चंद्रविजय चतुर्वेदी : प्रयागराज : अथर्ववेद के बारहवें कांड का प्रथम सूक्त पृथ्वी सूक्त है जिसके कुल ६३ मन्त्र हैं. अथर्ववेद के रचनाकार अथर्वन ऋषि की चिन्तना पृथ्वी के समस्त चर अचर के प्रति पृथ्वी सूक्त में मुखरित होती है . अथर्ववेद का रचनाकाल ईसा से पांच हज़ार वर्ष पूर्व का माना जाता है. पृथ्वी के पयावरण, जीव जगत, चर अचर के संबंधों की जो वैज्ञानिकता इन मंत्रों में मुखरित हुई है वो आज अपने रचनाकाल के समय से ज्यादा प्रासंगिक प्रतीत होती है. पृथ्वी हमारी माता हैं और हम इसके पुत्र हैं. यह हम-व्यापक है, विराट है. इसमें सागर, नदी, झील, पहाड़, वन से लेकर चौरासी लाख प्रजातियां सम्मिलित हैं.
पृथ्वी सूक्त आज इसलिए भी प्रासंगिक है कि विज्ञान के दंभ में मानव की कुवृत्तियों ने माता रूपेण पृथ्वी के साथ जो दुर्व्यवहार किया है उसकी ही परिणति है-एक कोशिकीय अर्द्ध् जीव कोरोना का आतंक.
मन्त्र १ सत्यम वृहदृमुग्नम दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवी धारयन्ति सा नो भूतस्य भव्यस्य पल्युमरू लोक प्रथिवी नः कृनोती अर्थात - पृथ्वी को धारण करने वाले ब्रह्म, यज्ञ, तप, दीक्षा तथा वृहद् रूप में फैला जल है. इस पृथ्वी ने भूत काल में जीवों का पालन किया था और भविष्य काल में भी जीवों का पालन करेगी. इस प्रकार की पृथ्वी हमें निवास के लिए विशाल स्थान प्रदान करे.
मन्त्र -२ असंबाधम मध्यतो मानवानाम यस्या उद्यतः प्रवतः समं बहु नानावीर्या औशाधीर्या विभर्ति पृथिवी नः प्र्चतम राध्याताम नः अर्थात - जिस भूमि पर ऊंचे नीचे समतल स्थान हैं तथा जो अनेक प्रकार की सामर्थ्य वाली जड़ी बूटियों को धारण करती है. वह भूमि हमें सभी प्रकार से और पूर्ण रूप से प्राप्त हो और हमारी सभी कामनाओं को पूर्ण करे. मन्त्र २ का काव्यानुवाद पृथ्वी हमारी माता है हम उसके पुत्र हैं मानव प्रजाति के संग संग उसके सहचर अन्यान्य प्राणी प्रजातियों की जननी --माँ पृथ्वी तेरी कोख असीम है अनंत है नाना प्रकार के सामर्थ्य से विभूषित वनस्पतियों को भी जन्माया है तूने रत्नगर्भा इस भूमि पर जो पर्वत के शिखर से ऊँचे हैं जो पातालसे गहरे हैं जिसका अधिकांश क्षेत्र सपाट सरपट है अन्यान्य रस रूप गंध की विविधता को समेटे सौंदर्य की छटा बिखेरते वनस्पति जगत का लालन पालन करती जननी तेरे दुलार से हमें तुम्हारी भूमि सम्पूर्णता में प्राप्त हो हमारी सभी कामनाएं पूर्ण करो जगजननी हम तुम्हारे पुत्र हैं