओर देखता क्यो नहीं?
सोशल मीडिया के व्यामोह ने हमे कहां से कहाँ पहुंचा दिया है। सच तो यह है कि न तो कहीं उस पत्रकारिता का वजूद दिख रहा है और न ही कोई मूल्यों की दुहाई देता नज़र आ रहा है। दिलचस्पी की बात यह है कि अखाड़े का अता पता नही है,फिर भी ताल ठोंकने की कवायद जारी है. जिस तरह से पत्रकार संगठनों के कई फाड़ हो चुके हैं करीब करीब वैसी ही हालत मान्यता समिति की है. पत्रकारिता के तथाकथित सिपहसलार जो आज मान्यता समिति की एकता की बात कर रहे हैं वे ही पिछले चुनाव में दो फाड़ हुई मान्यता समिति के अलग अलग हुए चुनाव में मतदान करके अपनी मोहर लगा चुके हैं। जब छप्पर छाने की हिम्मत नही नजर आती तभी मोहल्ले के लोगो और पड़ोसियों से गुहार की जाती है. पड़ोस हमारी ओर क्यो देखे हमने भी कभी उधर देखा नहीं।
दिक्कत यह है कि हमारी पत्रकारिता की गतिविधियां भी सरकारी बैसाखियों की मोहताज हो चुकी हैं । हम उसकी बैसाखी के लिए कदम कदम पर मोहताज हैं। आलम यह है जो स्वार्थ के दलदल में आकंठ डूबे हुए है वे भी पत्रकारिता पर उंगली उठाने की जहमत कर रहे हैं. क्या वाकई में पत्रकारिता ब्लैकमेल का हथियार बनने के लिए अभिशप्त हैं. अखबार के मालिकों ने पत्रकारिता को धंधा और कमाई का हथियार बना लिया है। इसे देख कर प्रॉपर्टी डीलर भी अखबार के मालिक बन बैठे हैं.
देखा देखी मे बड़ी संख्या में ऐसे पत्रकारों की जमात भी खड़ी हो गयी है जो विधिवत अब अखबार मालिक हैं. यह दीगर बात है कि कुछ समझदार पत्रकारों ने अपने अखबारों के पंजीकरण पत्नी के नाम करा रखा है। पत्नी घर का चूल्हा फूंकती है और पति अखबार चला रहे हैं. ऐसे भी पत्रकार हैं जिनके नाम से पेट्रोलपम्प, गैस एजेंसी और रिजॉर्ट तक हैं। यही नहीं, पत्रकारिता को आखिरी सलाम कर (आघोषित लालबत्ती) और लंबी तनखाह पाने के बाद फिर पत्रकारिता के पाले में ता ता थैया करने के लिए फिर सेअखबारी जिंदगी में लौट आये हैं. मजे की बात यह है कि वे भी पत्रकारिता को दिशा देने का मन बनाये हुए हैं. उनका तर्क यह है कि जिसके हाथ मे कलम है वे सभी पत्रकार हैं. पत्रकारिता को दिशा देने की लालसा रखने वालों में तमाम ऐसे भी हैं जिन्होंने पिछले कई सालों से खबर या लेख के नाम पर एक लाइन तक नहीं लिखी है. क्या उनसे पूछने का हमे हक नहीं है कि बन्धु आपने पिछले एक साल में कितना लिखा पढ़ा है ? आपके लेखों, खबरों की कटिंग, छाया प्रति कहाँ है। हमे कैसे यकीन हो कि आप वाकई में हमारी बिरादरी में हैं. पत्रकार हैं.
पत्रकारिता के क्षेत्र में अहम भूमिका निभाने वाली मान्यता समिति क्या बिना सरकारी बैसाखी के बगैर एक कदम भी चल नही सकती. हम इतने सरकारजीवी हो गए हैं कि हमारी वजूद साबित करने वाली संस्था तक को अपने कामकाज के लिए भी सरकार का मुंह देखना पड़ रहा है.अभी तक हम सरकारी सुख सुविधा,आवास, यात्रा आदि के लिए ही मोहताज थे क्योंकि हमने अपनी भूख बढ़ा ली थी.और इस गुनाह में हम सभी मजबूरन फंसते चले गए. अब निकल पाना दूभर हो रहा है.इसके लिए हम अपने मालिको से लड़ नहीं सकते. उसके बाद सरकार ही बची रह जाती है हाथ फैलाने के लिए. और अब सरकार भी समझ गयी है कि उसकी बैसाखी के बिना हम खड़े नहीं हो सकते। हमारे अंदर रत्ती भर भी सम्मान नहीं बचा है. चाहे कितना हू लंबा चौड़ा दावा करें लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने का जज़्बा हममें नही रहा. फिर सरकार हमारी मदद क्यों करे?
पत्रकारों का घर ठीक ठाक चल सके इसके लिए पालेकर अवार्ड, बछावत आयोग बने पर सेवा निवृत्त होने पर पत्रकारों को पेंशन देने के लिए किसी ने प्रस्ताव तक नही रखा.श्रम कानूनों में प्रविधान करने पर भी जोर नहीं डाला. अगर स्वतंत्र पत्रकार या वरिष्ठ पत्रकार की सरकारी मान्यता न होती तो कोई उनसे वोट तक नही मांगता. महिलाओं की भागीदारी की हम सभी पैरवी करते है पर मान्यता समिति की बागडोर हमने किसी महिला पत्रकार कोआज तक नही सौंपी। क्यों ? आखिर क्यों? जबकि महिला ब्यूरो चीफ और सम्पादक पद तक हैं. यह एकतरफा रवैया क्यों ? मान्यता समिति के लिए बुलाई गई बैठक की अध्यक्षता के लियेहमने उन्हें क्यो दरकिनार किया? अगर ऐसा नही है तो मान्यता समिति के अध्यक्ष पद को इस बार किसी उपयुक्त महिला पत्रकार के लिए सुरक्षित कर दी जाए पुरुष पत्रकारों को इसकी पहल करने का अवसर नहीं गवाना चाहिए.
यह सही है कि समय के साथ हर क्षेत्र में विस्तार हुआ है. पहले केवल प्रिंट मीडिया हुआ करता था।इसलिए बड़े अख़बारों से एक संवादाता को मान्यता दी जाने का नियम था फिर कार्य क्षेत्र की समस्या के चलते दो रिपोर्टरों को मान्यता दी जाने लगी. बाद में चैनल आये और अब डिजिटल मीडिया भी पत्रकारिता की जरूरत बन गया.इसलिए मान्यता समिति का आकार बढ़ना स्वाभाविक है.लेकिन मौजूदा दबाव के चलते "सो कॉल्ड पत्रकार मजनूओं" की छंटनी के लिए पहल कौन करेगा?इसके लिए पत्रकार संगठनों को आगे आना ही होगा तभी हमारा वजूद बच पायेगा.
मेरी पोस्ट को पढ़ने के बाद तमाम अच्छी और एकाध तीखी प्रतिक्रियाएं आयी है.कुछ फोन भी आये. कई संदेशे भी.सभी का स्वागत. काजल की कोठरी में हममें से कोई दूध का धुला नहीं है. मैं भी नहीं.लेकिन आत्मालोचन करने का अधिकार सभी को है. हम प्रायश्चित करके ही अपनी छवि बचा सकते हैं।
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