मिर्ज़ापुर की 'कजरी' को क्या हुआ
तबस्सुम खान : लखनऊ : कजरी या 'कजली' महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है, जो उत्तर प्रदेश में काफ़ी प्रचलित है. परिवार में किसी मांगलिक अवसर पर महिलाएँ समूह में कजरी गायन करतीं हैं. कजली यों तो पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश का लोकगीत है किंतु मिर्जापुर, बनारस और जौनपुर में इसकी विशिष्ट शैलियां विकसित हुईं जो आज भी विद्यमान हैं. एक बड़ी पुरानी लोकोक्ति है- 'लीला राम नगर कै भारी कजरी मिर्जापुर सरनाम'. इस लोकोक्ति से कजरी और मिर्जापुर का संबंध स्वत: स्पष्ट है. कजरी की जन्म स्थली मिर्जापुर ही है. कजरी गीतों के जन्मदाता के रूप में मध्य भारत के राजा दानों राय का नाम लिया जाता है. उन्होंने कज्जला देवी (विंध्याचल देवी) की स्तुति के रूप में कजरी गीतों का आविष्कार किया. एक अन्य मान्यता के अनुसार दानों राय की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सती हो गई थीं, उस समय की महिलाओं ने अपना दु:ख व्यक्त करने के लिए एक नए राग में जिस गीत की रचना की वही कजरी है. कजरी गायन का आरंभ ज्येष्ठ मास के गंगा दशहरा से होता है. तीन मास-तेरह दिन तक कजरी गाने का विधान है. गंगा दशहरा से आरंभ होनेवाली यह गायन परंपरा नागपंचमी से लेकर कजरी तीज तक अपने चरमोत्कर्ष पर रहती है. मिर्जापुर और बनारस की कजरी में शैली का अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है. यद्यपि कजरी की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतभेद नहीं है फिर भी इस बात पर सभी एकमत हैं कि कजरी का प्रचलन मिर्जापुर से ही बढ़ा. कजरी गायन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि कजरी का मायका मिर्जापुर और ससुराल बनारस में है. यह वर्षा रितु का लोकगीत ब्रज क्षेत्र के प्रमुख लोक गीत झूला सावन में व होरी फाल्गुन में गाया जाता है. कजरी गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है. इस लोक गीत को सावन के महीने में गाया जाता है. यह अर्ध-शास्त्रीय गायन की विधा के रूप में भी विकसित हुआ और इसके गायन में बनारस घराने का ख़ास दखल है. कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन विरह-वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिकतर मिलता है. कुछ लोगो का मानना है की कान्तित के राजा की लड़की का नाम कजरी था. वो अपने पति को प्यार करती थी जो उस समय उनसे अलग कर दी गयी थी. उनकी याद में जो वो प्यार के गीत गाती थी, उसे मिर्जापुर के लोग कजरी के नाम से याद करते हैं. वे उन्ही की याद में कजरी महोत्सव मानते है. हिन्दू धर्मग्रंथों में श्रावण मास का विशेष महत्त्व है. कजरी के चार अखाड़े-प.शिवदास मालवीय अखाड़ा, जहाँगीर, बैरागी, अक्खड़ अखाड़ा है. यह मुख्यतः बनारस, बलिया, चंदौली और जौनपुर जिले के क्षेत्रों में गाया जाता है. भारत के हर प्रान्त के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में ब्रज का मलार, पटका, अवध की सावनी, बुन्देलखण्ड का राछरा तथा मिर्जापुर और वाराणसी की 'कजरी'. लोक संगीत के इन सब प्रकारों में वर्षा ऋतु का मोहक चित्रण मिलता है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की कजरी लोकगायन की वह शैली है जिसमें परदेस कमाने गए पुरुषों की अकेली रह गईं स्त्रियां अपनी विरह-वेदना और अकेलेपन का दर्द व्यक्त करती हैं. नव विवाहिताएं कजरी के माध्यम से मायके में छूट गए रिश्तों की उपेक्षा की वेदना प्रकट करती हैं. स्त्रियों द्वारा समूह में गाए जाने वाली कजरी को ढुनमुनिया कजरी कहते है. विंध्य क्षेत्र में गाई जाने वाली मिर्जापुरी कजरी में सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और खटास के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है. बदलते समय के साथ लोक संगीत के दूसरे प्रारूपों में तो बहुत बदलाव आए, लेकिन यह कजरी जस की तस रही. कजरी गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी के सूफी शायर अमीर ख़ुसरो की बहुप्रचलित रचना है- 'अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया. 'अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की एक रचना 'झूला किन डारो रे अमरैया' भी बेहद प्रचलित है. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कुछ कजरी गीतों की रचना की है. लगभग सभी शास्त्रीय गायकों और वादकों ने कजरी की पीड़ा को सुर दिए हैं. गिरिजादेवी की आवाज़ और बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में कजरी की वेदना शिद्दत से महसूस होती है. भोजपुरी लोकगायिका विंध्यवासिनी देवी और शारदा सिन्हा के गाए कजरी गीत हमारी अनमोल धरोहर हैं. हिंदी और भोजपुरी सिनेमा में भी कजरी गीतों का खूब प्रयोग हुआ है, लेकिन ज्यादातर कजरी गीतों में कजरी की आत्मा कहीं नहीं नज़र आती. सचिनदेव वर्मन के संगीत में गीतकार शैलेन्द्र का लिखा फिल्म 'बंदिनी' का यह कजरी गीत आज भी सिनेमा में कजरी गीतों का मीलस्तंभ बना हुआ है. अब के बरस भेज भैय्या को बाबुल सावन में लीजो बुलाए रे लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियां दीजो संदेशा भिजाए रे। अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे रिमझिम पड़ेंगी फुहारें लौटेंगी फिर तेरे आंगन में बाबुल सावन की ठंडी बहारें छलके नयन मोरा कसके रे जियरा बचपन की जब याद आए रे। .. बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई बाबुल थी मैं तेरे नाज़ों की पाली फिर क्यों हुई मैं पराई बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती ना कोई नैहर से आए रे। पूर्वांचल की माटी और संस्कृति कजरी अब विलुप्त सी होती जा रही है. विगत एक दशक पूर्व सावन मास शुरू होने के साथ ही कजरी लोक गीत की शुरुआत हो जाती रही और लगभग सावन भादों तक इस लोक गीत के लिए दंगल का आयोजन कर जन मानस आनन्द उठाते रहे हैं. सावन मास शुरू होते ही रिमझिम फुहारो के बीच महिलायें रात्रि के समय झूला झूलते समय अपनी सुरीली आवाज से जब कजरी का गायन करती थी तो पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाता था. साथ ही विरह रस की अभिव्यक्ति से लेकर शिव पार्वती के श्रृंगार तक की दास्तां कजरी के माध्यम से ऐसा प्रस्तुत करती थी कि श्रोताओं के मन मुग्ध हो जाते थे. जनपद जौनपुर में रहमान शाह नामक कजरी लोकगीत के रचनाकार थे जो मुसलमान होकर भी इस संस्कृति के वाहक थे. जौनपुर सहित आजमगढ़, गाजीपुर आदि जनपदों में कजरी के गायक स्व. रहमान शाह की रचित लोक गीत कजरी गया करते थे. इसी तरह सब्बन कौव्वाल भी ऐसे कवि रहे जो कव्वाली के साथ कजरी का भी गायन करते रहे है. गांव के खेतों में धान की रोपाई के समय कजरी का गायन करते हुए महिलायें बिना थके बिना रुके पूरे दिन खेत में काम करते हुए ताजगी का एहसास करती थी. मिर्जापुर के साथ ही बनारसी कजरी भी खासी लोकप्रिय रही यहाँ के कजरी गायक हाथों में घुंघरू बाध कर चुटकी के साथ उसके धुन निकालते हुए कजरी का गायन करते रहे है. यह लोक गीत पूर्वांचल की परम्परा बनते हुए यहाँ की माटी में रच बस गया था लेकिन आज धीरे धीरे यह गीत अपने विलुप्तता की ओर बढ़ता ही जा रहा है. सबसे खास बात यह रही कि कजरी में भोजपुरी भाषा का अधिक प्रयोग होता रहा जो क्षेत्रियता का बोध करता रहा है. कजरी क्षेत्रियता का बोध कराने के साथ समाज को एक धागे में पिरोते हुए एकता कायम करने का काम करती थी. साथ ही सावन मास में हरियाली का अहसास करते हुए मानव को विकास का मार्ग खोलती रही लोग सहकारिता की भावना से एक दूसरे का मददगार बनते थे वह भी आज खत्म हो गया है. इस तरह कजरी की विलुप्तता के साथ तमाम सहयोगी परम्पराये भी खत्म होती जा रही है. हमारे समाज को अपने इस धरोहर को बचाने संजोने की जरूरत है ताकि हम आपस में अपनत्व का अहसास करते रहे. लोकसंगीत एवं लोकसंस्कृति के प्रमुख अंग के रूप में कजरी भी लुप्त होने के कगार पर है. इस लोक संस्कृति की रक्षा इससे जुड़ कर ही की जा सकती है.