रीत-रिवाज अउर नव्यता का संगम
पाँच फरवरी का सुग्घर भिनसार, बछवल गाँव के गलियन मा मंगल गीत गूँजत रहिन। मिसिर परिबार के अँगना मा बियाह क बाद के रस्म-रिवाज के तइयारी जोरत चलत रही। नव विवाहित जोड़ी के गाँव के सब मंदिरन मा पूजन करावै के रस्म निभावा जात रहा। ई कौनो साधारण परंपरा नाहीं रही, गाँव के सालों पुरान मरजाद रहा, जेकरी पीढ़ी दर पीढ़ी निभावत आवा जात रहा।
मोर पहिन के आगवा चलत नवजवान के देख के लागी नाय कि ई बस कौनो साधारण गाँव के लड़का आय। ऊ त कंप्यूटर साइंस मा एम.एस.सी. करिन अउर एक ठे बड़का कंपनी मा अफसर बनिन। नवकी पढ़ाई-लिखाई से लैस रहिन, लेकिन अपन जड़ि नाहीं भुलाइन। ऊ हरिशंकर मिसिर के बेटा रहिन, जे खुदौ अपन संस्कार अउर परंपरा के गूढ़ गियानी रहिन।
ब्रह्म मुहूर्त मा उठि के बुजुर्गन के परनाम, गौरी-गणेश के पूजन, अउर फिर नवेली दुलहिन समेत गाँव के मंदिरन मा मत्था टेकै के परंपरा, ई सब तउनके संस्कारन मा घुलल-मिलल रहा। बियाह भलेही सीतापुर मा भय रहा, लेकिन ससुराल से लउटि के पहिले गाँव के देवी-देवतन के मनौतियाँ चढ़ावै के रस्म त सबके निभावै ही परत रहा।
गुलाबी, लहँगा-ओढ़नी ओढ़े बिटियन, पीली पगड़ी बाँधे बुजुर्गन, अउर रंग-बिरंगी कपड़ा पहिने नन्हें-नन्हें लरिकन... पूरा गाँव ई मंगल यात्रा के साक्षी बनि रहिन। नवेली दुलहिन घूँघट मा लुकाइ, ससुराल के संस्कारन के अपन हिरदइया मा समेटे, पतिदेव संग मंदिरन के परिक्रमा करत रही।
अचानक कौनो पूछ बइठिन, "भइया, इतना पढ़-लिख के अइसन परंपरा निभावे मा तनकौ दिक्कत नाहीं लागत?"
युवक मुस्कुरा के कहिन, "माई-बाबू के इच्छा ही हमार सिरमौर रही। नवकी पढ़ाई के माने ई नाहीं कि अपन जड़ि भुलाइ दीन जाय। असली नव्यता त ई रही कि जौन संस्कार हमका मिलिन, ओका अउर मजबूत कइ दीन जाय।"
गाँव के बुजुर्गन के आँखिन मा संतोष के चमक रही। ई बियाह बस दू जने के नाहीं, परंपरा अउर नव्यता के अद्भुत संगम के पावन उत्सव रहा।