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श्रावस्ती : बुद्ध का प्रिय स्थल  

बुद्ध का प्रिय स्थल  
बुद्ध का प्रिय स्थल  
बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी जगहें महत्वपूर्ण है लेकिन श्रावस्ती का महात्म्य अलग है | श्रावस्ती में बुद्ध ने अपने जीवन के पच्चीस वर्षा – वास व्यतीत किए गये  हैं | वहाँ उन्होंने सर्वाधिक उपदेश दिए हैं देशना की है , उनके जीवन की कई घटनाएं वहाँ घटित हुई हैं | प्राय;  बौद्ध एक जगह रूकते नही थे इसलिए उन्हें श्रमण
 कहा जाता था |
 
वे जगह जगह भ्रमण करके बुद्ध के उपदेश का प्रचार करते थे  -लोगों के सवालों का जबाब देते  थे , जो प्रश्न उनसे सुलझते नही थे  , उसे वे बुद्ध से पूछते थे | वर्षा का मौसम उनके लिए कठिन होता था , उनके चीवर बारिश को रोक नही पाते थे | उन्हें आश्रय चाहिए था , बुद्ध और उनके अनुयायी किसी राजमहल की शरण नही लेते थे | बुद्ध ने स्वयं राजमहल का त्याग किया था और सामान्य जीवन को अपनाया था  हालांकि कई सम्राटों ने उनके रूकने के प्रस्ताव दिए थे लेकिन वे राजी नही हुए |
 
हाँ वे आम्रपाली और सुजाता जैसी स्त्रियों का आतिथ्य स्वीकार किया था | जहां महाजनपदों के राजकुमार उन्हें आतिथ्य देने को तैयार थे लेकिन उन्होंने एक गणिका के आतिथ्य को स्वीकार किया | आम्रपाली को उनके उपदेशों ने प्रभावित किया ,उसने अपना जीवन बुद्ध को अर्पित  कर दिया और उसे धम्मसंघ में शामिल कर लिया | बुद्ध यशोधरा को पूर्व में संघ में सम्मिलित नही किया था  लेकिन आम्रपाली के लिए धम्मसंघ के दरवाजे खोल दिए  थे | इसके बाद संघ में स्त्रियों के प्रवेश को मान्य किया गया ,इसके लिए उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा था | समाज में स्त्री –पुरूष अलग – अलग  इकाई थे एक दूसरे के पूरक नही थे , इस विषमता को उन्होनें दूर करने की कोशिश  की |
   
सुजाता की खीर  उन्होंने बोधि प्राप्ति  के बाद ग्रहण की थी  | स्त्रियों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति थी – यह उनकी देशना में  स्पष्ट होता है |इतिहास  गवाह है कि महापुरूष सबसे पहले स्त्रियों की चिंता करते थे – वे जानते थे कि स्त्रियों के बिना समाज की  निर्मित नही हो सकती  | उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना  आवश्यक है | 
 
श्रावस्ती हिमालय की तलहटी और तराई क्षेत्र  में बसा हुआ एक प्रसिद्ध नगर   था जो एक समय में महाजनपद में एक कोशल की राजधानी थी , उसके अधिपति प्रसेनजित थे | उस समय महाजनपदों की संख्या अठारह थी , इन महाजनपदों में काशी ,कोशल ,मगध , अवन्ति ,  चेदि , कुरू , पांचाल प्रमुख महाजनपद थे | यह सब राजनीतिक और प्रशासनिक इकाइयां थी जो अपनी – अपनी संस्कृति  के कारण जाने जाते थे | कोशल का विस्तार वर्तमान अयोध्या , गोंडा , बलरामपुर , बहराइच के साथ गोरखपुर की सीमा तक था | कभी उसकी राजधानी अयोध्या थी | श्रावस्ती के इस स्थल को सहेत -महेत के नाम से जाना जाता है लेकिन यह अपने समय का भव्य नगर था , वह अचरावती ( वर्तमान नाम  राप्ती )   नदी के तट पर बसा था  | 
 
यह स्थल जनपद बलरामपुर से 16.6 कि. मी . की दूरी पर स्थित  है  | बुद्ध के जीवन से संबंधित लुम्बिनी , सारनाथ और कुशीनगर का जिस तरह विकसित हुए हैं उस तरह श्रावस्ती का विकास नही हुआ है  |जबकि यह नगर बुद्ध की सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था  |
   
श्रावस्ती ,कपिलवस्तु , लुम्बिनी ,कुशीनगर एक दूसरे  से जुड़े हुए है ,इसे एक दूसरे से सम्बद्ध  किया जा सकता और  बुद्ध परिक्षेत्र बनाया जा सकता है लेकिन राजनीतिक इच्छा – शक्ति और सांस्कृतिक जागरूकता के कारण यह काम नही हो पा रहा है 
   
प्रसेनजित बुद्ध के समकालीन थे और बुद्ध   पूर्व में वे शाक्य  वंश के सिद्धार्थ नाम के  राजकुमार थे लेकिन जीवन -सत्य की खोज में उन्होंने  गृहत्याग कर दिया था |इस कारण प्रसेनजित   से उनके भावात्मक संबंध भी  थे | बौद्ध ग्रंथों में यह कथा भी  प्रचलित है कि प्रसेनजित  ने यज्ञ के लिए सैकड़ों पशुओ की बलि के लिए तैयारी कर ली थी  | यह कोई नयी प्रथा नही थी ,यज्ञ के नाम पर इस तरह के पशुबलि की परंपरा थी |
   
जब यह सूचना बुद्ध के पास पहुंची तो  उन्होंने  इस यज्ञ को रूकवा दिया | अहिंसा बुद्ध के लिए परम धर्म के समान थी ,उन्होंने वैदिक हिंसा के बारे में सुना था और इसका हर प्रकार से विरोध किया था  | उनका कहना था – जो शासक करूणा पर आधारित शासन करता है ,उसे हिंसक साधनों पर निर्भर नही रहना पड़ता : बुद्ध ने उनका ह्रदय परिवर्तन किया और वे बुद्ध के अनुयायी बन गये | 
   
प्रसेनजित की शिक्षा तक्षशिला में हुई  थी जो उस समय विद्या का बड़ा केंद्र था | वे आजकल के अपढ़ सम्राटों की तरह नही थे जिनके पास शिक्षा की कोई योग्यता नही है | यहाँ पर  हिन्दू और बौद्ध संप्रदाय के छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे | इस ज्ञानकेन्द्र के आचार्य चाणाक्य थे जो प्राचीन गांधार राज्य में अवस्थित था , चन्द्रगुप्त मौर्य   इसी विश्वविद्यालय शिक्षित हुआ था और प्रतापी राजा बना | यह जगह वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी जनपद में स्थित है | इसे विश्व धरोहर का सम्मान मिला हुआ है | सम्राट प्रसेनजित  ने इस विषविद्यालय  से शिक्षा ग्रहण किया था |
   
श्रावस्ती में सुदत्त नाम के नगर – सेठ थे जो अपनी दानशीलता और उदारता केलिए  अनाथपिण्डक नाम से ख्यात हुए  | वह जो अपने लिए रखे बिना  ( अनथ ) अन्य को पिंड दे | मूल रूप से वे राजगृह ने निवासी थे लेकिन वे बुद्ध के भक्त थे | उन्हें लगा कि बुद्ध के रहने  के लिए यहाँ कोई उपयुक्त स्थल नही है ,वर्षा ऋतु में उन्हें बड़ी असुविधा होती है | उसी समय राजकुमार जेत को जेतवन प्रसेनजित  ने उपहार में दिया था | अनाथपिण्डक को लगा इस जगह बुद्ध के लिए ध्यान केंद्र , धर्म  सभागार और रहने के लिए विहार स्थल  बनाया जा सकता है लेकिन यह जगह राजकुमार जेत के आधिपत्य में है  | सुदत्त ने इस जमीन को खरीदने का प्रस्ताव दिया लेकिन उसने मना कर दिया | मान -मनुहार के बाद उसने कहा कि इस जगह जितनी स्वर्ण मुद्राएं बिछायी जाएगी , उतनी जमीन तुम्हारी  हो जाएगी | 
 
सुदत्त ने जेतवन की जमीन पर स्वर्ण  मुद्राएं बिछाने लगा | यह देखकर जेत को आश्चर्य हुआ कि सुदत्त किस व्यक्ति के लिए यह काम कर रहा है वह अवश्य ही कोई विशिष्ट व्यक्ति होगा बुद्ध  के बारे  में उसे  कोई जानकारी नही थी लेकिन बुद्ध के बारे में जानने के बाद उसकी चेतना बदल गयी ,  उसने बाकी जमीन सुदत्त को उपहार में दे दी | 
 
इस स्थल पर निर्माण कार्य सुदत्त , सारिपुत्त और राजकुमार जेत के देख – रेख में हुआ | संदर्भ के लिए सरिपुत्त की जानकारी दे दी जाए | बुद्ध के दस शिष्यों में सारिपुत्त  के साथ उनके आत्मीय मित्र महामौदगल्यायन थे , दोनों मिलकर भिक्षुओ के साथ देशना करते थे  |बुद्धकालीन समय में यह युगुल जोड़ी बहुत प्रसिद्ध थी | बुद्ध  के उपदेशों को जन –जन तक पहुंचाने के लिए उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण  थी | उनके पास पाँच सौ शिष्यों की मंडली थी जो बुद्ध के कार्यों को आगे बढ़ा रही थी |
 
अगर आप कभी जेतवन जाए तो जेतवन में बुद्ध के साथ अनाथ भिंडक  की छाया दिखायी देगी | वे दोनों कण – कण में व्याप्त है | अब यह जगह खंडहर  में बदल चुकी है लेकिन  यह पता तो चल ही जाता है कि जेतवन का निर्माण कार्य कितने समर्पित भाव से किया गया होगा | यह किसी भवन का नही साधना और आस्था  केंद्र का निर्माण था  | जेतवन में  बुद्ध के आवास स्थल  मूलगंधकूटी को देखा जा सकता है ,जगह जगह विहार और ध्यानकेंद्र बने हुए है | यहाँ पहुँच कर आदमी इतिहास के  उस कालखंड में सहज पहुँच जाता है | जेतवन में आकर्षण का केंद्र बोधिवृक्ष है | बताया जाता है कि वृक्ष को  अनाथभिंडक ने लगाया था – अब वह पुराना हो चुका है , उसे सुरक्षित करने के लिए  लोहे की शहतीरे लगा दी गयी है | 
 
एक तरफ बुद्ध , जेतवन और अनाथपिण्डक है तो दूसरी ओर अंगुलिमाल की डरावनी और रोचक  कथा |जिसके अत्याचार से वहाँ की प्रजा  दुखी थी ,कोई डर के कारण घर से बाहर नही निकलता था  | वह लोगों की हत्या करके उंगुलियों की माला धारण कर लेता था  , यहाँ तककि सम्राट प्रसेनजित  उससे भयभीत थे | कब कौन उसका शिकार बन जाय ,इसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता था  |  बौद्ध साहित्य के अध्ययन करने के बाद यह पता चलता है  कि वह एक ब्राह्मण पुत्र था | उसी इलाके में मणिभद्र नाम के एक विद्वान थे जो वेदों के ज्ञाता थे | उनकी माँ ने अपने पुत्र माणवक को  शिक्षा के  उसे उनके पास भेज दिया | एक बार मणिभद्र अध्ययन के लिए घर से बाहर गये और घर  की रक्षा की जिम्मेदारी  माणवक को  दे दी | गुरू पत्नी  युवा थी , वे उसके  प्रति आकर्षित हो गयी और अनावृत होकर खुद को खंभे में बांध लिया और कुकर्म के लिए प्रस्ताव दिया लेकिन वह तैयार नही हुआ  |
 
 इसी बीच मणिभद्र का आगमन  हो गया, इसे देख कर वे चकित हो गये  उन्होंने सोचा कि जिस शिष्य को  उन्होंने सुरक्षा का दायित्व दिया था , उसने उनके साथ विश्वासघात किया है | उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा  तो उसने और  तमाम आरोप माणवक के ऊपर मढ़ दिया और उसे दोषी साबित कर दिया | मणिभद्र ने कहा – तुमने पाप किया है इससे मुक्ति के लिए हजार लोगों की हत्याएं करो और उनकी उंगुलियों की माला पहनो | इस तरह  माणवक का अंगुलीमाल के रूप  में रूपांतरण हो गया श्रावस्ती में वह कानून और व्यवस्था की बड़ी समस्या बन गया | सम्राट और प्रजा दोनों  अंगुलीमाल के आतंक से डरने लगी |
 
इसी बीच में बुद्ध आए और सम्राट ने अपनी समस्या बतायी | बुद्ध उससे मिलने के लिए अकेले जाने लगे –लोग अचरज में थे कि कोई भी उस पथ पर अकेले नही जाता था , चालीस –पचास लोग झुंड में जाते थे लेकिन बुद्ध अकेले जा रहे | अब तक वह निन्यानबे लोगों की हत्याएं कर चुका था  | जैसे अंगुलीमाल ने उन्हे देखा और दहाड़ने लगा ,बुद्ध निभीक थे उन्होंने कहा – बहुत बहादुर हो तो  इस पेड़ की टहनी काट कर दिखाओ – उसने उनके सामने टहनी काट कर उनके सामने प्रस्तुत कर दी | फिर बुद्ध ने कहा – अब इसे जोड़ों , उसने कहा कि कटी हुई टहनी कैसे जुड़ेगी ? यही से बुद्ध ने उसकी  चेतना पर प्रहार करते हुए कहा –तुम बलशाली कैसे हुए ,जब तुम किसी को जीवन नही दे सकते तो तुम्हें किसी के जीवन  लेने का कोई  अधिकार नही है |
 
बुद्ध के इस संवाद से उसका जीवन बदल गया , वह शरणागत हो गया | उसने सारे अनाचार छोड़ दिए और बुद्ध की शिष्य मंडली में शामिल हो गया , उसका नाम अहिंसक रखा गया | श्रावस्ती में अंगुलीमाल का किला है – इस स्थल बुद्धकलीन जीवन के स्मारक बिखरे हुए हैं इसके अलावा तमाम तरह की पुरा –कथायें  प्रचलित हैं | वेद उपनिषद में अनेक श्रुति कथाएं हैं  , उनकी सत्यता की जमानत कोई नही दे सकता लेकिन इस बात से कोई इनकार नही कर सकता कि इन कहानियों में हमे बदलने की क्षमता जरूर है | पता नही कौन सा तीर निशाने पर लग जाए और हम  बदलने लग जाए |
 
इसी तरह रत्नाकर डाकू बाल्मीकि में परिवर्तित हो गया था  ,उसका जीवन काव्यमय हो गया था | उसने रामायण की रचना की और इस मूल  कथा से कई कवि और कथायें पैदा हुई हैं | बुद्ध  भी अपने जीवन में कई कथाओं को जन्म देते है | बुद्ध धर्म की कई शाखाएं और उपशाखाएं पुष्पित – पल्लवित हो रही हैं , यह इस दर्शन के विकास  का कारण हैं | बुद्ध कभी नही चाहते थे कि उनकी बनायी हुई लीक पर कोई चले , वह खुद अपना  ज्ञानोदय करे | विचारधाराएं कोई गणित का सिद्धांत नही होती , समय के साथ उसमें संशोधन होते रहते हैं | बुद्ध दर्शन में यह उदारता दिखाई देती हैं इसलिए वह आज के समय में प्रसांगिक है | आज जब हिंसा  की संस्कृति चारों तरफ दिखाई दे रही है  ,बुद्ध की कथाओ और उपदेशों को पढ़ने की जरूरत हैं | 
   
बुद्ध के जीवन के  स्थलों के भ्रमण के बाद मुझे कोई ज्ञान मिला हो या न मिला हो लेकिन जीवन और दुख के यथार्थ को समझने की दृष्टि जरूर मिली , उनके उद्गम स्थलों का पता मिला | यह भी  मालूम हुआ कि जीवन में करूणा और अहिंसा का कितना महत्व है , उसके बिना जीवन अर्थहीन है |बुद्ध ने कहा था – अप्प दीपों भव यानी अपना प्रकाश स्वयं बनो – यह वाक्य मुझे कठिन समय में  प्रकाशित करता रहा है |
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 स्वप्निल श्रीवास्तव 

 


Published: 08-07-2024

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