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स्मृति : बाबा नागार्जु न

बाबा नागार्जु न
बाबा नागार्जु न

आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवि और कथाकार, अपने जनवादी विचारों के लिए प्रसिद्ध, साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित बाबा नागार्जुन (मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र, जन्म :30 जून 1911 - मधुबनी, बिहार और निधन :5 नवंबर 1998 , दरभंगा, बिहार का आज जन्मदिवस है | उन्हें उनकी ही कुछ कविताओं के साथ स्मरण करते हैं 

बाबा के के कथ्य पर तो बहुत बात हुई लेकिन उनके शिल्प पूरी शिद्द्त से समझा-परखा नहीं गया। बाबा की प्रसिद्ध अधिकतर कविताएँ किसी छंद विशेष में हैं। इस पर एक एक कर बात करेंगे। सबसे पहले मैं यहाँ दूसरी कविता के शिल्प की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ : शासन की बन्दूक पूरी की पूरी कविता दोहा छंद में लिखी गई कविता है।

पूरी कविता में छन्दगत कोई भी त्रुटि नज़र नहीं आती। मात्रा, लय, समान्त एकदम सही।जैसा कि बाबा ने खुद कहा है कि जब उन्हें छंद का ज्ञान हुआ तो लोगों को चिढ़ाने के लिए कविता करना शुरू किया। अतः छंद को साधने के बाद ही बाबा ने कविताई शुरू की। जल्दी ही  उनकी कुछ और कविताओं के शिल्प पर बात करेंगे।

-अनन्त आलोक 

 

१. आकाल और उसके बाद

 

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

 

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

 

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

 

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त

 

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

 

धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद

 

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

 

कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

 

२.शासन की बन्दूक 

 

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक

नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

 

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक

जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक

धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक

जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक

बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक

 

३.बादल को घिरते देखा है

 

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,

बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को,

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर

छोटी बड़ी कई झीलें हैं,

उनके श्यामल नील सलिल में

समतल देशों से आ-आकर

पावस की उमस से आकुल

तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते

हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था

मंद-मंद था अनिल बह रहा

बालारुण की मृदु किरणें थीं

अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे

एक-दूसरे से विरहित हो

अलग-अलग रहकर ही जिनको

सारी रात बितानी होती,

निशा-काल से चिर-अभिशापित

बेबस उस चकवा-चकई का

बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें

उस महान् सरवर के तीरे

शैवालों की हरी दरी पर

प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर

दुर्गम बर्फानी घाटी में

अलख नाभि से उठने वाले

निज के ही उन्मादक परिमल-

के पीछे धावित हो-होकर

तरल-तरुण कस्तूरी मृग को

अपने पर चिढ़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

 

कहाँ गया धनपति कुबेर वह

कहाँ गई उसकी वह अलका

नहीं ठिकाना कालिदास के

व्योम-प्रवाही गंगाजल का,

ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या

मेघदूत का पता कहीं पर,

कौन बताए वह छायामय

बरस पड़ा होगा न यहीं पर,

जाने दो वह कवि-कल्पित था,

मैंने तो भीषण जाड़ों में

नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,

महामेघ को झंझानिल से

गरज-गरज भिड़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

 

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल

मुखरित देवदारु कनन में,

शोणित धवल भोज पत्रों से

छाई हुई कुटी के भीतर,

रंग-बिरंगे और सुगंधित

फूलों की कुंतल को साजे,

इंद्रनील की माला डाले

शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,

कानों में कुवलय लटकाए,

शतदल लाल कमल वेणी में,

रजत-रचित मणि खचित कलामय

पान पात्र द्राक्षासव पूरित

रखे सामने अपने-अपने

लोहित चंदन की त्रिपटी पर,

नरम निदाग बाल कस्तूरी

मृगछालों पर पलथी मारे

मदिरारुण आखों वाले उन

उन्मद किन्नर-किन्नरियों की

मृदुल मनोरम अँगुलियों को

वंशी पर फिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।


Published: 01-07-2024

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