नितीश कुमार ने जिस तरह आनन फानन में सरकस के ट्रेपीज कलाकार की तरह पाला बदल कर रिकॉर्ड नौवीं बार बिहार की हुकूमत संभाली है उसने एक बात तो अच्छी तरह साबित कर दी है कि वो सियासत के कितने मंझे हुए खिलाड़ी हैं. सबसे कम विधायी ताकत होते हुए भी अपने एक बड़े सहयोगी को धूल चटा देना और दूसरे बड़े दल को अंगूठे के नीचे दाब कर ले आना इस बात का सबूत है कि आज की तारीख में नितीश कुमार के कद के सामने बिहार में तो सभी बौने हैं। यही नहीं ऐसा करके वो खामोशी से राहुल गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार की उस कतार में भी खड़े दिखायी देने लगे हैं जो नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के लिये पी एम मैटीरियल माने जा रहे हैं.
नितीश कुमार को ऐसा लगता है कि बिहार का सियासी तालाब अब उनके लिये छोटा है. वो दो साल पहले कह भी चुके हैं कि ये उनका आखिरी चुनाव है. माने अब वो देश सँभालने के लिए छटपटा रहे हैं. राजधानी पटना की सियासी जमीन पर कुशलता से कांग्रेस सहित राजद और वाम दलों को साथ लाकर जो महागठबंधन उन्होंने बुना है वो दिल्ली के तख्त पर आसीन भाजपा के लिये 2024 में खतरे की घंटी है. या देश की हर दिशा में कदम जमाने में जुटी भाजपा के लिये चुनौती जिसे अवसर में बदलने की कला में धीरे धीरे वो पारंगत होती जा रही है. बेशक भाजपा ने सीनियर पार्टनर होते हुए भी नितीश के कद के आसपास भी टिक सकने लायक कोई चेहरा बिहार में तैयार नहीं किया. परंतु उसके हक़ में सूरतेहाल ये है कि अगर नितीश के साथ सरकार में बनी रहती तो 24 में मतदाता के सवालों के घेरे में होती, अब विपक्ष में आ गयी है तो जवाब मांगने की स्थिति में होगी.
चार दशक पहले जे पी मूवमेंट की कोख से बिहार की जमीन पर चार नौजवान नेता लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, रामविलास पासवान और सुशील मोदी सामाजिक न्याय के नाम पर उभरे थे. जे पी के इन चार चेलों में पासवान ने सबसे अलग हट कर दिल्ली में डेरा जमा लिया. तो पिछले तीन दशकों से बिहार की सत्ता में दो ही नाम लालू और नितीश कुमार ही छाये रहे हैं. रहे सुशील मोदी तो वो भाजपा के चेहरे के रूप में नितीश कुमार के डिप्टी ही बने रह गये अपना कोई सिक्का नहीं जमा सके. रामविलास पासवान अब दुनिया में नहीं रहे. सुशील मोदी दिल्ली आ गये, लालू यादव अरण्यवास की स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं. सो नितीश के लिये मैदान खाली था और वो अब तक सही स्ट्रोक लगाते भी आये हैं. राज करने का लम्बा अनुभव हो, गठबंधन की तुरपाई में माहिर हो, बेदाग छवि हो तो इस प्रोफाइल पर किसी के भी मन में देश के शीर्ष पर विराजमान हो जाने की आकांक्षा बलवती हो सकती है.
2014 से दिल्ली के तख्त पर काबिज दक्षिणपंथी राज को उखाड़ फेंकने की काबिलियत उनमें है. इस बात का इशारा नितीश कुमार ने दे दिया है. यह कह कर कि हम सबको साथ लेकर चल सकते हैं. साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह कह कर चुनौती भी दे दी है कि जो 2014 में आये वो 2024 में रहेंगे भी ? मोदी को नितीश तबसे ही पसंद नहीं करते थे जब 2014 में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था. वो तो नितीश के सत्ता मोह ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद साथ चलने को मजबूर कर रखा था. उनकी कुलजमा पोजीशनिंग ये है कि देश में भाजपा को हटाने के लिये सेकुलर खेमे की कप्तानी उनसे बेहतर कोई और नहीं कर पायेगा. दरअसल राज्य की सीमा से बाहर आकर देश के पैमाने पर चमकने की उनकी महत्वाकांक्षी सोच ने ही उनसे ताजा पोलिटिकल स्ट्राइक करवा डाली है.
अब सवाल ये है कि देश के विपक्ष का नेता बनने की राह में नितीश के सामने चुनौतियां क्या हैं ? पहली चुनौती तो उन्हें सांप कह चुके बड़े भाई लालू का वारिस तेजस्वी यादव ही है जो नितीश कुमार की छवि को चार चाँद तो लगाने से रहा. दूसरी बार बिहार के उपमुख्यमंत्री बने तेजस्वी ने बीते सालों में अपने को एक योग्य वारिस साबित किया है. नितीश कुमार की नस नस से वाकिफ पिता का मार्गदर्शन उन्हें हासिल है ही. मतदाता से संवाद की कला में पिता की छवि दिखायी पड़ने लगी है. दस लाख नौकरी देने के वादे के बारे में ये कह कर कि जब मुख्यमंत्री बनेंगे तब हम नौकरी देंगे अभी तो हम उपमुख्यमंत्री हैं, अपने राजनीतिक रूप से परिपक्व होते जाने का सबूत पेश कर ही दिया है. अब ऐसे में विधानसभा में डबल पॉवर से लैस भतीजा चचा की कितनी बात मानेगा और ताकत में आधे चचा किस सीमा तक भतीजे की डिमांड पूरी कर पायेंगे. ये देखना दिलचस्प होगा.
इसमें कोई शक नहीं कि जंगलराज के सफाये के वादे के साथ आये नितीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में बिहार के आधारभूत ढांचे, कानून और व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, मद्यनिषेध, अति पिछड़ों, अति दलितों की लामबंदी के क्षेत्र में जिस उत्साह से काम किया उसी ने उन्हें मीडिया में सुशासन बाबू का नाम दिलवाया. पर समय के साथ साथ सत्ता के अवगुणों ने जनता दल यूनाइटेड के रैंक एंड फाइल को प्रभाावित करना शुरू कर दिया. यही वजह है कि बहुमत के आधे से इंच भर कम विधायक तक पहुंच जाने वाले दल की आज हैसियत राजद और भाजपा के बाद तीसरे नंबर की है. वो तो दुश्मन के दुश्मन को अपने मतलब के लिये दोस्त बनाने की कला का कमाल है कि साथी कोई रहे मुख्यमंत्री वही रहे. उनके ताजा शासन काल में नितीश कुमार की वो हनक धमक और इकबाल नजर नहीं आता जो पहले और कुछ हद तक दूसरे कार्यकाल में था. यह उनकी दूसरी चुनौती होगी कि उनकी खुद की जमीन कैसे बची रहे.
इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा ने 2014 से ही पर्याप्त बहुमत के बावजूद राष्ट्रीय जनतांत्रिक संगठन की छतरी के तले सहयोगी दलों के साथ मिल कर काम किया है. पर साथ ही साथ सहयोगी दलों के प्रभाव क्षेत्र में भी अपना अलग प्रभाव कायम करने का प्रयास कभी नहीं छोड़ा. महाराष्ट्र, असम और गोवा में उसने सहयोगी दलों के इलाके निगल लिये हैं और अब बिहार की बारी है. प्रधानमंत्री की एक्ट ईस्ट पालिसी के तहत पूर्वोतर राज्यों और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की सफल सर्जरी के बाद अब बीच में बिहार और बंगाल दो ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा सत्ता से नाखून भर की दूरी तक पहुंच चुकी है. दरअसल भाजपा अब बहुत देर तक सहयोगियों का बोझा अपने सिर पर लाद कर चलने के मूड में नजर नहीं आती. महाराष्ट्र और पंजाब का उदाहरण सामने है जहां शिवसेना और अकाली दल राजग की छतरी से निकल गये तो भाजपा ने बहुत मनाया भी नहीं. नितीश कुमार को इस बात की आशंका होना स्वाभाविक है कि महाराष्ट्र का हश्र बिहार में दुहराया जा सकता है.
बिहार में हुई ताजा पलट ने भविष्य में सियासी शतरंज के तीन बड़े खिलाड़ियों के सामने अवसर के साथ चुनौतियां भी पेश कर दीं हैं. अब राज्य में विपक्षी खेमे की अकेली सरदार भाजपा है और नरेंद्र मोदी के भरोसे 2024 के लोकसभा और 2025 के विधानसभा चुनाव में वो उस मतदाता को अपने पाले में ला सकती है जो कुछ समय से सुशासन बाबू के शासन से कसमसा रहा था और राजद के पास जाना नहीं चाहता. महादलित और महापिछड़ा का फार्मूला जरूर नितीश ने गढ़ा होगा लेकिन भाजपा जद यू के इसी भंडार में सेंध की पूरी कोशिश करेगी. तो जद यू राजद के साथ मिल कर मंडल से कमंडल की काट में कोई कसर छोड़ने वाली नहीं है. अगर लोकसभा चुनाव में बढ़िया नतीजा ले आयी तो राष्ट्रीय मंच पर नितीश कुमार की लौन्चिंग धमाकेदार हो सकती है. तीसरा खिलाड़ी तेजस्वी यादव है जिसका फिलहाल एक ही मकसद होगा कि दिल्ली दरबार में तो उसकी दमदार मौजूदगी हो ही बिहार का ताज उसके सर बंधे. बिहार में एक और प्लेयर चिराग पासवान भी अपना दांव चलेगा. बेशक अभी जीरो हो पर पॉलिटिक्स में जीरो से हीरो बनते देर नहीं लगती. बहरहाल बिहार एक बार फिर दिलचस्प मुकाबले की राह पर है.
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार है)