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हिंदी को बड़ा प्लेटफार्म दिया प्रसाद जी ने : कविता प्रसाद

महाकवि जयशंकर प्रसाद नेअपनी  रचनाओं से साहित्य और संस्कृति को इतना बड़ा प्लेटफॉर्म दिया उसने उन्हें कालजयी बना दिया। वे हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक थे।प्रसाद जी की रचनाओ में जीवन का विशाल क्षेत्र समाहित हुआ है।

कविता प्रसाद
कविता प्रसाद

हिंदी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिससे खड़ी बोली में केवल कमनीय माधुर्य काव्य धारा प्रवाहित हुई बल्कि जीवन के सूक्ष्म और व्यापक आयामो के चित्रण की शक्ति भी संचित हुईऔर कामायनी-आंसू तक पहुंच कर प्रेरक शक्ति काव्य के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। उसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि खड़ी बोली हिंदी काव्य की सर्व स्वीकृत निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।

        कामायनी छायावाद युग का सर्व श्रेष्ठ

महाकाव्य है।इसे छायावाद युग का उपनिषद कहा जाता है। कामायनी के नायक मनुऔर श्रद्धा हैं जबकि आंसू उल्लास की,उस जन्मजात सुंदरता की जो स्त्री की विशेषता है।वेहिन्दी के अप्रतिम कवि, कहानीकार, नाटककार,उपन्यास कार और निबन्धकार थे। हिंदी की सभी विधाओं  को उन्होंने परिपुष्ट किया।महाकवि जयशंकर प्रसाद की रचना यात्रा भारतीय जन जागरण की चश्मदीद गवाह है।

जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में

‘कानन-कुसुम’, ‘चित्राधार’, ‘झरना’, ‘लहर’, ‘प्रेम पथिक’, ‘आँसू’, ‘ आदि प्रसादजी की प्रमुख काव्य-कृतियाँ थी| ‘कामायनी’ हिन्दी काव्य का गौरव-ग्रन्थ  है| ‘विशाख’, ‘राज्यश्री’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘अजातशत्रु’, ‘चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ आदि उनके उत्कृष्ट नाटक माने जाते हैं| अनेक कहानी-संग्रह, कई उपन्यास तथा निबन्धों की रचना करके जयशंकर प्रसाद ने अपनी प्रतिभा का प्रसाद हिन्दी को प्रदान किया| तथा इसके साथ-साथ ख्याति भी प्राप्त की है|

जयशंकर प्रसाद का दृष्टिकोण विशुद्ध मानवीय रहा है|वे जीवन की चिरन्तन समस्याओं का कोई चिरन्तन ,मानवीय समाधान खोजना चाहते थे| इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सामंजस्य ही उच्च मानवता मानते थे| उसी की प्रतिष्ठा जयशंकर प्रसाद ने की है| प्रवृत्ति और निवृत्ति का यह समन्वय ही भारतीय संस्कृति की अनुपम देन है और अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से यही सन्देश जयशंकर प्रसाद ने दिया भी |

इनकी प्रारम्भिक रचनाओं में ही, संकोच और झिझक होते हुए भी कुछ कहने को आकुल चेतना के दर्शन होते हैं| ‘चित्राधार’ में ये प्रकृति की सुंदरता और माधुर्य पर मुग्ध हैं| ‘प्रेम पथिक’ में प्रकृति की पृष्ठभूमि में कवि-हृदय में मानव सौन्दर्य के प्रति जिज्ञासा का भाव जागता है| इनकी कविता में माधुर्य तथा पद-लालित्य भरा है|

माधुर्य-पक्ष की ओर स्वभावतः इनकी प्रवृत्ति होने से रहस्य-भावना में भी वही संयोग-वियोग वाली भावनाएँ व्यक्त हुई हैं| ‘आँसू’ जयशंकर प्रसाद जी का उत्कृष्ट, गम्भीर, विशुद्ध मानवीय विरह काव्य है, जो प्रेम के स्वर्गीय रूप का प्रभाव छोड़ता है, इसीलिए कुछ लोग इसे आध्यात्मिक विरह का काव्य मानते हैं| ‘कामायनी’ प्रसाद-काव्य की सिद्धावस्था है,

 

जयशंकर प्रसाद छायावादी कवि थे| प्रेम और सौन्दर्य उनके काव्य का प्रधान विषय है| मानवीय संवेदना उसका प्राण है| प्रकृति को सचेतन अनुभव करते हुए उसके पीछे परम सत्ता का आभास कवि ने सर्वत्र किया है तथा अपने पाठकों को कराया है| यही इनका रहस्यवाद है| इनका रहस्यवाद साधनात्मक नहीं है| वह भाव-सौन्दर्य से संचालित प्रकृति का रहस्यवाद है| अनुभूति की तीव्रता, वेदना, कल्पना प्रणवता आदि प्रसाद-काव्य की कतिपय अन्य विशेषताएँ हैं|

 

जयशंकर प्रसाद ने काव्य-भाषा के क्षेत्र में भी युगान्तर उपस्थित किया है| द्विवेदी युग की अभिधा प्रधान भाषा और इतिवृत्तात्मक शैली के स्थान पर प्रसादजी ने भावानुकूल चित्रोपम शब्दों का प्रयोग पाया गया है| लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता से युक्त इनकी भाषा में अद्भुत नाद-सौन्दर्य और ध्वन्यात्मकता है| चित्रात्मक भाषा में संगीतमय चित्र अंकित किये हैं| इन्होंने प्रबन्ध तथा गीति-काव्य दोनों रूपों में समान अधिकार से श्रेष्ठ काव्य-रचना की है|

जयशंकर प्रसाद का काव्य अलंकारों की दृष्टि से भी अत्यन्त समृद्ध है| प्रायः सादृश्यमूलक अर्थालंकारों में ही इनकी वृत्ति अधिक रमी है| परम्परागत अलंकारों को ग्रहण करते हुए भी इन्होंने नवीन उपमानों का प्रयोग करके उन्हें नयी विशेषताएं प्रदान की है| अमूर्त उपमान-विधान उनकी विशेषता है| मानवीकरण, ध्वन्यार्थ व्यंजना, विशेषण-विपर्यय जैसे पाश्चात्य प्रभाव से ग्रहीत आधुनिक अलंकारों के भी सुन्दर प्रयोग इनकी रचनाओं में देखने को मिलते हैं|

विविध छन्दों का प्रयोग और नवीन छन्दों की उद्भावना भी प्रसादजी ने की है| वस्तुतः इनका हिंदी साहित्य अनन्त वैभव-सम्पन्न है। प्रसाद जी की भाषा पूर्णतः साहित्यिक परिमार्जित एवं परिष्कृत खड़ी बोली हिन्दी है| भाषा प्रवाहयुक्त होते हुए भी संस्कृतनिष्ठ है, जिसमें सर्वत्र प्रसाद एवं माधुर्य गुण पाए गए है| अपने सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने के लिए इन्होंने व्यंजना एवं लक्षणा शब्द शक्तियों का सहारा लिया है| इनकी शैली काव्यात्मक चमत्कारपूर्ण अत्यन्त सरस एवं मधुर है|

प्रकृति में चेतनता की अनुभूति, रहस्यमयता, सौन्दर्य-निरूपण, नारी-चित्रण आदि भागवत विशेषताएँ इनके काव्य पाई गई हैं| संस्कृतनिष्ठ कोमलकान्त पदावली, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, ध्वन्यात्मकता, आलंकारिता आदि भाषागत प्रवृत्तियाँ इनके काव्य में स्वाभाविक रूप में देखने को मिलते हैं|

वस्तुत: हिन्दी में नवीन युग का द्वार ‘प्रसाद’ ने ही खोला है।इतिहास, दर्शन और कला के मणि-कांचन संयोग ने इनके काव्य को अपूर्व गरिमा प्रदान की है| छायावादी शैली-शिल्प का प्रौढ़तम रूप इनकी कविता में उपलब्ध है|

हिन्दी साहित्य में इनका महत्त्व इसी बात से स्पष्ट है कि तुलसीदास जी की ‘श्रीरामचरितमानस’ के बाद दूसरा स्थान ‘कामायनी’ को ही दिया जाता है| निश्चित ही कामायनीकार का कृतित्व अविस्मरणीय एवं अमूल्य है| ये हिन्दी के सफल नाटककार एवं कथाकार भी माने जाते हैं|जयशंकर प्रसाद की रचनाएं​

इनकी प्रमुख काव्य कृति कामायनी  में जहाँ मनु और श्रद्धा को प्रलय के बाद सृष्टि-संचालक बताया गया है, वहीं दार्शनिक बिन्दु पर मनु, श्रद्धा और इड़ा के माध्यम से मानव को हृदय (श्रद्धा) और बुद्धि (इड़ा) के समन्वय का आदेश दिया गया है| आँसू-यह आधुनिक हिन्दी साहित्य की अनुपम धरोहर है| इसमें हृदय की व्यथा को मार्मिक शैली में व्यक्त किया।

   ।प्रसाद जो सफल नाटक लेखक थे| उनके प्रमुख  नाटकों  हैं– चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त,ध्रुवस्वामिनी,कामना,जनमेजय कानागयज्ञ,विशाख,राज्यश्री,अजातशत्रुऔर प्रायश्चित्त।एकांकी नाटकों में एक घूँट अधिक चर्चित है।इन्होंने तीन उपन्यास कंकाल,  तितली,  इरावती (अपूर्ण) हैं

उन्होंने उत्कृष्ट कहानियाँ भी लिखीं| इन कहानियों में भारत के अतीत का गौरव साकार हो उठता है| इनके कहानी संग्रह

 हैं –  छाया, प्रतिध्वनि, आँधी, इन्द्रजाल, औऱ आकाशदीपप्रसाद जी श्रेष्ठ निबन्ध कार भी थे।

प्रसाद जीअसाधारण प्रतिभाशाली कवि थे उनके काव्य में एक ऐसा आकर्षण एवं चमत्कार है कि पढ़ने वाला पाठक उसमें रसमग्न होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है| निस्सन्देह  आधुनिकहिन्दी-काव्य-गगन के अप्रतिम तेजोमय मार्तण्ड हैं|

 जहां तक दार्शनिकता का झुकाव है प्रसाद जी शैव दर्शन,सुमित्रा नन्दन पंत अरविंद दर्शन, महादेवी वर्मा सर्वात्मवादऔर महाकवि सूर्यकांत निराला अद्वैत वाद से प्रभावित थे। उनकी रचनाओं में दार्शनिकता की यही  प्रवृत्ति झलकती है। तभी आलोचकों ने  जयशंकर प्रसाद को ब्रम्हा, सुमित्रानन्दन पंत को विष्णु और निराला जी की महेश की संज्ञा दी है।

प्रसाद जी का जन्म – 30 जनवरी 1989 

काशी (उत्तर प्रदेश) में और महाप्रयाण 15 नवम्बर 1937 को हुआ। उनके पिता का नाम  देवीप्रसाद था जो सुघनू साहू के नाम से चर्चित थे। प्रसाद जी की पहली पत्नी विंध्य वासिनी देवी थी। दूसरी पत्नी सरस्वती देवी से हुआ। प्रसाद जी के व्यक्तित्व को सवारने में उनकी भाभी लखरानी देवी की बड़ी भूमिका थी। उनके जीवन मे दीप शिखा जैसी थी।

  प्रसाद जी पंत, निराला ,महादेवी वर्मा के साथ ही  प्रेमचंद जी से उनकी अंतरंगता थी।

छायावाद के प्रवर्तक

 

लेखन विधा – काव्य, नाटक, उपन्यास, निबन्ध

 

• भाषा – संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली

 

शैली – प्रबन्ध काव्य एवं मुक्तक

 

• प्रमुख रचनाएँ – कामायनी, आँसू, लहर, झरना, चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम पथिकप्रसाद जी बनारस में सुंघनी साहु!कहलाते थे। लेकिन वे शिव के प्रतिरूप थे। उनके नाम मे भी भगवान शंकर का उद्घोष होता है। जय शंकर! शायद उनके नाम -जयशंकर प्रसाद की यही सार्थकता थी। बनारस में उनकी आत्मा झलकती थी।

 प्रसाद जी और प्रेमचंद दोनों के रहन सहन में अंतर होने के बावजूद उनमें गहरी छनती थी। परिवार की अंतरंगता आजीवन बनी रही। जब प्रेम चंद का निधन हुआ तो प्रसाद जी  दुख से संतप्त हुए।प्रेमचंद जी का शव पड़ा हुआ था। उस निर्जीव शरीर को गोद में चिपटाये भाभी शिवरानी आकाश का भी हृदय दहला देने वाला करुण क्रन्दन कर रही थीं। श्मशान जाने के लिये नगर के सैंकडों संभ्रान्त साहित्यिक उतावले हो रहे थे।

कुछ अपने दुःख का वेग नही सम्भाल पा रहे थे। कुछ को 'और भी बहुत से काम थे।' उन्हें जल्दी थी 'इस काम से निबट जाने की' और कुछ ने मुझे बतलाया था कि वह रास्ते से ही अलग हो जायेंगे, श्मशान तक न जा सकेंगे।दूसरी ओर भाभी शिवरानी शव को किसी को छूने नहीं दे रही थीं। सबने 'प्रसाद' जी से कहा -- 'आप ही समझायें।' वे आगे बढ़े। भाभी से बोले 'अब इन्हें जाने दीजिये।'वे क्रोध पूर्वक चीख़ उठीं --- 'आप कवि हो सकते हैं पर स्त्री का हृदय नहीं जान सकते। मैंने इनके लिये अपना वैधव्य खंडित किया था। इनसे इसलिये नहीं शादी की थी कि मुझे दुबारा विधवा बना कर चले जायें। आप हट जाइये।'

प्रसाद जी के कोमल हृदय को वेदना तथा नारी की पीड़ा ने जैसे दबोच लिया। उनका गला भर आया। नेत्रो मे आँसू छलछला उठे।परिपूर्णांन्द से भर्रायी आवाज में बोले -- ' परिपूर्णा, तुम्हीं सम्भालो। 'भाभी चिल्लाती चीखती रहीं और मैंने 'अब यह प्रेमचंदजी नहीं हैं, मिट्टी है'--- कहकर मुर्दा उनकी गोद से छीन लिया।

उस घटना के बाद मैंने प्रसाद जी को कभी हँसते नहीं देखा। उनके शरीर में क्षय घुस चुका था।

जब चिता की लपट उन्हे समेटने लगी, सब लोग इधर उधर की बातें भी कर रहे थे। प्रेमचन्द जी के सम्बन्ध में कलप रहे थे। पर एक व्यक्ति मौन, मूक, एकटक चिता की ओर देखता रहा। प्रेमचंद जी का शव उठाने के समय ऐसी घटना हो गई थी उसके साथ कि उसका मन रो रहा था और शायद वह देख रहा था -- छ: महीने के बाद अपनी चिता भी..ऐसे थे जयशंकर 'प्रसाद जी।


Published: 29-01-2024

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