सर्वोच्चता का संघर्ष एक विडंबना
भारतीय प्रजातंत्रीय व्यवस्था कार्यपालिका यानि मंत्री परिषद्, व्यवस्थापिका यानि संसद और न्यायपालिका यानि सर्वोच्च न्यायालय में निवास करती है। भारतीय संविधान में न्यायालय को सर्वोच्च स्थान मिला है पर न्यायालय की शक्तियां और क्षेत्राधिकार सीमित है जबकि विधायिका का क्षेत्राधिकार देश के सभी विषय होते है। हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति माननीय जगदीप धनकड़ ने भारतीय न्यायपालिका को धाकड़ चुनौती दी है। उनका सर्वोच्च अदालत से सवाल है कि जब संसद अदालती फैसले नहीं कर सकती, तो अदालते संसद द्वारा बनाए कानून में दखल क्यों देती है, उनका यह सवाल 2014 मे संसद द्वारा बनाए गए कानून की ओर इशारा करता है जो 99वां संविधान संसोधन करते हुए कालेजियम सिस्टम खत्म करके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करना था, जिसे सर्वोच्च अदालत ने यह कहते हुए निरस्त किया कि यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है।
भारतीय संविधान कार्यपालिका व्यवस्थापिका और न्यायपालिका तीनों की शक्तियों का स्पष्ट विभाजन करता है फिर भी भारतीय संविधान की रक्षा की दायित्व न्यायपालिका को दिया गया है, किन्तु देश की सर्वोच्च संस्था संसद है जब संसद कोई कानून बनाती है यानि जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जो देश की कुल आबादी का प्रतीक है, उनके द्वारा बनाए कानून को निरस्त करना वास्तव में जनमत का अपमान है। संविधान की रक्षा का मतलब क्या यही है कि जनमत पर जज भारी? क्या भारतीय संविधान इन जजों की देखरेख में बना था? संसद और न्यायपालिका का यह संघर्ष पहली बार नहीं हुआ है। इसके पहले भी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और सर्वोच्च अदालत के बीच काफी आलोचना और प्रत्यालोचना हुई है। वास्तव में केशवानन्द भारती प्रकरण न्यायपालिका की सर्वोच्चता स्थापित कर गया, जिसमें कहा गया था कि संसद कोई ऐसा कानून नहीं बना सकती, जो संविधान होगी जो प्रजातंत्र की आत्मा है। के मूल ढांचे की भावना के विपरीत हो, संविधान का मूल ढांचा या भावना की तर्क संगतता तय करने का अधिकार न्यायपालिका के पास है, जबकि सरकार का मार्गदर्शक ही भारतीय संविधान है। क्या न्यायालय संसद को जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं मानती यदि मानती है तो जनता ही जनार्दन है प्रजातंत्र की इस मूल अवधारणा का क्या होगा ?
प्रजातंत्र संसद न्यायपालिका की सर्वोच्चता का यह संघर्ष किसी नतीजे तक पहुंचना चाहिए ताकि कोई स्पष्ट और पारदर्शी व्यवस्था स्थापित हो सके और सरकार के तीनों अंग कार्यपालिका व्यवस्थापिका और न्यायपालिका अपनी सीमाओं में कार्य कर सके साक्ष ही गतिरोध की स्थिति का अन्त हो सके। वास्तव में यह संघर्ष जल्द ही किसी नतीजे वास्तव में यह संघर्ष अपने-अपने तक पहुंचेगा लेखक का ऐसा विश्वास है। देश में शान्ति व्यवस्था और विकास सरकार की जवाबदेही है और देशकाल अनुसार परिवर्तन को जगह देना भी। संविधान कोई पूर्ण व्यवस्था नहीं है और हो भी नहीं सकता। भारत का संविधान तो वैसे भी लचीला संविधान कहा जा सकता है। जिसमें आवश्यकतानुसार संशोधन की गुंजाइस है, किन्तु न्यायपालिका क्यों जड़ता की स्थिति में है, जजों की नियुक्ति जज ही करें, यह वो वंशानुक्रम के सिद्धान्त का समर्थन है। सरकार को इस मामले में पारदर्शी व्यवस्था का अधिकार होना चाहिए यह कहीं से अनुचित नहीं है। सरकार और सर्वोच्च अदालत को टेबल पर आना चाहिए, छीछालेदर तंत्र के लिए हानिकारक है। सर्वोच्चता के संघर्ष की वास्तविक स्थिति माननीय धनकड़ जी का वक्तव्य कि न्यायालय सर्वोच्च है या देश की संसद संविधान की भूल भावना क्या यह है कि देश की संसद न्यायालय के नीचे है, यह देखना सबसे अहम सवाल है. संविधान एक मार्गदर्शक ग्रन्थ है जो सरकार को यथा समय राह दिखाता है और चुनी हुई संसद ही सर्वोच्च है। यदि न्यायपालिका की सर्वोच्चता स्थापित हुई तो यह तो जनमत की अवहेलना होगी.